Sunday, July 29, 2018

नीरज जी का प्रयाण उत्सव

हिंदी भवन में नीरज जी का प्रयाण उत्सव मृत्यु के महोत्सव की मिसाल बन गया। जीवन भर जिजीविषा के आधार पर उत्सव जीनेवाले महाकवि को विदा करने आए लोगों की आँखें नहीं, मन भीग गया। नीरज जी का खिलखिलाता हुआ चेहरा हिंदी भवन सभागार में सुसज्जित भव्य मंच को आलोकित कर रहा था। दाहिनी ओर स्टूल पर उनका एक अन्य चित्र स्थापित था, जिसे गुलदावरी के फूलों की माला से सजाया गया था। ग़ुलाब की पंखुरियाँ गीत के शिखर पुरुष को श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित थीं। उत्सव ही था, ...ख़ालिस कवि का ख़ालिस उत्सव! कार्यक्रम प्रारम्भ से पूर्व सभागार एक भारी आवाज़ के रेकॉर्ड से महक रहा था। साउंड मैनेजर ने नीरज जी की आवाज़ में उनके गीतों की सीडी प्ले की हुई थी। सवा पाँच बजे श्री सुरेन्द्र शर्मा जी ने मंच संभाला। दर्शक-दीर्घा ने तालियों के साथ प्रयाण के इस महोत्सव का उद्घाटन किया। डॉ अशोक चक्रधर ने नीरज जी के काव्य पर बोलते हुए उनके व्यक्तित्व को भी अपने अंदाज़ में बयान किया। इसके बाद अगले दो घंटे ऊर्जा की वृष्टि के थे। श्री विनोद राजयोगी, डॉ प्रवीण शुक्ल, श्री गजेंद्र सोलंकी, सुश्री मनीषा शुक्ला, श्री ज्ञानप्रकाश आकुल, चिराग़ जैन और शशांक प्रभाकर ने नीरज के इस अवसान पर लिखी गईं अपनी कविताओं से काव्यांजलि प्रस्तुत की। श्री पवन दीक्षित, डॉ सीता सागर और डॉ विष्णु सक्सेना ने अपने स्वर में नीरज की रचनाओं का पाठ कर स्वरांजलि दी।
पवन दीक्षित जी ने उसी ख़रज भरी आवाज़ में उसी विलम्बित स्वर में नीरज जी के अशआर पढ़े तो कौतूहल, श्रद्धा, आश्चर्य तथा प्रसन्नता के सम्मिश्रण से सभागार भर गया। डॉ गोविंद व्यास, श्री रामनिवास जाजू और श्री मनोहर मनोज जी ने अपने संस्मरणों से नीरज जी के जीवन की चेतना और जीवंतता को प्रकाशित किया। कार्यक्रम सम्पन्न होने पर पूरे सदन ने नीरज के शानदार जीवन को स्टैंडिंग ओवेशन दिया और नीरज जी के सम्मान में तालियों के पहाड़ खड़ा कर दिया।
तभी पार्श्व में किशोर कुमार की आवाज़ में नीरज जी खनखना उठे- ‘शोखि़यों में घोला जाए फूलों का शबाब....’ फिर तो बिना किसी पूर्वयोजना के अग्रिम पंक्ति में खड़े कवि थिरकने लगे। ताल के साथ तालियाँ बज रही थीं, प्रत्येक कंठ किशोर के स्वर से ऊँचा जाकर अपने महाकवि के गीत याद होने का दम्भ भर रहा था, पैर बिना पूछे ताल की संगत कर रहे थे। अरुण जैमिनी, सपन भट्टाचार्य, विष्णु सक्सेना, सुरेन्द्र शर्मा, गुणवीर राणा, महेंद्र शर्मा, सत्यदेव हरयाणवी, गजेंद्र सोलंकी, प्रवीण शुक्ला, नन्दिनी श्रीवास्तव, सीता सागर, वेदप्रकाश वेद, विनय विश्वास, ऋतु गोयल, मनीषा शुक्ला, महेंद्र अजनबी, सुरेन्द्र सार्थक, पी के आज़ाद, शम्भू शिखर, पद्मिनी शर्मा, यूसुफ़ भारद्वाज, शालिनी सरगम, मुमताज़ नसीम, संदीप शजर, जैनेन्द्र कर्दम, चिराग़ जैन, ज्ञानप्रकाश आकुल, पवन दीक्षित, अरुणा मुकीम, विभा बिष्ट, शुभि सक्सेना, अनिल गोयल, सुदीप भोला, दीपक सैनी, रेखा व्यास, रामनिवास जाजू, प्रदीप जैन और न जाने कितने सितारे अपने सूर्य के ध्रुवतारा बन जाने का उत्सव मना रहे थे। ....फिर सेल्फी सेशन .....फिर चायपान ....और फिर अपने अपने भीतर नीरज की अनुगूंज सहेजे सब सभागार से विदा हो गए। सुनते हैं रात भर सभागार के वायुमंडल में एक तराना तैरता रहा - ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं ख़ाली-ख़ाली तम्बू है ख़ाली-ख़ाली घेरा है बिना चिड़िया का बसेरा है...!

