"कविता व्याकरण के दोष बर्दाश्त कर सकती है लेकिन भाव के चरित्र में मिलावट नहीं झेल पाती।" - यही गुरुमंत्र दिया था मेरे भीतर के कवि को श्री राजगोपाल सिंह जी ने। पितृत्व और गुरुत्व की गुणमुक्ताओं को मित्रता के सूत्र में पिरोने से संबंध का जो गलहार बनेगा, बस वही नाम है मेरे और उनके सम्बन्ध का। कितनी ही यात्राओं, कितने ही संस्मरणों और कितने ही संघर्षों के चित्र सजीव हो उठते हैं, उनका नाम गुनने भर से। ग़ज़ल और गीत के अतिरिक्त बाग़वानी के वे ख़ूब शौकीन थे। बोनसाई और कैक्टस की उनकी दीवानगी उनके व्यक्तित्व का दर्पण बन गई। बोनसाई की तरह उन्होंने जीवन भर अपना क़द बढ़ाने से अधिक ध्यान अपने अस्तित्व की पूर्णता पर दिया और कैक्टस की तरह कंटीला जीवन जीने के बावजूद कहीं से भी तड़कने पर गीत का दूधिया बहाव कम नहीं हुआ। कैक्टस कंटकों के लिए जाना जाता है, लेकिन राजगोपाल जी ने यह समझा कि काँटों की बदनामी झेलता कैक्टस वर्ष में एक बार पुष्पित भी होता है और जब यह पुष्प खिलता है तो इसके एक फूल के सम्मुख हज़ारों कुमुदनियों की प्रसिद्धि फीकी पड़ जाती है। आज भी नजफगढ़ में उनके घर की छत पर उनके ये बोनसाई और कैक्टस उनकी मान्यताओं का अनुवाद कर रहे हैं। उनके अशआर में यह हरियाली अपने पूरे सौष्ठव के साथ उपस्थित है। प्रकृति के प्रेम में पगी ग़ज़लों के रचयिता के जन्मदिन का आयोजन है। वे तो नहीं होंगे लेकिन उनकी स्मृतियां होंगी, उनका चित्र होगा और उनकी कविताओं में प्रदर्शित उनका पूरा चरित्र होगा। पूरा जीवन लेखनी को समर्पित करने वाले राजगोपाल सिंह जी को याद करने के लिए अपने जीवन के कुछ पल निकाल सकें तो आप भी आना! अच्छा लगेगा!
-चिराग़ जैन
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