जो सबके अपराध टटोलें
मीठे पानी में विष घोलें
जो जल से जल-जल जाते हैं
जब बोलें कड़वा ही बोलें
वे बेचारे इक दर्पण को, जग का चेहरा मान रहे हैं
दर्पण में उनका चेहरा है, उस पर भौंहें तान रहे हैं
हर युग में कान्हा जन्मे हैं, हर युग में शिशुपाल हुए हैं
जिस धरती पर बुद्ध चले थे, उस पर अंगुलिमाल हुए हैं
दशरथ ने मर कर समझाया, अनुचित के आगे मत झुकना
जब-जब कोपभवन की मानी, तब-तब युग बदहाल हुए हैं
कभी सुदर्शन से समझाए
कभी समर्पण के पथ आए
तम के चेले कभी, कहीं भी
सत के आगे टिक ना पाए
सच का जीवित रहना तय है, इसके बहुत प्रमाण रहे हैं
वे बेचारे इक दर्पण को, जग का चेहरा मान रहे हैं
ईर्ष्या ढूंढ रही है कमियाँ, प्रतिभा बस बढ़ती जाती है
तिनके तकते रह जाते हैं, और लता चढ़ती जाती है
बिन समझे कहने वालों ने, माटी सनी हथेली देखी
लेकिन लगन उसी माटी से, अमृत घट गढ़ती जाती है
अपनों को दुत्कार चुके हैं
यश-वैभव सब हार चुके हैं
एक ज़रा सी ज़िद्द के आगे
पूरा कुल संहार चुके हैं
ख़ुद के हित का ज्ञान नहीं है, कहने को विद्वान रहे हैं
वे बेचारे इक दर्पण को, जग का चेहरा मान रहे हैं
© चिराग़ जैन
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