चारों वेद काव्यरूप हैं और इनमें श्रुतियों का संकलन है अतः यह माना जा सकता है कि वेद का प्रत्येक ऋषि वाचिक परम्परा का कवि रहा होगा। तथापि इन श्रुतियों के पाठ का कोई प्रामाणिक संदर्भ ज्ञात नहीं है।
महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंचवध की घटना से आहत होकर श्लोक उच्चारा था -
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
यह श्लोक स्वरचित कविता के पाठ का प्रथम प्रामाणिक उदाहरण है। उत्तर रामायण में अयोध्या की राजसभा में लव-कुश द्वारा रामकथा का पाठ किया गया। इस घटना को भी काव्यपाठ का उदाहरण माना जा सकता है। यहाँ यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि जब लव-कुश रामकथा सुनाते थे, तब वहाँ जन-सामान्य उपस्थित होता था।
कुरुक्षेत्र के युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण द्वारा गीता के अठारह अध्यायों का पाठ किया गया। यह भी काव्यपाठ का ही एक उदाहरण माना जा सकता है।
इस्लाम पूर्व मक्का में उकाज नामक स्थान पर अरब के कवि एकत्रित होते थे। इस सम्मेलन में भाग लेनेवाले कवियों के बीच काव्य-प्रतियोगिता होती थी और विजेता की कविता को स्वर्णपत्र पर अंकित कर जिस दीवार पर लगाया जाता था उसे ही आज हम काबा कहते हैं। इस्लाम पूर्व काव्य ग्रन्थ सेररूल-ओकुल के नाम से आज भी प्रतिष्ठित है।
भक्तिकाल में संत कवियों का परस्पर सम्मिलन अंततः काव्य-गोष्ठी की शक्ल ले लेता था। सूरदास प्रतिदिन एक भजन रचकर आरती के समय उसका पाठ करते थे। कुम्भलदास, रैदास, मीराबाई जैसे कवियों की भेंट के वृत्तांत भक्तिकालीन साहित्य में भरे पड़े हैं। रीतिकाल भी राजाओं के मनोरंजनार्थ कवियों के काव्यपाठ की घटनाओं के प्रमाण प्रस्तुत करता है।
राजपूत राजाओं के महल में विधिवत कवि नियुक्त किये जाते थे, जो राजा के कार्यों का गुणगान तथा युद्धकाल में मनोबल वृद्धि हेतु कविताएँ लिखते थे और सभा में उनका पाठ करते थे। मुग़ल काल में उर्दू के शायरों की महफ़िल बादशाहों के दरबार में जमती थी। मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र ख़ुद एक बेहतरीन शायर थे, जो इस महफिलों में एक शायर की हैसियत से शिरक़त भी करते थे। मीर, ज़ौक़, ग़ालिब जैसे कितने ही नामचीन शायर इन मुशायरों की शान होते थे। उर्दू-मुशायरों का वर्तमान स्वरूप इन्हीं दरबारों से तैयार हो गया था, लेकिन हिंदी कवि सम्मेलनों ने जो शक़्ल आज अखि़्तयार की है उसकी मिट्टी बहुत बाद में गुंथनी शुरू हुई।
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के संयोजन में जो पहला कवि सम्मेलन हुआ, उसमें कुल 27 कवियों ने काव्यपाठ किया और उसके आयोजक थे- ‘सर जॉर्ज ग्रियर्सन’। उसके बाद साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलनों के आयोजन की परंपरा चल निकली। यहाँ तक कवि सम्मेलनों में अर्थ का संयोग नहीं हुआ था।
कविगण ससम्मान आमंत्रित किये जाते थे और बन्द मुट्ठी में जो पत्र-पुष्प आयोजक दे देता था, वह स्वीकार कर लेते थे। मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्राकुमारी चौहान, गिरिजाकुमार माथुर, वियोगी हरि, सोहनलाल द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, रमई काका और हरिवंशराय बच्चन जैसी विभूतियाँ, इसी प्रकार कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करती रहीं।
ऐसा मेरा अनुमान है कि किसी कार्यक्रम में आयोजक के द्वारा प्रदत्त इस मानदेय पर या तो कोई विवाद हुआ होगा अथवा आलोचना हुई होगी, जिसके बाद कवियों को बंद मुट्ठी में मानदेय दिए जाने की परंपरा निमंत्रण के समय सुनिश्चित किये जाने वाले मानदेय में परिवर्तित हो गई होगी। यद्यपि यह राशि भी नाममात्र की ही होती थी। इसी दौरान बच्चन जी ने मधुशाला लिखी। मधुशाला इतनी लोकप्रिय हो गई कि बच्चन जी प्रत्येक कवि सम्मेलन की आवश्यकता बन गए। एक बार बच्चन जी अस्वस्थ हुए तो उन्होंने आयोजक को सूचित किया कि स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से वे कवि-सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो सकेंगे। आयोजक ने अपनी प्रतिष्ठा का वास्ता देते हुए बच्चन जी पर कार्यक्रम में उपस्थित होने का दबाव बनाया तो बच्चन जी ने अपनी मनमर्ज़ी के मानदेय पर उपस्थित होना स्वीकार कर लिया।
यहाँ से कवि सम्मेलनों में मानदेय की राशि आयोजकों की मर्ज़ी से कवियों के अधिकार क्षेत्र में आ गई। इसी दौर में दिल्ली में पण्डित गोपाल प्रसाद व्यास जी ने लालकिला कवि सम्मेलन की स्थापना की। यह आयोजन देश भर में कवि-सम्मेलनों की प्रतिष्ठा वृद्धि का कारण बना। वर्ष भर लोग इसकी प्रतीक्षा करने लगे। व्यास जी चुन-चुन कर श्रेष्ठतम कवियों को इस मंच पर बुलाने लगे। इसकी ख्याति में चार चांद तब लगे जब देश के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस आयोजन में मुख्य अतिथि बनकर आए। बड़े-बड़े राजनेता, बड़े-बड़े सितारे, उद्योग, समाजसेवा और शिक्षा जगत् की श्रेष्ठ प्रतिभाएँ इस आयोजन की दर्शक दीर्घा में दिखाई देने लगी।
लालकिला कवि सम्मेलन किसी भी कवि की प्रतिष्ठा का नियामक बन गया। शिवमंगल सिंह सुमन, देवराज दिनेश, भवानीप्रसाद मिश्र, रामवतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, माया गोविंद, रामदरश मिश्र, बालस्वरूप राही, गोपाल सिंह नेपाली, बलबीर सिंह रंग, शिशुपाल सिंह निर्धन, कन्हैयालाल नन्दन, इंदिरा गौड़, बाबा नागार्जुन, मुकुट बिहारी सरोज जैसे रचनाकार लालकिले की शोभा के दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए। किन्तु इस आयोजन का उत्तरदायित्व भी था, एक साहित्यिक संस्था के ही कंधों पर था। इसी दौरान श्री रामरिख मनहर ने कवि सम्मेलनों को मारवाड़ी सेठों के द्वार तक पहुँचाने के लिए अथक परिश्रम किया।
अब कवि सम्मेलन में अर्थ का मार्ग खुल गया। इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली और वाराणसी की सीमाओं को तोड़कर कवि सम्मेलन राजस्थान, मुम्बई, कोलकाता और मद्रास (अब चेन्नई) तक भौगौलिक विस्तार पा गया। ज्यों ही साहित्यिक संस्थाओं से निकलकर कवि सम्मेलनों ने उन्मुक्त गगन में पंख पसारे ठीक उसी समय गोपालदास नीरज, बालकवि बैरागी और काका हाथरसी सरीखे लोकप्रिय कवि अस्तित्व में आए।
नीरज जी हिंदी कवि सम्मेलनों की जनप्रियता की आधारशिला बन गए। खरद की गुनगुनाहट में जब गीत लोकार्पित होता तो श्रोतादीर्घा सम्मोहित हो उठती। नीरज जी ने गीत को प्रेम के गुलाबी बगीचे से दर्शन के भव्य देवालय तक की यात्रा करवाई। नयन कोर पर अपनी पीड़ा का नीरानुवाद संजोकर लोग स्मित अधरों से नीरज को सुनते थे। उनकी सजीव आँखें और शरारती हँसी उनकी प्रस्तुति में मणिकांचन योग निर्मित करती थी।
नीरज के इस सम्मोहन में कवि सम्मेलनों का कारवां बहुत तेज़ी से लोकप्रियता की मंज़िलें तय करता हुआ बढ़ने लगा। संभवतः नीरज जी पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी लेखनी के साथ-साथ अपनी अदाओं से भी लोगों के दिल पर राज किया। यह उनकी अदाओं का ही करिश्मा था कि यद्यपि उनके अधिकतर लोकप्रिय गीत दर्शन की धुरि पर केंद्रित थे, फिर भी उन्हें प्रेम और सौंदर्य के कवि के रूप में जाना गया।
‘कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है’; ‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए’; ‘आदमी को आदमी बनाने के लिए’ और ‘कारवां गुज़र गया’ जैसे गीतों की सरल शब्दावली और गूढ़ अर्थवत्ता ने गीत की धारा मोड़ दी। इस दौर में कविता साहित्यिक अभिरुचि से विहीन जन तक पहुँचने में क़ामयाब हुई।
यद्यपि वीर रस की भाषा अभी भी अपेक्षाकृत क्लिष्ट थी, लेकिन बालकवि बैरागी की कविता राष्ट्र पर मर मिटने के शौर्य के साथ-साथ जीवन की कठिन परिस्थितियों में स्वाभिमान के जीवट की वक़ालत करने लगी तो उसकी भावभूमि और भाषा स्वतः ही अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति से जुड़ती चली गई। शहीदों के प्रति करुणा और श्रद्धा उत्पन्न करती ओज कविता करुण रस, भक्ति रस, रौद्र रस और वीर रस का संगम स्थल बन गई।
लोगों का मन सीमा पर खड़े बेटों के प्रति वात्सल्य से भरने लगा। वीर रस की कविता शिराओं के रक्तप्रवाह को तीव्र करने के साथ-साथ आँखों को भी नम करने लगी। बैरागी जी की लोकप्रियता का आलम यह था कि देश के बड़े कवि सम्मेलनों में बैरागी जी की उपस्थिति न हो तो श्रोता कार्यक्रम शुरू नहीं होने देते थे। इस दौर तक कवि सम्मेलन मंच पर गीत का बोलबाला था। जीवन दर्शन के गीत, प्रेम के गीत और सामरिक माहौल में ओज के गीत।
हास्यरस को हेय दृष्टि से देखा जाता था। मंच पर जब हास्य का कवि काव्यपाठ करता था तो शेष कवि उसे अनदेखा करते थे। यद्यपि रमई काका जैसे कवियों ने जनता के तनाव को ठहाकों में बदलने की परंपरा को बख़ूबी निभाया, लेकिन हास्यरस को वह सम्मान नहीं मिल सका जिसका वह हक़दार था। जनता हास्य पसंद तो करती थी, किन्तु मंच पर बैठे अन्य कवियों की भंगिमा को देखकर यह हास्यप्रेम जता नहीं पाती थी।
ऐसे समय में मंच पर काका हाथरसी का प्रवेश हुआ। उनकी प्रस्तुति से मंचासीन कवियों की त्यौरियाँ पिघलने लगीं और दर्शक दीर्घा की स्मित ने ठहाके का रूप ले लिया। यहाँ से कवि सम्मेलनों का रंग-रूप बदल गया। काका की लोकप्रियता का सूरज गाँव-खेड़ों से लेकर सात समुंदर पार तक दमकने लगा। व्यंग्य के कवियों ने अपनी रचनाओं में हास्य का अनुपात बढ़ा दिया। अब व्यंग्य, व्यंग्य न रहकर ‘हास्य-व्यंग्य’ बन गया। कवि-सम्मेलन भी कवि-सम्मेलन से ‘हास्य कवि-सम्मेलन’ बन गए।
कवि सम्मेलनों के बैनर पर ‘हास्य’ शब्द लगाना आवश्यक हो गया। मंच पर हास्य कवियों का अनुपात बढ़ने लगा। काका की कुंडलियों ने समाचार पत्रों में स्थान बना लिया। पण्डित गोपाल प्रसाद व्यास और रामरिख मनहर जैसे मंच-संचालकों के संचालन में चुटीली टिप्पणियों, सहज जुमलों, व्यंग्योक्तियों और चुटकुलों ने जगह बनानी शुरू की।
नीरज, बैरागी और काका ने हिंदी कवि सम्मेलनों का चेहरा आमूल-चूल बदल दिया। बदलती तकनीक के साथ बनती बिगड़ती परंपराओं की कहानी अगली कड़ी में...