देहरी ने झूठ बोला है कपाटों से
सांकलों ने सी लिए हैं होंठ
घर कैसे बचेगा?
धूल आंगन की छतों के सिर चढ़ी है
और चैखट मूकदर्शक बन खड़ी है
नींव तक हर रोज़ पानी रिस रहा है
फर्श बेचारा निरंतर घिस रहा है
रोज़ टलता जा रहा विस्फोट
घर कैसे बचेगा?
नींव का बिसरा चुकी है प्यार देखो
दूसरों पर लद गई दीवार देखो
खिड़कियां घर से अभी रूठी हुई हैं
दूसरों की दृष्टि से जूठी हुई हैं
भा रहा मन को पराया खोट
घर कैसे बचेगा?
बिस्तरों पर सिलवटें संदेह की अब
एड़ियां फटने लगी हैं स्नेह की अब
दूर ले जाती सड़क को तक रहे हैं
साथ चलने में सभी अब थक रहे हैं
आन पर हर रोज होती चोट
घर कैसे बचेगा?
इक अहम का भाव घर में तन चुका है
अन्तरंगता में झरोखा बन चुका है
आपसी विश्वास भी जर्जर हुआ अब
चाय की चर्चा हमारा घर हुआ अब
उफ़! उघड़ती जा रही हर ओट
घर कैसे बचेगा?
© चिराग़ जैन
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