सूरज आग उगलता हो
सिर पर मेघ मचलता हो
भीषण कोहरा पड़ता हो
अम्बर दिन भर जलता हो
हर मुश्किल को झेल गए हम मेहनत की तलवार से
हमें कष्ट होता है केवल शासन के व्यवहार से
मिट्टी सख्त हुई तो हम भी कंधे पर हल धर लाए
नाखूनों से नहर काट कर खेतों तक कलकल लाए
ओले बरसे नहीं हटे
पारा उछला वहीं डटे
आंधी आई अड़े रहे
जमा हुए हम नहीं घटे
हम हरदम बढ़कर जूझे है हर इक पारावार से
हमें कष्ट होता है केवल शासन के व्यवहार से
सूखी रोटी खाकर भी हम रह लेते खुशहाली में
कई पीढियां बीत गई हैं ऐसी ही कंगाली में
भीतर कितने शूल गए
जीवन का सुख भूल गए
बिटिया बिन ब्याही बैठी
बापू फाँसी झूल गए
दर्द हमारा आकर देखो, मत पूछो अखबार से
हमें कष्ट होता है केवल शासन के व्यवहार से
यही एक उम्मीद रखी है संसद के रखवालों से
बाजारों को मुक्त करा दो, चोरों और दलालों से
शासन सुख से सोता है
लहसुन धीरज खोता है
गन्ना सूखे खड़े-खड़े
प्याज आँख भर रोता है
श्रम को उसका मोल मिलेय इतना मांगा सरकार से
हमें कष्ट होता है केवल शासन के व्यवहार से
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment