अपने स्वर्ण सरीखे शब्दों में मैं अगर मिलावट कर लूँ
तो चमकीले पत्थर मेरे भी जीवन में जड़ जाएंगे
कुंदन जैसे शुद्ध विचारों में कुछ समझौता घुल जाए
तो मेरे हित नित्य सफलता के आभूषण गढ़ जाएंगे
चंदन कहकर कीकर बेचूँ -लाभ यही है, मंत्र यही है
लोभ प्रपंचों की दुनिया में धर्म यही है, तंत्र यही है
लेकिन ऐसी विजय पताका किन हाथों से फहराऊंगा
दर्पण के सम्मुख आया तो मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा
जिस दिन मेरा पेट विवश कर देगा गर्दन के झुकने को
उस दिन मेरी ख़ुद्दारी के दावे झूठे पड़ जाएंगे
नैतिक शिक्षा की पुस्तक का ज्ञान भुलाना आवश्यक है
अपने आदर्शों के शव का कुचला जाना आवश्यक है
भौतिक सुख की नीरस आँखों में काजल शोभा पाएगा
लेकिन अपने अंतर्मन की भस्म बनाना आवश्यक है
मानव का तन कोरा शव है, शेष न हो यदि लाज ज़रा भी
दैहिक सुख तो यहाँ धरा पर पड़े-पड़े ही सड़ जाएंगे
महल-दुमहलों की रंगत से, नेह भरा छप्पर बेहतर है
रेशम के महंगे चोगों से कबिरा की चादर बेहतर है
भीष्म पितामह के सीने पर बाण चलाते अर्जुन से तो
पुत्रविरह में कट कर गिरता द्रोण तुम्हारा सिर बेहतर है
आश्रम में रहकर संन्यासी संबंधों की लाज रखेंगे
महलों में रहकर दो भाई आपस में ही लड़ जाएंगे
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, February 12, 2018
समझौता
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