रघुपति राघव के चेहरे पर गहरी आज उदासी है
अवधपुरी में उत्सव है पर वैदेही वनवासी है
राजसूय के आयोजन का वैभव आज पधारा है
इक राघव के मन से बाहर हर कोना उजियारा है
गाजे-बाजे, ढोल-नगाड़े, शुभ-मंगल और छप्पन भोग
राम समझते हैं क्षणभंगुर हैं ये सब के सब संयोग
जनकसुता का प्रेम लब्ध है, बाकी सब आभासी है
अवधपुरी में उत्सव है पर वैदेही वनवासी है
रघुकुल राघव की जय-जय से धरती-नभ आच्छादित है
कीर्ति ध्वजा की सजधज लखकर जन-गण-मन आह्लादित है
किन्तु सियावर राम हृदय को यह उत्सव इक तर्पण है
प्राणप्रिया सीता पीड़ित है, धोबी को आमंत्रण है
बाहर राजा-सा दिखता है, भीतर इक संन्यासी है
अवधपुरी में उत्सव है पर वैदेही वनवासी है
पूजन में तो स्वर्णसिया से रीति निभा ली जाएगी
किन्तु हिया से नेह लुटाती प्रीति कहाँ से आएगी
उच्चारण होगा मंत्रों का, यज्ञ प्रखरता पाएगा
किन्तु वियोगी मन समिधा से पूर्व भस्म हो जाएगा
प्रियतम के बिन क्या उद्यापन, विरही मन उपवासी है
अवधपुरी में उत्सव है पर वैदेही वनवासी है
© चिराग़ जैन
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