Saturday, July 28, 2018

चंद्रग्रहण

कई रोज़ से देख रहा था
कि बादल के आगोश से निकल कर
और ख़ूबसूरत लगता था चाँद
और बढ़ जाती थी उसकी चमक
जैसे किसी ने फेशियल कर दिया हो
प्यार का!

लेकिन कल रात
तमतमाया हुआ था चाँद का चेहरा
शोले टपक रहे थे उसकी आँखों से
क्योंकि कल रात
जिस साये ने जकड़ लिया था चाँद को
उसकी छुअन में प्यार नहीं
सिर्फ़ ज़िद्द थी
किसी नफ़रत
किसी चिढ़
या किसी जलन से भरी
.....एक वहशी ज़िद्द!

और ज़िद्द
मुँह तो काला कर सकती है
पर मन हरा नहीं कर सकती
मौसम ग़ुलाबी नहीं कर सकती!

© चिराग़ जैन

Thursday, July 26, 2018

गुनाहों का एहतराम

दिल में उग आए गुनाहों का एहतराम करें
काम यूँ झूठे दिखावे का हम तमाम करें

बाद मरने के क़सीदे तो पढ़ेंगे सब ही
लोग कुछ हों, जो हमें जीते जी सलाम करें

ज़ीस्त! हम कर चुके जो तेरे साथ करना था
मौत अब आ मरे तो उसका इंतज़ाम करें

इस तरह अक़्ल पे तारी हो नश्अ बोतल का
वाइज़ आए कोई मिलने तो राम-राम करें

हमने तहज़ीब में जिन-जिन से करी है तौबा
वो सारे काम करें, और सुब्हो-शाम करें

© चिराग़ जैन

Saturday, July 21, 2018

मेरे गीत उधार रहेंगे

सपनों का विस्तार रहेंगे
आँसू की मनुहार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे

जिन शब्दों से कर्ज़ा लेकर, भावों की झोली भरता था
रोते-रोते जिस पीड़ा के माथे पर रोली धरता था
उस पीड़ा का सार रहेंगे
भाषा का श्रृंगार रहेंगे
शब्दों की नश्वर काया में, प्राणों का संचार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे

बातों में घुल-मिल जाएंगे, चैपालों की रंगत होंगे
एकाकी राहों पर चलते मौन पथिक की संगत होंगे
चिट्ठी का आधार रहेंगे
उत्सव का गलहार रहेंगे
माँ की मीठी लोरी होंगे, बाबा की फटकार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे

घोर उदासी की सेना से जब अभिलाषा का रण होगा
मेरा गान प्रबल सहयोगी आशाओं का उस क्षण होगा
कोशिश पर बलिहार रहेंगे
और थकन पर वार रहेंगे
नफ़रत से तपती धरती पर, प्यार भरी रसधार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे

© चिराग़ जैन

(श्री गोपालदास नीरज जी के निधन पर)

एक ख़ालिस कवि का जीवन

नीरज जी ने जब भी नज़र उठा कर देखा तो उनकी अदा दिल पर छप गई। उन्होंने अपनी भारी आवाज़ में कुछ आदेश कर दिया तो लगा कि हम धन्य हो गए। नीली लुंगी और जेब वाली बनियान पहने जब वे लोगों को सम्मोहित करते दिखते थे तब महसूस होता था कि कोई फकीर अपनी अल्हड़ मस्ती में हम नए साधकों को चपत लगाते हुए कहा रहा है कि - ‘अरमानी के सूट पहनने से कुछ नहीं होगा बे, अरमानों को स्वर देना सीख!’
उनका पूरा जीवन एक ख़ालिस कवि का जीवन था। कोई बड़ा आदमी भी उनसे मिलने आया तो उन्होंने उसके प्रभाव में कपड़े बदलना ज़रूरी न समझा। अपने अंतर्नाद में वे इतने सहज हो गए थे कि मुख्यमंत्री से बात करते समय भी उनके स्वर का आरोह-अवरोह ठीक वैसा होता था जैसा शशांक से या चिराग़ से बात करते हुए होता था।
उन्होंने 93 वर्ष की आयु में अपने भीतर के किशोर को कभी धीमा न पड़ने दिया। प्रशंसा और प्रसिद्धि की इतनी ऊँचाइयाँ देख चुके थे कि भय या लोभ उन्हें कुछ ओढ़कर जीने के लिए प्रेरित न कर सके।
उनके व्यवहार में साफ दिखता था कि वे हर मिलनेवाले पर अपनत्व का अधिकार अनुभूत करते थे। कार्यक्रम में पहुँचकर अपने स्वास्थ्य के अनुरूप अपने काव्यपाठ का क्रम तय करने में कभी संकोच नहीं करते थे। उनका आदेश इतना अधिकारपूर्ण होता था कि उससे उत्पन्न होनेवाली तमाम व्यवहारिक चुनौतियाँ नगण्य लगती थीं।
उनके आदेश को टालना या उन्हें उसकी कठिनाई बताने का प्रयास असंभव था। मुझ जैसे नए कवियों के नाम याद न रहने पर जब वे शशांक भाई से ‘दिल्लीवाला लड़का’ कहकर मेरा ज़िक्र करते थे तो लगता था कि किस वटवृक्ष ने झुककर एक तिनके का माथा चूम लिया हो।
वे बहुत प्यारे थे। वे बहुत सच्चे थे। वे बहुत अच्छे थे। और सबसे अच्छा यह था कि वे अब तक हमारे साथ थे। उनकी उपस्थिति में काव्यपाठ करते समय ऐसा लगता था कि कविता उनके कानों में धुलकर निखार पा रही हैं और किसी पंक्ति पर वे वाह कर देते थे तो लगता था कि बस, क़िला फतह हो गया।
वे हमें बहुत उपलब्ध थे। इतने कि उन्हें सहेजने की बात याद ही न रही। पर अब वे पूरी तरह अनुपलब्ध हैं, अब हम उन्हें चाह कर भी सहेज नहीं सकते।
अलीगढ़ में अग्नि ने गीतों के विदेह देवता को आलिंगनबद्ध कर लिया है। आसमान बरसकर उनके इस अंतिम गीत को संगीत दे रहा है। तिरंगे ने अपनी संस्कृति के इस लाडले रचनाकार को भरे मन से विदा किया। और हम उनकी स्मृतियों में डूबते-उतराते उनके सैंकड़ों गीत गुनगुनाकर ख़ुद को तसल्ली दे रहे हैं।

© चिराग़ जैन

Thursday, July 19, 2018

गोपालदास नीरज जी के निधन पर

ये निशा आज फिर नीरज-निशा कहाएगी
बस क्षोभ यही; इसमें अब वैसा नूर नहीं
ग़ज़लें बाक़ी हैं, गीत बचे हैं अनगिन पर
ये आज तुम्हारे स्वर सुख से भरपूर नहीं

तुम गीत नहीं रचते थे, जादू करते थे
दर्शन की देहरी पर श्रृंगार सजाते थे
रस की गगरी के चातक बड़े छबीले थे
शब्दों की टोली से कितना बतियाते थे

जब आज शाम मैंने सूरज को देखा था
वह लिए शरारत भरे नयन इतराता था
अब जाना उसकी इस इतराहट का मतलब
वह तुम्हें मनाकर साथ लिवाए जाता था

जग को लगता है यही कि ’नीरज’ मौन हुआ
दरअस्ल कारवाँ और बढ़ाने निकले हो
धरती की गोद हरी कर के कविताओं से
अब नभ भर को गीतिका सुनाने निकले हो

थक जाना या चुक जाना; वह भी ’नीरज’ का
मालूम नहीं जलवा नादान ज़माने को
महफ़िल-महफ़िल तुम स्वयं बताते फिरते थे
सदियाँ कम हैं ’नीरज’ की याद भुलाने को

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 18, 2018

दो तरफ़ा पोषण

मैं अपनी हर जीत भुला दूँ, तुम बिसरा दो हार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को

जब धरती ने हरियाली का रूप सजाना छोड़ दिया
तब अम्बर ने बादल लेकर आना-जाना छोड़ दिया
कोई तो आकर्षण मिलता सावन की बौछार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को

दिन की हर तारीफ़ भुलाकर महक लुटाई रातों पर
ध्यान नहीं अटका ख़ुशबू का दुनिया भर की बातों पर
रातों ने होंठों से चूमा खिलते हरसिंगार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को

सबके जीवन में दुनिया की थोड़ी तो मजबूरी है
फिर भी हर इक रिश्ते में थोड़ा सम्मान ज़रूरी है
कब तक मथुरा ठुकराएगा गोकुल की मनुहार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को

© चिराग़ जैन

Sunday, July 15, 2018

सागर प्यासे छूट गए हैं

कुछ तालाबों की चर्चा कर क़िस्से महफ़िल लूट गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं

कौन बताए तूफ़ानों से कैसे जूझा बूढ़ा बरगद
अंधा बनकर देख रहा था गिरते पेड़ जमूरा बरगद
उस बूढ़े का द्वंद समूचे समरांगण से बहुत बड़ा था
उसने भी तो अठारह दिन ख़ुद से भीषण युद्ध लड़ा था
किन्तु विजय का ताज पहनने बस कीकर के ठूँठ गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं

घाटों तक पहुँची नदिया के गीत सुना देते हैं क़िस्से
पानी की हर इक हलचल को गरज बना देते हैं क़िस्से
जिससे प्यास धुली धरती की, उसकी कोई फ़िक्र नहीं है
जो खेतों में खेत हुई है, उस धारा का ज़िक्र नहीं है
बलिदानों के शव पर अवसरवादी चांदी कूट गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं

राजतिलक पर जिन माँओं के नैन झरे; उनकी चर्चा हो
कायर के आगे अड़ कर जो वीर मरे; उनकी चर्चा हो
ये चर्चा हो युग केवल पाँचाली के आभारी क्यों थे
पाँचाली के केश, हिडिम्बा की ममता पर भारी क्यों थे
उन नयनों की पीड़ा गाओ, जिनसे सपने रूठ गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं

© चिराग़ जैन

Saturday, July 14, 2018

वादा खि़लाफ़ी

सागर
मुक़द्दमा कर रहा है नदी पर
वादाखि़लाफ़ी का।
कहता है
मिलने का वादा करके
पहुँची ही नहीं
अब कोई प्रश्न नहीं है मुआफ़ी का।
नदी बेचारी
पर्वत की कृपणता
और मरुथल की वासना के बीच
बून्द-बून्द सिमटती रही
घाट-घाट घटती रही।
नदी के भीतर उग आई
सभ्यताओं ने
कठघरे में खड़ी नदी को
दोषी क़रार दिया
फ़ैसला सुनकर
पर्वत ने नदी से
मुँह फेर लिया
मरुथल ने उसके मुँह पर
धूल का तमाचा मार दिया।
और सागर...
...वह निरंतर
एक मीठी छुअन के अभाव में
मर रहा है
किसी नदी के वादा निभाने की
प्रतीक्षा कर रहा है।

© चिराग़ जैन

Friday, July 13, 2018

काव्यपाठ के प्रारंभिक प्रमाण

चारों वेद काव्यरूप हैं और इनमें श्रुतियों का संकलन है अतः यह माना जा सकता है कि वेद का प्रत्येक ऋषि वाचिक परम्परा का कवि रहा होगा। तथापि इन श्रुतियों के पाठ का कोई प्रामाणिक संदर्भ ज्ञात नहीं है।
महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंचवध की घटना से आहत होकर श्लोक उच्चारा था -

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।

यह श्लोक स्वरचित कविता के पाठ का प्रथम प्रामाणिक उदाहरण है। उत्तर रामायण में अयोध्या की राजसभा में लव-कुश द्वारा रामकथा का पाठ किया गया। इस घटना को भी काव्यपाठ का उदाहरण माना जा सकता है। यहाँ यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि जब लव-कुश रामकथा सुनाते थे, तब वहाँ जन-सामान्य उपस्थित होता था।
कुरुक्षेत्र के युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण द्वारा गीता के अठारह अध्यायों का पाठ किया गया। यह भी काव्यपाठ का ही एक उदाहरण माना जा सकता है।
इस्लाम पूर्व मक्का में उकाज नामक स्थान पर अरब के कवि एकत्रित होते थे। इस सम्मेलन में भाग लेनेवाले कवियों के बीच काव्य-प्रतियोगिता होती थी और विजेता की कविता को स्वर्णपत्र पर अंकित कर जिस दीवार पर लगाया जाता था उसे ही आज हम काबा कहते हैं। इस्लाम पूर्व काव्य ग्रन्थ सेररूल-ओकुल के नाम से आज भी प्रतिष्ठित है।
भक्तिकाल में संत कवियों का परस्पर सम्मिलन अंततः काव्य-गोष्ठी की शक्ल ले लेता था। सूरदास प्रतिदिन एक भजन रचकर आरती के समय उसका पाठ करते थे। कुम्भलदास, रैदास, मीराबाई जैसे कवियों की भेंट के वृत्तांत भक्तिकालीन साहित्य में भरे पड़े हैं। रीतिकाल भी राजाओं के मनोरंजनार्थ कवियों के काव्यपाठ की घटनाओं के प्रमाण प्रस्तुत करता है।
राजपूत राजाओं के महल में विधिवत कवि नियुक्त किये जाते थे, जो राजा के कार्यों का गुणगान तथा युद्धकाल में मनोबल वृद्धि हेतु कविताएँ लिखते थे और सभा में उनका पाठ करते थे। मुग़ल काल में उर्दू के शायरों की महफ़िल बादशाहों के दरबार में जमती थी। मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र ख़ुद एक बेहतरीन शायर थे, जो इस महफिलों में एक शायर की हैसियत से शिरक़त भी करते थे। मीर, ज़ौक़, ग़ालिब जैसे कितने ही नामचीन शायर इन मुशायरों की शान होते थे। उर्दू-मुशायरों का वर्तमान स्वरूप इन्हीं दरबारों से तैयार हो गया था, लेकिन हिंदी कवि सम्मेलनों ने जो शक़्ल आज अखि़्तयार की है उसकी मिट्टी बहुत बाद में गुंथनी शुरू हुई।
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के संयोजन में जो पहला कवि सम्मेलन हुआ, उसमें कुल 27 कवियों ने काव्यपाठ किया और उसके आयोजक थे- ‘सर जॉर्ज ग्रियर्सन’। उसके बाद साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलनों के आयोजन की परंपरा चल निकली। यहाँ तक कवि सम्मेलनों में अर्थ का संयोग नहीं हुआ था। 
कविगण ससम्मान आमंत्रित किये जाते थे और बन्द मुट्ठी में जो पत्र-पुष्प आयोजक दे देता था, वह स्वीकार कर लेते थे। मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्राकुमारी चौहान, गिरिजाकुमार माथुर, वियोगी हरि, सोहनलाल द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, रमई काका और हरिवंशराय बच्चन जैसी विभूतियाँ, इसी प्रकार कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करती रहीं। 
ऐसा मेरा अनुमान है कि किसी कार्यक्रम में आयोजक के द्वारा प्रदत्त इस मानदेय पर या तो कोई विवाद हुआ होगा अथवा आलोचना हुई होगी, जिसके बाद कवियों को बंद मुट्ठी में मानदेय दिए जाने की परंपरा निमंत्रण के समय सुनिश्चित किये जाने वाले मानदेय में परिवर्तित हो गई होगी। यद्यपि यह राशि भी नाममात्र की ही होती थी। इसी दौरान बच्चन जी ने मधुशाला लिखी। मधुशाला इतनी लोकप्रिय हो गई कि बच्चन जी प्रत्येक कवि सम्मेलन की आवश्यकता बन गए। एक बार बच्चन जी अस्वस्थ हुए तो उन्होंने आयोजक को सूचित किया कि स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से वे कवि-सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो सकेंगे। आयोजक ने अपनी प्रतिष्ठा का वास्ता देते हुए बच्चन जी पर कार्यक्रम में उपस्थित होने का दबाव बनाया तो बच्चन जी ने अपनी मनमर्ज़ी के मानदेय पर उपस्थित होना स्वीकार कर लिया। 
यहाँ से कवि सम्मेलनों में मानदेय की राशि आयोजकों की मर्ज़ी से कवियों के अधिकार क्षेत्र में आ गई। इसी दौर में दिल्ली में पण्डित गोपाल प्रसाद व्यास जी ने लालकिला कवि सम्मेलन की स्थापना की। यह आयोजन देश भर में कवि-सम्मेलनों की प्रतिष्ठा वृद्धि का कारण बना। वर्ष भर लोग इसकी प्रतीक्षा करने लगे। व्यास जी चुन-चुन कर श्रेष्ठतम कवियों को इस मंच पर बुलाने लगे। इसकी ख्याति में चार चांद तब लगे जब देश के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस आयोजन में मुख्य अतिथि बनकर आए। बड़े-बड़े राजनेता, बड़े-बड़े सितारे, उद्योग, समाजसेवा और शिक्षा जगत् की श्रेष्ठ प्रतिभाएँ इस आयोजन की दर्शक दीर्घा में दिखाई देने लगी। 
लालकिला कवि सम्मेलन किसी भी कवि की प्रतिष्ठा का नियामक बन गया। शिवमंगल सिंह सुमन, देवराज दिनेश, भवानीप्रसाद मिश्र, रामवतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, माया गोविंद, रामदरश मिश्र, बालस्वरूप राही, गोपाल सिंह नेपाली, बलबीर सिंह रंग, शिशुपाल सिंह निर्धन, कन्हैयालाल नन्दन, इंदिरा गौड़, बाबा नागार्जुन, मुकुट बिहारी सरोज जैसे रचनाकार लालकिले की शोभा के दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए। किन्तु इस आयोजन का उत्तरदायित्व भी था, एक साहित्यिक संस्था के ही कंधों पर था। इसी दौरान श्री रामरिख मनहर ने कवि सम्मेलनों को मारवाड़ी सेठों के द्वार तक पहुँचाने के लिए अथक परिश्रम किया। 
अब कवि सम्मेलन में अर्थ का मार्ग खुल गया। इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली और वाराणसी की सीमाओं को तोड़कर कवि सम्मेलन राजस्थान, मुम्बई, कोलकाता और मद्रास (अब चेन्नई) तक भौगौलिक विस्तार पा गया। ज्यों ही साहित्यिक संस्थाओं से निकलकर कवि सम्मेलनों ने उन्मुक्त गगन में पंख पसारे ठीक उसी समय गोपालदास नीरज, बालकवि बैरागी और काका हाथरसी सरीखे लोकप्रिय कवि अस्तित्व में आए।
नीरज जी हिंदी कवि सम्मेलनों की जनप्रियता की आधारशिला बन गए। खरद की गुनगुनाहट में जब गीत लोकार्पित होता तो श्रोतादीर्घा सम्मोहित हो उठती। नीरज जी ने गीत को प्रेम के गुलाबी बगीचे से दर्शन के भव्य देवालय तक की यात्रा करवाई। नयन कोर पर अपनी पीड़ा का नीरानुवाद संजोकर लोग स्मित अधरों से नीरज को सुनते थे। उनकी सजीव आँखें और शरारती हँसी उनकी प्रस्तुति में मणिकांचन योग निर्मित करती थी। 
नीरज के इस सम्मोहन में कवि सम्मेलनों का कारवां बहुत तेज़ी से लोकप्रियता की मंज़िलें तय करता हुआ बढ़ने लगा। संभवतः नीरज जी पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी लेखनी के साथ-साथ अपनी अदाओं से भी लोगों के दिल पर राज किया। यह उनकी अदाओं का ही करिश्मा था कि यद्यपि उनके अधिकतर लोकप्रिय गीत दर्शन की धुरि पर केंद्रित थे, फिर भी उन्हें प्रेम और सौंदर्य के कवि के रूप में जाना गया। 
‘कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है’; ‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए’; ‘आदमी को आदमी बनाने के लिए’ और ‘कारवां गुज़र गया’ जैसे गीतों की सरल शब्दावली और गूढ़ अर्थवत्ता ने गीत की धारा मोड़ दी। इस दौर में कविता साहित्यिक अभिरुचि से विहीन जन तक पहुँचने में क़ामयाब हुई। 
यद्यपि वीर रस की भाषा अभी भी अपेक्षाकृत क्लिष्ट थी, लेकिन बालकवि बैरागी की कविता राष्ट्र पर मर मिटने के शौर्य के साथ-साथ जीवन की कठिन परिस्थितियों में स्वाभिमान के जीवट की वक़ालत करने लगी तो उसकी भावभूमि और भाषा स्वतः ही अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति से जुड़ती चली गई। शहीदों के प्रति करुणा और श्रद्धा उत्पन्न करती ओज कविता करुण रस, भक्ति रस, रौद्र रस और वीर रस का संगम स्थल बन गई। 
लोगों का मन सीमा पर खड़े बेटों के प्रति वात्सल्य से भरने लगा। वीर रस की कविता शिराओं के रक्तप्रवाह को तीव्र करने के साथ-साथ आँखों को भी नम करने लगी। बैरागी जी की लोकप्रियता का आलम यह था कि देश के बड़े कवि सम्मेलनों में बैरागी जी की उपस्थिति न हो तो श्रोता कार्यक्रम शुरू नहीं होने देते थे। इस दौर तक कवि सम्मेलन मंच पर गीत का बोलबाला था। जीवन दर्शन के गीत, प्रेम के गीत और सामरिक माहौल में ओज के गीत। 
हास्यरस को हेय दृष्टि से देखा जाता था। मंच पर जब हास्य का कवि काव्यपाठ करता था तो शेष कवि उसे अनदेखा करते थे। यद्यपि रमई काका जैसे कवियों ने जनता के तनाव को ठहाकों में बदलने की परंपरा को बख़ूबी निभाया, लेकिन हास्यरस को वह सम्मान नहीं मिल सका जिसका वह हक़दार था। जनता हास्य पसंद तो करती थी, किन्तु मंच पर बैठे अन्य कवियों की भंगिमा को देखकर यह हास्यप्रेम जता नहीं पाती थी। 
ऐसे समय में मंच पर काका हाथरसी का प्रवेश हुआ। उनकी प्रस्तुति से मंचासीन कवियों की त्यौरियाँ पिघलने लगीं और दर्शक दीर्घा की स्मित ने ठहाके का रूप ले लिया। यहाँ से कवि सम्मेलनों का रंग-रूप बदल गया। काका की लोकप्रियता का सूरज गाँव-खेड़ों से लेकर सात समुंदर पार तक दमकने लगा। व्यंग्य के कवियों ने अपनी रचनाओं में हास्य का अनुपात बढ़ा दिया। अब व्यंग्य, व्यंग्य न रहकर ‘हास्य-व्यंग्य’ बन गया। कवि-सम्मेलन भी कवि-सम्मेलन से ‘हास्य कवि-सम्मेलन’ बन गए। 
कवि सम्मेलनों के बैनर पर ‘हास्य’ शब्द लगाना आवश्यक हो गया। मंच पर हास्य कवियों का अनुपात बढ़ने लगा। काका की कुंडलियों ने समाचार पत्रों में स्थान बना लिया। पण्डित गोपाल प्रसाद व्यास और रामरिख मनहर जैसे मंच-संचालकों के संचालन में चुटीली टिप्पणियों, सहज जुमलों, व्यंग्योक्तियों और चुटकुलों ने जगह बनानी शुरू की। 
नीरज, बैरागी और काका ने हिंदी कवि सम्मेलनों का चेहरा आमूल-चूल बदल दिया। बदलती तकनीक के साथ बनती बिगड़ती परंपराओं की कहानी अगली कड़ी में... 

Thursday, July 5, 2018

संजू

आरोप को अपराध मानकर किसी के प्रति राय क़ायम कर लेने की हमारी सामान्य प्रवृत्ति किसी के जीवन को किस हद्द तक चुनौतियों से बेन्ध सकती है -इसी तथ्य की प्रामाणिक कथा है संजू। मीडिया इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर जनमानस की मानसिक लतों का पोषण करता हुआ अपना गुजर-बसर कर रहा है। 

हम कुछ परंपरागत अफवाहों को सच मानते हुए अपनी कई पीढ़ियाँ बर्बाद कर चुके हैं। अफवाहों के इसी हवनकुण्ड में कई महत्वपूर्ण जिंदगियां स्वाहा करने में हम कभी हिचकते भी नहीं हैं। संजय दत्त ऐसे ही हवन कुंड में भस्म हुई एक ऐसी प्रतिभा का नाम है जिसने उतार-चढ़ाव के अनेक आश्चर्यजनक दौर जिये। 

संजू फ़िल्म हर उस ख़बर पर एक प्रश्नचिन्ह है जिसने डेढ़ मिनिट की सनसनी के चक्कर में एक मुकम्मल ज़िन्दगी तबाह कर डाली। सामाजिक जीवन जीने वालों के व्यक्तिगत चरित्र की पड़ताल करना और उसके विषय में कहानियों की फसलें बोने में हमे बड़ा मजा आता है। आश्चर्य यह है कि किसी पर आरोप लगाकर उसकी चरित्र-हत्या करने वाला मीडिया आज तक कभी किसी की ज़िंदगी बर्बाद करने के बाद क्षमायाचना करने भी प्रकट न हो सका। 

अदालतों में चल रही सुनवाई को दरकिनार कर फैसले सुनाने वाले मीडिया की घिनौनी तस्वीर का पर्दाफाश किया गया है इस फ़िल्म ने। फ़िल्म को देखकर संजय दत्त के प्रति संवेदना जन्मती है और सुनील दत्त के प्रति सम्मान। चुनौतियों से जूझने की प्रवृत्ति और कभी न थकने का जज़्बा उनके व्यक्तित्व का वह पक्ष था जिसे अब से पहले न तो किसी न्यूज़ चैनल ने स्पेशल स्टोरी बनाकर दिखाया था न ही किसी गॉसिप मैगज़ीन ने। कमलेश उर्फ परेश जैसे किसी दोस्त का रिश्ता संजय दत्त की किस्मत से ईर्ष्या उत्पन्न करता है। 

मज़े की बात यह है कि संजय दत्त के रोम-रोम पर नज़र रखने वाली मीडिया को उनके इस साए का कभी आभास न हुआ। ड्रग पेडलर्स कैसे काम करते हैं और बचपन पर अधिक अनुशासन कैसा असर डालता है -इन दोनों सवालों को बहुत करीने से फ़िल्म में पेश किया गया है। सिल्क स्मिता के बाद सम्भवतः पहली बार किसी भारतीय सिने स्टार की बायोपिक बनी है। बदनाम ज़िन्दगियों के अनकहे पहलुओं को उजागर करती ये दोनों ही फिल्में यह तो सिद्ध करती हैं कि अखबारों के समझाने पर जिसे हम बुरा आदमी कहकर छोड़ देते हैं उसके भीतर भी काफ़ी कुछ अच्छा छुपा होता है जिसे देखने के लिए उसके साथ कुछ वक़्त बिताने की दरकार होती है। 

© चिराग़ जैन

Sunday, July 1, 2018

महलों में वनवास

अकथ वेदना करती होगी रह-रहकर परिहास 
उर्मिल ने बिन कारण भोगा महलों में वनवास

धीर धरो मैया वैदेही
अनगिन झेले कष्ट भले ही
मृग आकर्षण में अंकुर थे
स्वर्ण नगर की पीड़ा के ही
पल भर का सम्मोहन लाया जीवन भर का त्रास
उर्मिल ने बिन कारण भोगा महलों में वनवास

हर इक सुविधा द्वार पड़ी थी
प्राण बिना इक देह खड़ी थी
माँ सीता की आँखें नम थीं
पर उर्मिल की पीर बड़ी थी
भीतर-भीतर घुलकर सींचा प्रियतम का विश्वास
उर्मिल ने बिन कारण भोगा महलों में वनवास

अश्रु बहाने पर अंकुश था
पीर जताने पर अंकुश था
अगन सेज पर इक लक्कड़ को
धधक बताने पर अंकुश था
वरना सबको हो जाएगा, पीड़ा का आभास
उर्मिल ने बिन कारण भोगा महलों में वनवास

हमें बताया रामायण ने
भीषण पाप किया रावण ने
किन्तु देह की पर्णकुटी से
जिसका हरण किया लक्ष्मण ने
उस बेचारी ने कब की थी कंचन मृग की आस
उर्मिल ने बिन कारण भोगा महलों में वनवास

© चिराग़ जैन