Wednesday, May 8, 2019

उदासी का अफ़साना

जिन डेरों ने उत्सव पूरा था रैना के आँचल में 
भोर उन्हीं डेरों पर इक वीराना पाती है 
अंधियारे में जीवन सबका रंग-रंगीला लगता है 
पहली किरण उदासी का अफ़साना पाती है 

जिनके बिन हर महफ़िल का सिंगार अधूरा होता है 
उन फूलों का गुच्छा सुबह केवल घूरा होता है 
जिसके दम पर महफ़िल अपना सिर ऊँचा कर लेती है 
वो सब कुछ सुबह होने तक चूरा-चूरा होता है 
झूठे रंग उतर जाते हैं रात गुज़रने से पहले 
भोर महज सच का बदरंग ख़ज़ाना पाती है 

साज पड़े होते हैं लेकिन सुर थक कर सो जाते हैं 
देह पड़ी रह जाती है और प्राण कहीं खो जाते हैं 
जिनका आकर्षण था उनसे दिल घबराने लगता है 
जश्न सुबह की क्यारी में इक सन्नाटा बो जाते हैं 
रात जवानी की बाँहों में रास रचाती फिरती है 
और सुबह रंगरलियों से उकताना पाती है 

© चिराग़ जैन

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