बन्द कलियों की विकलता बढ़ गई है
अधखुली-सी इक कली धीरज गँवाकर
पुष्प से प्रतियोगिता पर अड़ गई है
पंखुरी दर पंखुरी खिलना उचित है
डाल ने दिन-रात समझाया कली को
गंध निश्चित ही बिखरनी है हवा में
कौन-सी जल्दी पड़ी है बावली को
होड़ तज कर गंध को सींचो हृदय में
जो बसी भीतर, वही बाहर गई है
पुष्प के मकरंद से महकी हवा तो
बन्द कलियों की विकलता बढ़ गई है
जब तलक संघर्ष है, जीवन तभी तक
राह की कठिनाइयों का मान करना
घुल गया मकरंद जिसका भी हवा में
उस कुसुम के धैर्य का सम्मान करना
साधना पथ पर नहीं विचलित हुआ जो
ख्याति उस इंसान की घर-घर गई है
पुष्प के मकरंद से महकी हवा तो
बन्द कलियों की विकलता बढ़ गई है
मंद बहकर ही नदी सरगम बनेगी
वेग तो तटबंध को ही तोड़ देगा
रूह को महकाएँगी मंथर हवाएँ
और अंधड़ देह को झकझोर देगा
जो नियति की चाल से आगे बढ़ी है
वह कली अल्पायु में ही झर गई है
पुष्प के मकरंद से महकी हवा तो
बन्द कलियों की विकलता बढ़ गई है
ताप सहकर ही बनेगी वज्र, माटी
फिर भला दहती लपट से रूठना क्या
कर्म का अधिकार ही हमको मिला है
स्वप्न की फिर सर्जना क्या, टूटना क्या
हठ पकड़ बैठा कोई जब भी नियति से
भाग्य की त्यौरी उसी क्षण चढ़ गई है
पुष्प के मकरंद से महकी हवा तो
बन्द कलियों की विकलता बढ़ गई है
✍️ चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment