Monday, September 30, 2019

सत्य

सत्य, जिसकी हम अभागे खोज करते फिर रहे हैं 
वो युगों से वैभवों का दास बनकर जी रहा है
न्याय, जिसकी चाह में जीवन समर्पित कर चुके हैं
वो किसी दरबार में उपहास बनकर जी रहा है

पीर की सिसकी सुनी तो आँख का पानी पिलाया
दर्द बेघर था, उसे अपने बड़े दिल में बसाया
आह बेसुध थी, उसे सम्बल दिया अपनी भुजा का
हिचकियाँ बेचैन फिरती थीं, गले उनको लगाया
कष्ट की आँखें सजल पाकर उसे अपना कहा था
रंगमंचों पर वही, उल्लास बनकर जी रहा है

आपसी विश्वास, छल की छूट का पर्याय भर है
हर शपथ, मन में बसे इक झूठ का पर्याय भर है
धैर्य कड़वा घूँट है, कायर जनों का ढोंग कोरा
दान क्या है, आत्मा की लूट का पर्याय भर है
भाग्य जब हमसे मिला तो, ठूठ-सा था रूप उसका
आजकल वह बाग़ में मधुमास बनकर जी रहा है

ज्ञान, अपनी धूर्तता को, नीति कहने की कला है
धर्म, नियमों को नियति की रीति कहने की कला है
अर्थ है वह उपकरण जो पाप को भी पुण्य कर दे
प्रेम, कोरी वासना को प्रीति कहने की कला है
जो कथानक वास्तविकता के धरातल पर नहीं था
आजकल वह विश्व का इतिहास बनकर जी रहा है

© चिराग़ जैन

Friday, September 27, 2019

ओ समय!

ओ समय! जब तू मेरे विपरीत चलकर थक चुकेगा 
तब तुझे कुछ देर मेरे साथ भी चलना पड़ेगा 
जिस दीये के भाग्य में घी और बाती आ गई है 
उस दीये को आज सारी रात भी जलना पड़ेगा 

सत्य के तप की परीक्षा जब कभी प्रारब्ध लेगा 
तब महाश्मशान तक प्रारब्ध ख़ुद भी जाएगा ही 
सत्य तो हर इक चुनौती झेल ही लेगा नियति की 
भाग्य लेकिन नित नया दुःख ढूंढ़कर तो लाएगा ही 
जब किसी के वक्ष पर तू मूंग दलने जाएगा तो 
ख़ुद तुझे ही मूंग अपने हाथ से दलना पड़ेगा 
ओ समय! जब तू मेरे विपरीत चलकर थक चुकेगा 
तब तुझे कुछ देर मेरे साथ भी चलना पड़ेगा 

प्रश्नचिह्नों ने स्वयं ही वक्रता का दंश झेला 
उत्तरों ने पूर्णता पाई सरल रेखा बनाकर 
जिस किसी की कीर्ति को विषपात्र सौंपा था समय ने 
ग्लानि धोता फिर रहा उनकी अमर गाथा सुनाकर 
जानकी तो अग्निपथ को पार कर लेगी सहज ही 
किन्तु युग को उस अगन के ताप में जलना पड़ेगा 
ओ समय! जब तू मेरे विपरीत चलकर थक चुकेगा 
तब तुझे कुछ देर मेरे साथ भी चलना पड़ेगा 

राम का वनवास, सीता का विरह, उर्मिल के आँसू 
तू अवध की देहरी पर और पीड़ा क्या रखेगा 
सुत, पितामह, तात, अग्रज खो चुका कौन्तेय रण में 
पाण्डवों के द्वार पर यम और क्रीड़ा क्या रचेगा 
दूसरों को राह में काँटे बिछाने के लिए तो 
ख़ुद तुझे भी कंटकों के रूप में ढलना पड़ेगा 
ओ समय! जब तू मेरे विपरीत चलकर थक चुकेगा 
तब तुझे कुछ देर मेरे साथ भी चलना पड़ेगा 

© चिराग़ जैन

Thursday, September 26, 2019

आईआईटी रुड़की का कवि सम्मेलन

आईआईटी रुड़की का कवि सम्मेलन था। सभागार में तिल रखने को जगह नहीं थी। मंच पर डॉ गोविंद व्यास, श्री मनोहर मनोज, श्री अरुण जैमिनी, श्री अंसार कम्बरी और मैं आमंत्रित कवियों के रूप में विराजमान थे। तीन कवि रुड़की स्थानीय कवियों के रूप में मंचासीन थे और दो युवक विद्यार्थी कवियों के रूप में।
संचालन प्रारंभ किया तो संस्थान में भूगोल विषय पर शोध कर रहे दिव्यांशु दीक्षित से शुरुआत कराई। पहले ही मुक्तक में दिव्यांशु ने मंत्रमुग्ध कर दिया-

मौन भी स्वर हो गए अब लौट आओ
प्रश्न उत्तर हो गए अब लौट आओ
फूल जल तुमने चढ़ाया पत्थरों पर
प्राण पत्थर हो गए अब लौट आओ

कथ्य और भाषा, दोनों उम्मीद से बेहतर थी। फिर भीतर के क्षुद्र अहंकार ने स्वप्न देखा कि शायद गीत कमज़ोर होगा। लेकिन गीत ने भी मेरे भीतर के अहंकार को चूर-चूर किया... अहा, क्या बिंबविधान था...

प्रेम में उतरा, तभी कठिनाइयाँ स्वीकार कर लीं
ज़िन्दगी की भँवर क्या, जब नयन झीलें पार कर लीं

उफ्फ... भूगोल का शोधार्थी, मन की इतनी गहरी परतों को खोलकर छू सकेगा.. यह मेरी कल्पना से परे था। जियो दिव्यांशु, तुम सबकी नज़रों में आओ, किन्तु तुम्हारी दिव्यता को किसी की नज़र न लगे। दिव्यांशु के काव्यपाठ का सम्मोहन अभी टूटा भी न था, कि संस्थान के पर्यवेक्षक श्री महावीर ने दार्शनिक मुक्तकों से मंच और श्रोतादीर्घा को चमत्कृत किया। अद्भुत मनोदशा थी, जितना सुनता जाता था, उतनी ही प्यास बढ़ती जाती थी। जब हेमन्त मोहन ने ग़ज़लें पढ़नी शुरू कीं तो ऐसा लगा, ज्यों प्रतिभा अपने विश्वरूप के दर्शन करा रही हो। आँखें अपलक हो चली थीं और तन अकम्पित! और फिर एक शेर ने तो श्रेष्ठता के चरम को छू लिया-

क़ैदख़ानों को बड़ा करते रहें
लोग समझेंगे कि वो आज़ाद हैं

अहा.. रोम-रोम खिल उठा। कितने पुण्यों से ये दो मिसरे हेमन्त मोहन को मिले होंगे। ईश्वर इस लाजवाब शायर को ख़ूब आशीष दे! इसके बाद भी मंच काव्य से लबरेज ही रहा, विश्वकर्मा के प्रांगण में सरस्वती के इन लाडलों की उपस्थिति ऐसी ही थी मानो लंका नगरी की किसी कुटिया में रामभक्त मिल गया हो।

Tuesday, September 24, 2019

शब्द नहीं चुके, हम चूके हैं

हिंदी की वर्तनी में कई बार हम ऐसी चूक कर देते हैं, जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। लापरवाही के कारण कोई-कोई भूल परंपरा भी बन जाती है और फिर शब्दकोष पलटने के आलस्य के कारण समाचार पत्रों में विद्यमान "विद्वान" उसे प्रचलित प्रयोग का नाम देकर स्वीकार्य मान लेते हैं। उसके बाद कर्मठ सरकारी कर्मचारियों की कृपा से सरकारी दस्तावेज़ और सार्वजनिक सूचना पट्ट तक इस संक्रमण के प्रभाव में आ जाते हैं। आज मैं कुछ ऐसे ही "प्रचलित प्रयोगों" की वास्तविकता का स्मरण करूँगा। 

(1) 
अंतरराष्ट्रीय = अंतर + राष्ट्रीय = INTERnational (involving two or more countries) 
अन्तर्राष्ट्रीय = अंतः + राष्ट्रीय = INTRA-national (within one nation) 

(2)
ग्रह, गृह, ग्रहण, गृहिणी 
ग् + र + ह = ग्रह = बुध, शुक्र, मंगल आदि आकाशस्थ पिण्ड 
ग् + ऋ + ह = गृह = घर 
ठीक यही चूक हम ग्रहण और गृहिणी की वर्तनी में भी करते हैं। 
ग्रहण शब्द का अर्थ "पकड़ने की क्रिया" से जुड़ा है। अंग्रेजी में इसको Assumption और Eclipse के रूप में समझा जा सकता है। गृहिणी का अर्थ है "घर की स्वामिनी"। अंग्रेजी में इसे Mistress या Housewife कहते हैं। 

सूर्य पर ग्रहण लगता है तो गृहिणियाँ पूजन-पाठ करने लगती हैं। पाणिग्रहण के बाद कन्या गृहिणी बन गई। कुण्डली में द्वादश गृह (घर) और नव ग्रह होते हैं। 

(3) 
'न' और 'ना' 
ये दोनों देखने में एक जैसे लगते हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से लगभग विलोम हैं। 
"न" निषेधात्मक अर्थ देता है और सामान्यतया वाक्य के अंत में नहीं आता। जैसे - "न जाइये", "आप न कर सकेंगे", "अब न रहे" इत्यादि। 
"ना" अनुरोधात्मक होता है और वाक्य के अंत में ही आता है। 
यथा, "जाइये ना!"; "सुधारिये ना!"; 
"न जाइये ना!" -इस वाक्य में यदि "ना" न लगता तो यह आदेशात्मक वाक्य होता किन्तु "ना" ने इसे अनुरोधात्मक बना दिया। है ना! 

(4)
जूठा और झूठा 
जूठा (जूठन) = खाने-पीने से बचा हुआ। 
झूठा = असत्य बोलने वाला। 
बोली में झूठ और थाली में जूठ बुरी होती है। 

(5) 
कई बार अच्छी हिंदी लिखने के चक्कर में हम हास्यास्पद हो जाते हैं। विवाह का निमंत्रण देते समय घर के मुखिया का नाम लिखकर साथ में 'सपरिवार' लिखा जाता है। यहाँ तक ठीक है। 
सपरिवार = परिवार सहित 
किन्तु आजकल कुछ लोगों ने कुछ अलग करने के चक्कर में "सहपरिवार" लिखना शुरू कर दिया है। इस सहपरिवार को सहन करना बहुत मुश्किल है। कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर ज़्यादा ज़ोर डालने के लिए "सपरिवार सहित" लिखने लगे हैं। उपसर्ग लगाने के बाद अलग से सहित लिखकर आप हिंदी का अहित कर रहे हैं। 
'स' उपसर्ग लगाने से शब्द में सहित का अर्थ सम्मिलित हो जाता है, अलग से भाव स्पष्ट करके सामने वाले की अर्थग्राह्यता पर प्रश्नचिन्ह न लगाएँ। 

(6)
"" और "" में हम अक्सर भूल करते हैं। फ = PH फ़ = F देवनागरी की मूल वर्णमाला में "F" की ध्वनि के लिए कोई वर्ण नहीं है, किन्तु फ़ारसी और अंग्रेजी के शब्दों का जब हमारी शब्दावली में सम्मिलन हुआ तो इस ध्वनि की आवश्यकता पड़ी। इसलिए "फ़" चिन्ह को इस ध्वनि के लिए सुनिश्चित किया गया। अब हम लगभग एक जैसा चिन्ह देखकर भ्रमित हो जाते हैं और फिर (PHIR) को फ़िर (FIR) बोलते फिरते हैं। यही चूक हम अन्य शब्दों में भी करते हैं। लिखते हैं फोन (PHONE) और बोलते हैं फ़ोन (FONE) थोड़ा ध्यान रखें, आगे से ये हेराफेरी करने से बचें।

(7) 
नमस्कार! यह शब्द 'नमस्कार' मूलतः संस्कृत का शब्द है। इसमें नमः + कार होने से विसर्ग संधि के नियमानुसार नमस्कार बनता है। ठीक वैसे ही ज्यों नमः + ते = नमस्ते हो जाता है। "नमस्ते" का सौभाग्य यह है कि उसे सब लोग "नमस्ते" ही बोलते हैं, किन्तु 'नमस्कार' बेचारा 'नमश्कार' बोला जाने लगा। सज्जनो! हमने इस नमश्कार से बहुत से अभिवादन दूषित किए हैं। कृपया आज से अपने "नमस्कार" को सुधार लें। 

(8)
राज़ की बात यह है कि राज किसी का भी हमेशा नहीं रहता 
 राज (हिंदी) = शासन = Rule 
राज़ (उर्दू) = रहस्य = Secret 

(9)
गढ़ना और गड़ना 
स्वर्णकार ने ख़ूबसूरत आभूषण "गढ़े" और उन्हें चोरों से बचाने के लिए ज़मीन में "गाड़" दिया। 
नोट : गढ़ का एक अर्थ दुर्ग भी होता है। 

(10)
और चिह्न का आकार तथा उच्चारण ध्वनि के कारण 'ड' और 'ड़' में लोग चूक करते हैं। जबकि इनका बिल्कुल सही प्रयोग करना बेहद आसान है। इसके लिए निम्न बिंदुओं का ध्यान रखना होगा :- . 
1) 'ड़' कभी भी शब्द के प्रारंभ में नहीं आ सकता। इसलिये यदि यह शब्द के प्रारंभ में है तो निश्चित रूप से 'ड' ही होगा। जैसे डगर, डायन, डेरा, डाकिया। 
2) हिंदी के शब्द के बीच में या अंत में सामान्यतया 'ड़' ही होगा। जैसे कड़क, धड़कन, भाड़, झाड़ी, ताड़ना। 

अपवाद : 1) संयुक्ताक्षर या अर्द्धाक्षर के साथ कभी भी 'ड़' नहीं लगेगा। चाहे वह शब्द के बीच में या अंत में ही क्यों न हो। जैसे काण्ड, आडम्बर, ठण्ड, हाण्डी, खड्डा, गड्ढा, गुड्डा। 
2) अंग्रेजी की वर्णमाला में 'ड़' के लिए कोई चिन्ह ही नहीं है। अतः इस भाषा से हिंदी में आए शब्दों में 'ड़' की ध्वनि की संभावना ही नहीं है। सो, अंग्रेजी के शब्दों में हमेशा 'ड' ही प्रयुक्त होगा। जैसे :- गुड, लीडर, राडार। 
3) 'ड' से प्रारम्भ होने वाले किसी शब्द से पूर्व यदि उपसर्ग, संधि अथवा समास के कारण कोई अक्षर या शब्द जुड़ता है तो उसमें मूल शब्द का सिद्धांत ही बना रहता है। जैसे 'निडर' शब्द में डर से पहले नि उपसर्ग जुड़ने के कारण 'ड' बीच में आ गया है, लेकिन इसमें 'ड' ही बना रहेगा। उसे बदलकर 'निड़र' नहीं किया जाएगा। 
नोट : ये सभी नियम 'ढ' तथा 'ढ़' के प्रयोग में भी समान रूप से लागू होते हैं। 

(11)
हँसी और हसीं 
हँसी = खिलखिलाहट 
हसीं = हसीन, ख़ूबसूरत 
 उर्दू में जो शब्द 'न' पर समाप्त होते हैं उनमें 'न' को अनुस्वार से रूपांतरित करने की परंपरा है। (संस्कृत में भी 'म्' पर समाप्त होने वाले शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग किया जाता है जैसे 'देवम्' को 'देवं' लिखा जा सकता है।) 'हसीन' का 'हसीं'; 'आसमान' को 'आसमां'; 'जुनून' को 'जुनूं' इसी नियम के तहत लिखा जाता है। इसलिए जब किसी की ख़ूबसूरती की बात करनी हो तो उसे 'हसीं' कहना, वरना लोग आपकी 'हँसी' उड़ाएंगे। 

(12)
कृपा और कृपया 
1) 'कृपया' शब्द में आधा प प्रयोग करके 'कृप्या' लिखने से कृपा रुक जाती है। 
2) एक वाक्य में एक बार से अधिक कृपा मांगी जाए तो भद्दा लगता है। इसलिए यदि वाक्य के प्रारंभ में 'कृपया' प्रयोग किया गया है तो उसमें दोबारा कृपा करने के लिए न कहें। नीचे कुछ उदाहरण देखें :- 
"कृपया अपनी थाली स्वयं उठाएँ!" - यद्यपि इस वाक्य में आदेश दिया गया है किन्तु 'कृपया' लगने से यह अनुरोधात्मक बन गया है। यदि हम यह लिखें कि 'अपनी थाली स्वयं उठाने की कृपा करें।' तो भी इसका स्वरूप समान रहेगा। चूँकि वाक्य के प्रारंभ में 'कृपया' लगाने से 'कृपापूर्वक' का आशय प्राप्त होता है, इसलिए पुनः 'कृपा' लगाने की आवश्यकता नहीं होती। 
सामान्यतया कार्यालयी पत्र व्यवहार में अधिकारी को लिखे गए पत्रों में यह चूक अधिक दिखाई देती है। यथा, 'कृपया दो दिन का अवकाश देने की कृपा करें।' या 'कृपया मुझे स्टेशन छोड़ने की अनुमति दें, आपकी अति कृपा होगी।' - इन वाक्यों में अनुरोध गिड़गिड़ाहट से भी ज़्यादा लिजलिजा हो जाता है। 

(13)
कार्यवाही (हिंदी) = Proceedings 
कार्रवाई (फ़ारसी)= Action 
अदालत में कार्यवाही के दौरान पूछा गया कि शिक़ायत मिलने पर पुलिस ने क्या कार्रवाई की। .
किसी समाधान तक पहुँचने के लिए सभा आदि में चलने वाली प्रक्रिया को कार्यवाही कहते हैं। किसी कार्यवाही से प्राप्त आदेशों के आधार पर समस्या का समाधान करने हेतु किया जाने वाला कार्य कार्रवाई कहलाता है। 

(14)
रु और रू 
अन्य किसी भी वर्ण पर 'उ' अथवा 'ऊ' की मात्रा लगाने में हम चूक नहीं करते किन्तु 'र' के साथ अक़्सर यह लापरवाही हो जाती है। थोड़ा ध्यान से देखें। इन दोनों पर लगने वाली मात्रा का आकार भिन्न है। याद करें कि आप र वर्ण पर उ/ऊ की मात्रा लगाते समय लघु अथवा दीर्घ का अंतर करते हैं या नहीं। 'रुक' कर सोचें, नहीं तो शब्द 'रूठ' जाएंगे। 

(15)
जगत् और जगत 
जगत् = संसार, दुनिया, शिव 
जगत = कुएँ की मेढ़, कुएँ के चारों ओर का चबूतरा 
'जगत्' संस्कृत का शब्द है और 'जगत' हिंदी का। हम सामान्यतया हिंदी में 'जगत' लिखकर समझ लेते हैं कि हमने सारा संसार लिख दिया, लेकिन वास्तव में हम तब अपनी दुनिया को कुएँ तक सीमित कर रहे होते हैं। 

(16)
जब हम किसी शब्द को संबोधन के लिए प्रयोग करते हैं तो उसमें बहुवचन होने पर भी अनुस्वार नहीं लगता। जैसे :- 
बच्चो! स्कूल जाओ। 
मित्रो! एक-दूसरे का सहयोग करो। 
भाइयो और बहनो! देश का विकास करो। 
दिल्लीवालो! दिल्ली को साफ़ रखो। 

ये ही शब्द जब संबोधन से इतर कहीं प्रयुक्त हों तो इनमें अनुस्वार लगेगा। जैसे :- 
बच्चों ने पाठ पढ़ा। 
मित्रों के साथ आनंद आया। 
भाइयों की सहायता करो। 
बहनों ने अपने-अपने भाइयों को राखी बांधी। 
दिल्लीवालों की बात ही कुछ और है। 

बच्चो! अपने मित्रों की सहायता करो। 
भाइयो और बहनो! मैं सभी दिल्लीवालों को आश्वस्त करता हूँ कि उनके बच्चों के स्कूलों के हालात सुधरेंगे। 

(17)
दिया और दीया 
दिया : यह एक सकर्मक क्रिया है जो कुछ देने के अर्थ में प्रयोग की जाती है। किसी कार्य के सम्पन्न कर देने के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। 
दीया : दीपक
गृहिणी ने आँगन में 'दीया' रख 'दिया'। ईश्वर ने सबको उसकी क्षमता के अनुसार दुःख 'दिया' है।

(18) 
दादा और दद्दा 
दादा (हिंदी) : पितामह (पिता का पिता) 
दद्दा (बांग्ला) : अग्रज (बड़ा भाई) .
कला के क्षेत्र में जब कोई कनिष्ठ कलाकार किसी वरिष्ठ से मिलता है तो सामान्यतया 'दद्दा' कहकर संबोधित करता है। यह चलन तब से चला जब कला की गलियों में बंगाली लोगों का वर्चस्व हुआ। 'दद्दा' संबोधन ऐसे ही है जैसे हम सामान्य व्यवहार में किसी को भाईसाहब कहते हैं। कुछ लोग अनजाने में 'दादा' कह बैठते हैं। जब अपनी आयु से छह-सात वर्ष अधिक के व्यक्ति को कोई 'दादा' कहता है तो हास्यास्पद लगता है। 

(19)
अर्थी और अरथी 
अर्थी : अपेक्षा रखने वाला 
अरथी : बाँस और फूस से तैयार वाहन, जिस पर बांधकर शव को मरघट ले जाया जाता है। 
आजकल विद्यार्थी (विद्या+अर्थी) ही विद्या की अरथी निकालने पर तुले हैं। 

(20) 
कढ़ाई, कड़ाही और कड़ाई 
कढ़ाई : क़सीदे निकालने का काम 
कड़ाही : एक चौड़ा पात्र जो आँच पर रखकर पकाने के काम आता है 
कड़ाई : सख़्ती 
इन तीनों शब्दों का उच्चारण बहुत निकट का है अतः इनमें हम अक्सर चूक कर देते हैं। बस, ज़रा सी सावधानी से इस चूक से बचा जा सकता है। लड़की कढ़ाई करके सपनों का नाम लिखती है, लेकिन सौतेली माँ कड़ाई करती है कि लड़कियों को चूल्हे-चौके में ही ध्यान लगाना चाहिए। बेचारी लड़की, चुपचाप अपने सपनों को कड़ाही के नीचे भभकती आग में झोंक देती है। 

(21)
'र' अक्षर पैरों में पड़ा हो तो पूरा होता है और सिर पर चढ़ जाए तो आधा हो जाता है। 'कर्म' में 'र' आधा है, जबकि 'क्रम' में 'र' पूरा है। जिसके सिर पर चढ़ता है उससे पहले बोलता है और जिसके पैरों में पड़ता है उसके बाद बोलता है। इस सिद्धांत को आप ध्यान रखेंगे तो कभी भी 'आशीर्वाद' लिखने में चूक नहीं होगी। 

(22)
अनुस्वार (ं) 
क ख ग घ ङ 
च छ ज झ ञ 
ट ठ ड ढ ण 
त थ द ध न 
प फ ब भ म 

इन पाँच वर्गों में क्रमशः ङ, ञ, ण, न और म पंचम अक्षर हैं 
1) पंचमाक्षर के बाद यदि उसी वर्ग का कोई व्यंजन हो तो वहाँ 'हिंदी' में अनुस्वार से रूपांतरित किया जा सकता है। जैसे दण्ड में ड से पूर्व ण् की ध्वनि है इसलिए इसको 'दंड' लिखा जा सकता है। इसी प्रकार चंचल, चंद्रमा, झंझा, पंथ, गंगा, कंपन आदि भी हिंदी में मान्य हैं। किन्तु संस्कृत लिखते समय पञ्चमाक्षर को अनुस्वार रूप में लिखना मान्य नहीं है। 
2) पंचमाक्षर के उपरांत यदि किसी अन्य वर्ग का व्यंजन हो तो अनिवार्य रूप से पंचमाक्षर ही लिखना होगा। जैसे : अन्य, उन्मत्त, उन्मुख। यहाँ अनुस्वार से रूपांतरण मान्य नहीं होगा। 
3) यदि कहीं पर पंचमाक्षर की पुनरावृत्ति हो तो भी अनुस्वार से रूपांतरण नहीं होगा। जैसे : विभिन्न, सम्मोहन, सम्मत, सम्मान। 
4) संस्कृत के शब्दों में यदि अंत में अनुस्वार है तो वह 'म्' का द्योतक है। यथा : अहं (अहम्), एवं (एवम्)। 

अनुनासिकता चिह्‍न / चंद्रबिंदु (ँ) चंद्रबिंदु वर्ण नहीं है। यह स्वर का नासिक्य विकार है। इसमें स्वरों के उच्चारण में नाक से भी व्युस्राव होता है। जैसे : गाँठ, पराँठा, जहाँ, हँसना, गाँव, गँवार। सामान्यतया, इस ध्वनि के लिए चंद्रबिंदु लगाने का ही प्रावधान है किंतु जहाँ पर शिरोरेखा से ऊपर मात्रा लगती हो वहाँ यदि अनुनासिक ध्वनि है तो मुद्रण की भ्रांति से बचने के लिए चंद्रबिंदु की जगह केवल बिंदी (अनुस्वार) लगाया जाता है, जैसे : नहीं, में, भैंस, मैं आदि। 

विशेष : मात्रा गणना के समय अनुस्वार की मात्रा गिनी जाती है किंतु अनुनासिकता की मात्रा नहीं गिनी जाती। कंठ 2 l संतान 2 2 l चंचल 2 l l हंस 2 l हँस l l चँवर l l l धँसी l 2 

(23)
आकलन 
आकलन हिंदी भाषा का शब्द है, जिसे सामान्यतया पूर्वानुमान द्वारा गणना करने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। कुछ जगह लोग इसको आंकलन लिखने लगे हैं। किन्तु इस शब्द में अनुस्वार या चंद्रबिंदु नहीं लगता। अंक से बनने वाला शब्द आँकड़ा उन्हें भ्रमित करता होगा किन्तु हर आकलन का संबंध आँकड़ों से नहीं होता। 

(24)
सफल और विफल 
सफल = स + फल (फल से युक्त) विफल = वि + फल (फल से रहित) 'सफल' में फल 'धातु' पर 'स' उपसर्ग लगा हुआ है। जो लोग इसका विलोम 'असफल' लिखते या बोलते हैं वे एक ही धातु पर दो उपसर्ग जड़ देते हैं। सफल का विलोम विफल होता है। 

(25)
उद् + ज्वल् + अच् = उज्ज्वल 
प्र + ज्वल् + अच् = प्रज्वल 
इन शब्दों में किसी भी तरह 'ज्वल' को 'जवल' बना देने की नौबत नहीं आती। इसलिए जो संधि करनी हो, वह 'ज्वल' से पहले ही कर लें। भविष्य में अपने कार्यक्रमों में दीप 'प्रज्वलन' ही करवाएँ ताकि कार्यक्रम का भविष्य 'उज्ज्वल' हो सके। 

(26) 
दुनिया 
'दुनिया' की हालत हमने पहले ही बहुत ख़राब कर रखी है। इसे 'दुनियां' लिखकर कृपया इसे और बर्बाद न करें। 

(27)
बदतमीज़ 
बदतमीज़ शब्द हमने बचपन से सुना है। इतना सुना है कि इसे कभी लिखकर देखने की ज़रूरत नहीं समझी, और श्रुत परम्परा से इसे 'बत्तमीज़' बोलते रहे हैं। जब आप स्वयं को सभ्य भी बनाए रखना चाहें और गाली बकने का भी मन हो तब यह शब्द बहुत काम आता है। इसे मुस्कुराते हुए बोला जाए तो यह लाड़ की प्रतिध्वनि तक दे देता है। इतने काम के शब्द के साथ बदतमीज़ी की जाए, यह अच्छी बात नहीं है। 

(28)
ख़ुदकशी = आत्महत्या 
यह शब्द सामान्यतया ग़लत बोला जाता है। कुछ लोग इसे खुदखुशी बोलते हैं तो कुछ खुदकुशी। जबकि इसका अर्थ है ख़ुद को नष्ट कर लेना। ख़ुद के प्राण खींच लेना। 

(29)
स्वागतम् = सु + आगतम् 
स्वागतम् में अलग से सु जोड़कर सुस्वागतम् लिखना ऐसे ही है जैसे किसी ने पगड़ी के ऊपर मुकुट लगा लिया हो। 

(30)
बंद : (फ़ारसी) रुका हुआ, छंद, क़ैद, अवरुद्ध 
बंध : (संस्कृत) बन्धन, गाँठ, बांधने की वस्तु 
इन दोनों शब्दों की प्रवृत्ति लगभग समान है, इसलिए इनके प्रयोग में छोटी सी चूक होती है। कुछ उदाहरण देखें : मेरे गीत में तीन बंद हैं। समान तो बंध गया लेकिन रास्ता बंद है। शादी की गाँठ बंध जाए तो तो बंदे का दोस्तों से मिलना बंद हो जाता है। 

(31)
कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनके बहुवचन बनाने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन हम अनजाने में बहुधा ऐसा करते हैं। जैसे, 'अनेक' स्वयं में बहुवचन है, इसे अनेकों करके कोई लाभ नहीं है। अंग्रेजी का 'लेडीज़' तो इस पीड़ा से सर्वाधिक पीड़ित है। 'एक लेडीज़ आई' और 'लेडीज़ों में न बैठें' जैसे वाक्य बहुत अखरते हैं। 

(32)
शल्वार = पैरों में पहनने का ढीला परिधान  
शल्वार फ़ारसी भाषा का शब्द है। अनेक लोग इसे 'सलवार' लिखते-बोलते हैं। यह सामान्य प्रचलन में है किंतु सही शब्द 'शल्वार' ही है। 

(33)
सर (संस्कृत) : जलाशय, तालाब, झील 
सर (फ़ारसी) : सिर, सिरा 
सर (अंग्रेजी) : एक संबोधन जो सम्मानित पुरुष के लिए प्रयुक्त होता है। 
सिर (हिंदी) : कपाल, खोपड़ी, सिरा, चोटी, ऊपर का छोर 
संस्कृत के 'शिर' को हिंदी में 'सिर' कहा गया। इसीलिए हिंदी में भी सिर पर पहनने के आभूषण को 'शिरफूल' कहा जाता है। हिंदी में पहुँच कर भी इस शब्द ने अनेक शब्द गढ़े, जैसे सिराहना, सिरमौर, सिरखपी, सिरचढ़ा, सिरताज। उधर फ़ारसी में 'सिर' का अर्थ मर्म, गूढ़, राज़ जैसे अर्थों के लिए होता रहा और हिंदी के 'सिर' को 'सर' कहा जाने लगा। इसीलिए वहाँ जो शब्द गढ़े गए उनमें छोटी इ की मात्रा नदारद रही। जैसे सरफ़रोश, सरमाया, सरफ़राज़, सरमस्ती। 
इस स्थिति में कुछ शब्दों के सही रूप की पहचान पूरी तरह मिट चुकी है। जैसे हिंदी में जिसे 'सिरदार' कहते हैं उसे फ़ारसी ने 'सरदार' कहा और चूँकि 'दार' फ़ारसी का प्रत्यय है इसलिए 'सरदार' ज़्यादा समीचीन भी है। इस शब्द ने हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की खिचड़ी से काम चला रही पीढ़ी के सिर में दर्द कर रखा है। कुछ वाक्य लिखते हुए तो मज़ा आ जाता है :- सर भी तो सरदार हैं। सर के सर में दर्द है। सरफ़राज़ सर ने उसे बहुत सर चढ़ा रखा है। 
भाषा गड्ड-मड्ड हो चुकी है, इसलिए ग़लत दोनों ही नहीं हैं, लेकिन यदि हिंदी वाले 'सिर' का प्रयोग करना शुरू करेंगे तो अनेक जगह भ्रम की स्थिति से बच सकेंगे। 

(34)
सर्वश्री 
संस्कृत में 'आदिदीपक' का प्रचलन है। जब कोई शब्द इस तरह लगाया जाए कि उसका प्रभाव उसके बाद आने वाले उस समूह के सभी शब्दों पर पड़े, तो उसे आदिदीपक कहते हैं। जब बहुत से नाम क्रम से पढ़ने अथवा लिखने हों तो सभी के नाम से पूर्व बार-बार 'श्री', 'सुश्री' अथवा 'श्रीमती' लिखने के स्थान पर प्रारम्भ में 'सर्वश्री' लिखना पर्याप्त है। 
मैंने कुछ लोगों को बार-बार 'श्री' के स्थान पर बार-बार 'सर्वश्री' प्रयोग करते देखा है। उनको लगता है कि 'सर्वश्री' कोई ऐसी डिग्री है जो 'श्री' से ज़्यादा ऊँची है। जबकि वास्तव में इसकी व्यवस्था पुनरावृत्ति विकार से बचने के लिए की गई है। 

(35)
विद्या, विद्यालय, विद्यार्थी 
इन शब्दों के उच्चारण में अक्सर हम चूक करते हैं। विद्या शब्द में 'द्य' का प्रयोग है जो कि द् + य के योग से बनता है। चूँकि इस संयुक्ताक्षर की बनावट 'ध' से मिलती-जुलती है इस भ्रम में इसे ध और य का योग समझ लिया जाता है। इसका रोमन रूपांतरण करें तो इसकी वर्तनी 'VIDYA' होगी, न कि 'VIDHYA' । भविष्य में अपने बच्चों को 'विद्यालय' भेजें विध्यालय नहीं। 

(36)
वैद्य = चिकित्सक, जो वैद्यक शास्त्र के अनुसार चिकित्सा करता हो। (विशेषण) वेद से सम्बंधित। 
वैध = विधि के अनुसार, विधान द्वारा स्वीकृत 
वैदिक = वेद से संबंधित (मूल स्रोत वेद) 
वैद्य जी वैदिक परंपरा के समर्थक हैं। आयुर्वेद की दवाइयाँ अनेक पश्चिमी देशों में भी वैध हैं। मोबाइल कंपनियों को बताइये कि जब हम रीचार्ज करवाते हैं तो उसकी 'वैधता' होती है। और चेरिटेबल चिकित्सालयों को बताइये कि अपने दवाख़ाने में 'वैद्य' जी को ही नियुक्त करें। 

(37) 
स्रोत : उत्पत्ति, मूल कारण, बीज 
स्तोत्र : स्तुति 
इन दोनों शब्दों के उच्चारण में सामंजस्य होने के कारण चूक होती है। कई बार तो 'स्रोत्र', 'स्त्रोत' और 'स्त्रोत्र' जैसी वर्तनी भी पढ़ने को मिलती है। हम यदि शब्दों की प्रवृत्ति और अर्थ का थोड़ा सा ध्यान रखें तो इन स्थितियों से बचा जा सकता है। 

(38) 
'वीणापाणि' 
यह माँ सरस्वती का एक नाम है। हाथों में वीणा धारण करने के गुण स्वरूप यह समासरूप निर्मित हुआ। इसमें वीणा और पाणि (कर, हाथ) का योग है। कुछ लोग सरस्वती वंदना और सामान्य प्रयोग में 'वीणापाणी' लिखते/बोलते हैं। यह ऐसा ही है जैसे किसी एप्लिकेशन में अफ़सर का नाम ग़लत लिखा जाए। रिजेक्ट होने की गारंटी। 

(39)
वृत : चुना गया, घेरा गया, लपेटा गया 
वृत्त : गोल घेरा, वर्णन 
व्रत : नियम 
वृत्त शब्द से 'आवृत्त' शब्द की सर्जना हुई है, जिसका अर्थ है : मुड़ा हुआ, चक्कर खाया हुआ, दोहराया हुआ, अध्ययन किया हुआ। 'प्रवृत्त' शब्द भी इसी से निर्मित है जो सामान्यतया संलग्न या कटिबद्ध होने का अर्थ देता है। वृत शब्द का उपयोग हिंदी में कम होता है अतः बहुत से लोग 'वृत्त' को मुखसुख के आधार पर 'वृत' लिखते/बोलते हैं। जबकि दोनों शब्दों के लिए अलग-अलग अर्थ निर्धारित हैं। 'व्रत' इन दोनों से बिल्कुल अलग शब्द है, किन्तु अनजाने में हम इन सबमें घालमेल कर देते हैं। 

(40)
'हस्' से हास्य, हास, उपहास, परिहास और अट्टहास जैसे शब्द बने हैं। इन सबमें थोड़ा-थोड़ा अंतर है। यद्यपि संस्कृत शब्दकोश में उपहास और परिहास का अर्थ लगभग समान है तथापि प्रयोग के आकलन अनुसार 
परिहास : मज़ाक़, हँसी-ठट्ठा 
उपहास : मज़ाक़ उड़ाना, व्यंग्यपूर्ण हँसी उड़ाना 
इस दृष्टि से उपहास नकारात्मक है और परिहास स्वस्थ हास्य। 
'अट्टहास' अर्थात् ऊँचे स्वर का हास। कुछ लोग इसको 'अट्टाहस' लिखते-बोलते हैं। जबकि सही शब्द अट्टहास है। हास : हँसी 
हास्य : हँसने योग्य (जैसे प्रणम्य, पूज्य आदि) 
चौपाल पर बैठे चार छोकरे 'परिहास' कर रहे थे। तभी वहाँ से एक लंगड़ा साधु निकला। एक लड़के को शरारत सूझी और उसने साधु के साथ-साथ लंगड़ाते हुए चलना शुरू कर दिया। दूसरे लड़के ने 'उपहास' करते हुए कहा- "क्या बात है महाराज!आज तो लहरा रहे हो।" अन्य छोकरे 'अट्टहास' करने लगे। साधु कुपित होकर बोला - "उद्दंड बालको! हर विषय 'हास्य' नहीं होता। व्याधि में 'हास' तलाशोगे तो व्यथित हो जाओगे।" 

(41)
आशंका 
संभावना 
दोनों ही शब्द किसी अनिश्चित के घटित होने का अर्थ देते हैं, लेकिन दोनों के अर्थ में आकाश-पाताल का अंतर है। जो हम चाहते हैं, उसके होने की 'संभावना' होती है। और जो हम नहीं चाहते उसके होने की 'आशंका' होती है। यथा
1) विदर्भ में इस वर्ष अच्छी बारिश होने की संभावना है। 
2) जमुना उफान पर है और शाम तक बारिश होने की 'आशंका' है। 

(42)
शाप, अभिशाप 
यह शब्द 'शाप' ही है। न जाने किस विद्वान ने इस शाप में एक छड़ी जोड़ कर इसे 'श्राप' बनाने का कुकृत्य किया है। जिसने भी इस शब्द की सूरत बिगाड़ी है उसे पाणिनि का 'शाप' लगेगा। 

(43)
विमोचन : छुड़ाना, मुक्त करना 
लोकार्पण : लोक को अर्पित करना 
सामान्य व्यवहार में हम लोकार्पण के ही अर्थ में विमोचन शब्द का प्रयोग कर लेते हैं, किन्तु यदि इसके सही अर्थ पर ध्यान देंगे तो समझ आएगा कि जब मंत्री जी हमारी पुस्तक का 'विमोचन' करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि पुस्तक को किसी ने क़ैद कर रखा था जिसे छुड़ाने मंत्री जी आए हैं। इसलिए भविष्य में यदि कोई पुस्तक लिखें, तो उसका लोकार्पण कराएँ, विमोचन नहीं। 

(44)
मुहब्बत 
इस लफ़्ज़ को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से लिखते हैं। 'मोहब्बत' या 'मौहब्बत' लिखा देखता हूँ तो मुझे 'मुहब्बत' के अंजाम पर रोना आता है। 

(45)
सम् + न्यास 
व्यंजन संधि के नियमानुसार यदि 'म्' के बाद 'क्' से 'भ्' तक कोई भी स्पर्श व्यंजन हो तो 'म्' का अनुस्वार हो जाता है या उसी वर्ग का पाँचवाँ अक्षर बन जाता है। इस हेतु उक्त संधि के बाद जो शब्द बनेगा वह 'संन्यास' होगा। अधिकतम स्थानों पर इस शब्द का अनुस्वार ग़ायब रहता है। 

(46)
वेला (संस्कृत) : काल, समय 
बेला (हिंदी) : चमेली जैसा एक फूल 
वेल्ला (पंजाबी) : निठल्ला 
लोक प्रयोग में हिंदी की कुछ बोलियों में 'बेला' को 'वेला' के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। एक फ़िल्म आई थी - 'आई मिलन की बेला'। इस फ़िल्म में 'बेला' शब्द को मुखसुख के आधार पर निर्मित अपभ्रंश के रूप में 'समय' के अर्थ में ही प्रयोग किया गया है। यह ग़लत भी नहीं है। लेकिन यदि हमें कभी लिखना पड़ा कि【 'बेला' के महकने की 'वेला' बहुत सुहानी होती है।】 तब अवश्य चुनौती खड़ी हो जाएगी। 

(47)
धन्यवाद और साधुवाद 
'धन्यवाद' आभार ज्ञापन के लिए प्रयोग होता है जबकि 'साधुवाद' प्रशंसा के लिए प्रयोग होता है। इसलिए जब आपको किसी को THANKS बोलना हो तो 'धन्यवाद' कहें, लेकिन जब किसी की सराहना करनी हो तो 'साधुवाद' कहें। 'साधु' शब्द का संस्कृत में अर्थ है, 'अच्छा'। इसका संन्यासी से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। उत्तम मनुष्य होने के कारण संन्यासी को साधु कह दिया जाता है। 

(48)
उपर्युक्त = उपरि + उक्त = ऊपर कहा गया \
यह शब्द संस्कृत के उपरि में उक्त जोड़ने से बना है। जो लोग इसे 'उपरोक्त' लिखते हैं वे ग़लत लिखते हैं। क्योंकि संस्कृत का मूल शब्द 'उपरि' है और हिंदी का शब्द 'ऊपर'। यदि हिंदी वाले ऊपर में उक्त जोड़ेंगे तो 'ऊपरोक्त' बनेगा। लेकिन 'उपरोक्त' तो किसी तरह से नहीं बनेगा। 'उपर्युक्त' विवेचना को ध्यान रखें और 'उपरोक्त' लिखने से बचें। 

(49)
व्रज : मथुरा और वृंदावन के आसपास का क्षेत्र जो श्रीकृष्ण की लीलाभूमि थी। 
'व्रज' संस्कृत भाषा का शब्द है। जिस क्षेत्र को इस संज्ञा से जाना जाता है वहाँ के लोकप्रभाव के कारण इसे ब्रज, बृज और बिरज बोल दिया जाता है। इसी प्रभाव के कारण इस क्षेत्र की बोली को हम बृजभाषा कहने लगे। लोक लालित्य के कारण यह सुंदर भी लगता है। किंतु वास्तविक शब्द 'व्रज' ही है। फिर भी जब होली का त्यौहार हो तो मन यही गाता है कि - "आज बिरज में होरी रे रसिया!" 

(50)
त्योहार : पर्व, उत्सव 
इस शब्द को कल तक मैं स्वयं 'त्यौहार' लिखता था, लेकिन कल एक सज्जन श्री आशीष शर्मा जी ने मेरी इस चूक की ओर इंगित किया। मैंने शब्दकोष के पृष्ठ पलटे तो ज्ञात हुआ कि मैं ग़लत था। भविष्य में अपने त्योहार मनाते समय अतिरिक्त मात्रा नहीं लगाऊंगा ताकि त्योहारों की शुद्धता का संतुलन बना रहे। 

(51)
शम्अ, मआनी, मुआमला, मुआफ़ 
उर्दू के कुछ लफ़्ज़ हिंदी में आकर अपना रूप इसलिए बदल लेते हैं क्योंकि हिन्दी में सामान्यतया शब्द के बीच मे स्वर हो तो वह पूर्ववर्ती व्यंजन में समाहित हो जाता है, किन्तु उर्दू में इसे अलग से ही लिखा व बोला जाता है। जैसे 'शम्अ' को हिंदी में 'शमा' लिखने का प्रचलन है। 'मआनी' को 'मानी' लिखते बोलते हुए हम कब 'मायने' बोलने लगे, यह पता ही न चला। चूँकि उर्दू वाले प्रथम अक्षर पर लगी लघु मात्रा को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते इसलिए उनके 'मुआमला' का भी 'मामला' बिगड़ गया और 'मुआफ़' तक को 'माफ़' करने लगे। 

(52)
वापस : प्रत्यागत, लौटा हुआ 
वापसी : प्रत्यागमन, लौटना, वापस आना 
वापस शब्द की सही वर्तनी में कहीं भी 'इ' की मात्रा नहीं आती। अनजाने में जो लोग इसे 'वापिस' बोलते या लिखते रहे हैं वे भविष्य में शुद्ध प्रयोग की ओर वापस आएंगे। 

(53)
चुकना और चूकना 
शीर्षक में प्रयुक्त इन दो शब्दों के विषय में अनेक जिज्ञासाएं प्राप्त होती हैं। अनेक मित्रों का मत है कि मुझसे भूलवश ऐसा हो गया है। मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैंने सोच-समझ कर शीर्षक में इन दोनों शब्दों को प्रयोग किया है। 
चुकना : सम्पन्न हो जाना, समाप्त हो जाना। यह शब्द भूतकाल में सम्पन्न हुए किसी कार्य अथवा घटना का द्योतक है। जैसे खा चुका, रह चुका, सो चुका। 
चूकना : किसी लक्ष्य का छूट जाना। यह शब्द भूल, ग़लती आदि के लिए प्रयोग होता है। जैसे भूल चूक लेनी देनी, मैं मौक़ा चूक गया। 'शब्द नहीं चुके' का अर्थ यह है कि शब्द समाप्त नहीं हुए हैं। शब्द कभी नहीं चुकते। हम ही उनका उचित प्रयोग करने में चूक गए हैं। हम ही अनजाने में भूल करते जा रहे हैं। 

(54)
छिपना 
यह शब्द 'छिपना' ही है। जो लोग इसे 'छुपना' लिखते या बोलते हैं, वे अशुध्द प्रयोग करते हैं। इस शब्द की विकृति में बॉलीवुड का बड़ा योगदान है। फ़िल्म का नाम ही 'छुपा रुस्तम' रख दिया। गाना गाया तो भी 'छुप गए सारे नज़ारे...'। इनसे प्रेरणा लेकर हम भी अपनी 'छिपम-छिपाई' को छुपम-छुपाई' बोलने लगे। लेकिन शब्दों की इस 'लुका-छिपी' में भी शब्दकोश ने कभी कुछ 'छिपाव' न रहने दिया। 

(55)
अवधि और अवधी 
अवधि : समयसीमा, Duration, Period, Term 
अवधी : अवध क्षेत्र की बोली। 
बाबा तुलसी ने अवधी में ऐसा काव्य रच दिया जिसकी लोकप्रियता की अवधि निरंतर बढ़ती जाती है। 

(56)
विदुर : ज्ञाता, पंडित, पाण्डु के अनुज 
विधुर : दुःखी, जिसकी पत्नी मर गई हो 
अपने ज्ञान और चातुर्य के बल पर विदुर ने यह सिद्ध किया कि वे अपने नाम के अनुरूप ही गुणी भी हैं। किन्तु वे विधुर नहीं थे, क्योंकि उनकी पत्नी 'पारसंवी' पूर्णतया स्वस्थ थी और पारसंवी के हाथ से श्रीकृष्ण ने उल्टे पीढ़े पर बैठ कर वैसे ही केले के छिलके खाए थे, जैसे शबरी की भक्ति देख राम ने जूठे बेर खाए थे। 

(57)
प्रसाद : अनुग्रह, कृपा, देवता को चढ़ाई गई वस्तु 
प्रासाद : राजमहल, राजभवन, देवालय 
प्रसाद शब्द को लोग जब किसी के नाम के साथ प्रयोग करते हैं तो सामान्यतया चूक नहीं करते। जैसे हरि प्रसाद, राम प्रसाद आदि। किन्तु इसी शब्द को लेकर जब हम मंदिर पहुँचते हैं तो न जाने क्यों इसे 'परसाद' या 'परशाद' बोलने लगते हैं। सम्भव है, इस अशुद्ध उच्चारण के कारण देवता हमारा प्रसाद ग्रहण न करते हों। 

(58)
दिलासा, सांत्वना 
हताशा, निराशा, शोक, दुःख अथवा क्षोभ के समय हिम्मत बंधाना हमारा मानवीय कर्त्तव्य है। किन्तु याद रहे कि दिलासा दिया जाता है और सांत्वना दी जाती है। जो शब्द प्रचलन विकृति के शिकार हुए हैं उनमें 'दिलासा' भी एक है। भ्रम की स्थिति में शब्दकोश से पूछा तो पता चला कि दिलासा पुल्लिंग है। 

(59)
दुलहन और दूल्हा 
हिंदी भाषा का शब्द है 'दुलहन' जिसे कुछ लोग 'दुलहिन' भी लिख बोल देते हैं। दुलहन शब्द ने जब आंचलिकता का सिंगार किया तो इसे दुल्हनिया कहा जाने लगा। गांव में खेलती इस दुल्हनिया को जब हम वापस शहर लाए तो बाद का 'इया' तो हटा दिया किन्तु 'ल' की बैसाखी लगाना भूल गए। किन्तु शब्दकोश कुछ नहीं भूलता। उसके पास आज भी 'दुलहन' सुरक्षित है। 'दूल्हा' इस सबसे इसलिए बच गया क्योंकि लोकबोली के घर प्रवेश करते हुए वह सतर्क था और उसने 'ह' की दीर्घ मात्रा को 'ल' में जोड़ कर स्वयं को 'दूलह' बनाया। इसलिए जैसे ही वह लोक लालित्य से बाहर निकला उसने अपनी आदत के अनुसार स्वयं को ठीक करके फिर से 'दूल्हा' बना लिया। 

(60)
पूर्वग्रह : पूर्व + ग्रह (समास) 
दुराग्रह : दु: + आग्रह (संधि) 
पूर्वग्रह का अर्थ है पहले से ग्रहण करना। किसी के विषय में पहले से राय क़ायम करना पूर्वग्रह है। दुराग्रह का अर्थ है मूर्खतापूर्ण हठ या बुरा आग्रह। 'दुराग्रह' की वर्तनी देखकर 'पूर्वग्रह' को 'पूर्वाग्रह' लिखना हमारा 'पूर्वग्रह' है और किसी के समझाने पर भी उसमें सुधार न करना 'दुराग्रह' है। 

(61)
चक्रवर्ती : एक समुद्र से दूसरे समुद्र पर राज्य करने वाला। 
चक्र-वृद्धि : सूद दर सूद 
कल कोई बता रहा था कि बैंक का ब्याज तो चक्रवर्ती ब्याज होता है। सुनकर मुझे लगा कि इतना ब्याज मिलता होगा जिससे मूलधन का स्वामी अकूत संपत्ति अर्जित कर लेता हो। फिर जब बैंक ब्याज की दर पता की तो लगा कि 4 से 6 प्रतिशत में तो यह सम्भव नहीं है। इसलिए भविष्य में ब्याज से साथ चक्र-वृद्धि शब्द ही जोड़ें। चक्रवर्ती ब्याज देना पड़ा तो बैंक कंगाल हो जाएगा। 

(62)
अलमबरदार : झंडा उठाने वाला 
नम्बरदार : अंग्रेजों के ज़माने में कर वसूलने वाला ज़मींदार, गाँव का मुखिया। 
इन दोनों शब्दों में भ्रम को स्थिति इसलिए उत्पन्न हो जाती है क्योंकि हमारे कुछ ग्रमीण क्षेत्रों में "नम्बरदार" को "लम्बरदार" बोला जाता है और "लम्बरदार" "अलमबरदार" से मिलती-जुलती ध्वनि देता है अंग्रेजों का शासन समाप्त होने के बाद बंगाल में नम्बरदारों के विरुद्ध सरकार ही अलमबरदार बन गई थी। 

(63)
बहु : (उपसर्ग से रूप में प्रयुक्त) बहुत, अधिक, ज़्यादा।  उदाहरण : बहुआयामी, बहुमान। 
बहू : (वधू का अपभ्रंश) पत्नी, दुल्हन 
उन्होंने गली-गली जाकर कहा कि राजीव की बहू को बहुमत मत देना। 

(64)
अंत्य + अक्षरी = अंत्याक्षरी 
इस शब्द को कुछ लोग अंताक्षरी लिखते बोलते हैं, जबकि यह वास्तव में अंत्याक्षरी है। 
इसमें अंत्य शब्द ठीक वैसे ही प्रयोग किया गया है जैसे अंत्योदय शब्द में किया गया है। 

(65) 
प्लेट्स : रकबियाँ, थालियाँ, पत्तलें, पट्टियाँ, पट्ट, 
प्लेटलेट्स : एक प्रकार की रक्त कोशिकाएँ 
जब किसी को डेंगू होता है तब डॉक्टर प्लेटलेट्स काउंट करवाने को कहता है, लेकिन हमारे देश में अनेक लोग प्लेट्स गिनवाने निकल पड़ते हैं। "जब किसी के प्लेटलेट्स कम हो जाते हैं तब उसे प्लेट में रखी चीजें नहीं, बल्कि गिलास में भरी चीज़ों का सेवन करना चाहिए।" 

(66)
शलजम (हिंदी) 
शलगम (फ़ारसी) 
ये दोनों शब्द समानार्थी हैं। यद्यपि इनमें कोई भी अशुद्ध नहीं है, फिर भी यदि हिन्दी के पास उसी अर्थ का, उसी मात्राभार का, उसी तुकांत का बिल्कुल वैसा ही शब्द है तो उसमें विदेशी शब्द प्रयोग करना उचित नहीं। मैं पुनः कह रहा हूँ कि दोनों ही शब्द सही हैं। 

(67)
उपलक्ष्य 
कोई ऐसा कारण अथवा विचार जिसको ध्यान में रखकर कोई बात कही जाए या कोई काम किया जाए, उपलक्ष्य कहलाता है। सामान्यतया सांस्कृतिक कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्र पर यह शब्द दिखाई देता है। किंतु कुछ जगह इसे 'उपलक्ष' लिखा जाने लगा है। यह उचित प्रयोग नहीं है। लक्ष शब्द का अर्थ है 'लाख की संख्या'। इसका उपलक्ष्य से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु प्रचलन के संक्रामक रोग के कारण यह प्रयुक्त होने लगा है। जबकि सही शब्द 'उपलक्ष्य' ही है। 

(68)
अंग्रेजी का मूड हिंदी का मुंड 
इन दोनों शब्दों के अर्थभ्रम से एक अजीब सा शब्द निर्मित हुआ। मुंड का अर्थभ्रम हुआ तो लोग इसे सिर का समानार्थी मानने लगे। 'सिर घूम जाना' मुहावरा धीरे-धीरे 'दिमाग़ घूम जाने' और 'दिमाग़ ख़राब होने' में बदल गया। उधर अंग्रेजी का 'MOOD OFF' हौले से हिंदी में प्रविष्ट हुआ। धीरे धीरे यह 'मूड ख़राब होने' के रूप में रूपांतरित हो गया। हिंदी बोलचाल में रचा बसा 'मूड' हिंदी के 'मुंड' से रूपसाम्य रखने के कारण कुछ क्षेत्रों में 'मूंड' का रूप धारण करके घूमने लगा। यदि आपने कभी किसी को 'मूंड ख़राब' कहते सुना है तो उससे मूड ऑफ़ करने की जगह, इस शब्द की यात्रा का आनन्द लो। 

(69)
तत्त्वावधान 
इस शब्द की वर्तनी में दो चूक अक्सर दिखाई देती हैं। प्रथम, 'तत्त्व' शब्द को 'तत्व' लिखा जाता है। दूसरा 'अवधान' शब्द को 'आधान' लिखा जाता है। इन दोनों से बचें और भविष्य में जब कोई कार्यक्रम हो तो उसे किसी के 'तत्त्वावधान' में ही आयोजित करें। 

(70)
दवाई / दवाइयाँ 
हिंदी में यदि एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए शब्द के अंत में 'याँ' या 'यों' जोड़ा जाता है तो मूल शब्द का अंतिम वर्ण ह्रस्व हो जाता है। 
दवाई : दवाइयाँ
भाई : भाइयों 
अधिकतर केमिस्ट अपनी दुकान पर "दवाईयां" लिखवाते हैं। इनकी दुकान से औषधि ख़रीदकर रोगी ठीक होगा या नहीं, यह तो ईश्वर जानता है; लेकिन भाषा के बचने की कोई संभावना नहीं है।

© चिराग़ जैन

Sunday, September 15, 2019

अपशकुनों का दोष

सागर खारा, नदिया सूखी 
ताल-तलैया में कीचड़ था 
लेकिन प्यास नहीं बुझने का, 
हर आरोप ओक ने झेला 

पेट अन्न को तरस रहा था 
और शिरा में रक्त नहीं था 
प्रेम व्यस्त था, प्रीत त्रस्त थी 
आलिंगन का वक़्त नहीं था
चिंताओं की धूप धरा की उर्वरता को सोख चुकी थी 
पर फिर भी बंध्या जीवन का, सारा दंश कोख़ ने झेला 

मुस्कानों में आडम्बर थे 
उत्सव थे कोरी मजबूरी 
हवन बिना मन के होते थे 
और अर्चना रही अधूरी 
श्रम ने भाग्य भरोसे रहकर, कोशिश का अपमान किया था 
लेकिन फिर भी अपशकुनों का, सारा दोष शोक ने झेला 

इन्द्रासन, त्रैलोक्य, अमरता 
शस्त्रों का संधान दे दिया 
मंशा की अनदेखी करके 
सबको ही वरदान दे दिया 
निशदिन कठिन साधना करके, असुरों ने वरदान जुटाए 
फिर इन सारे वरदानों का, हर अभिशाप लोक ने झेला 

© चिराग़ जैन

Saturday, September 14, 2019

चुभन

उथल-पुथल सी मची हुई है 
हल जीवन को रौंद रहा है 
शायद ईश्वर की आँखों में 
फिर से सावन कौंध रहा है 
जितना ज़्यादा जोता जाए, 
उतना सृजन निराला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा  

मिट्टी के कण-कण को निर्मम, दो बैलों के खुर कूटेंगे 
फाल निरंतर चोट करेगी, परतों के तन-मन टूटेंगे 
जिनमें फलने की इच्छा हो, उन बीजों को गड़ना होगा 
तब इस धरती के दामन में आशा के अंकुर फूटेंगे 
माटी का तन सीला होगा, 
धरती का मुँह काला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा 

दिन भर अम्बर आग उगलता, तब आती है शाम सलोनी 
फिर सूरज के छिप जाने को, हम कह देते हैं अनहोनी 
लेकिन ऐसी हर अनहोनी केवल आँखों का धोखा है 
दिन से किस दिन रात रुकी है, रातों ने कब दिन रोका है 
कुछ पल रात बितानी होगी, 
फिर भरपूर उजाला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा 

 © चिराग़ जैन

Saturday, September 7, 2019

शिखरों के आँसू

शिखरों के तो आँसू भी मीठी नदी बनकर प्यास के ओंठ तर करने के काम आते हैं।

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, September 5, 2019

शिक्षकों की परछाईं

जब हम शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं, तब शिक्षकों का ख़ूब उपहास करते हैं। कोई ऐसा शिक्षित न मिलेगा जिसने अपने शिक्षकों के विकृत नामकरण न किये हों। किन्तु जब हम संघर्ष की वीथियों पर चलते हैं, तब उन्हीं शिक्षकों के सामान्य व्यवहार में उच्चरित वाक्य हमारी समस्याओं का समाधान बन जाते हैं। यही कारण है कि उद्दण्ड से उद्दण्ड बालक भी जब परिपक्व होता है तो उसके हृदय में अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान अवश्य उपजता है।
मुझे अपने शिक्षकों से अपार दुलार मिला। अनेक शिक्षक ऐसे रहे जो मित्र बनकर मेरे जीवन के अभिन्न अंग बन गए। मेरे समवयस्कों में मेरे मित्र बहुत कम रहे, इसीलिए मुझे अपनी आयु से दस-बीस-तीस वर्ष अधिक के मित्र भरपूर मिले।
मैंने नवमीं कक्षा में दरियागंज के जैन स्कूल में प्रवेश लिया। वहाँ मुझे ऐसे-ऐसे शिक्षक मिले जिनके स्नेह और आचरण ने मेरे चरित्र का निर्माण किया। संस्कृत के अध्यापक आचार्य गिरीश पुरी गोस्वामी जी से मैंने भाषा का संस्कार और कठिन परिस्थितियों में संयत रहने का गुण सीखा। वे शब्दों के अपव्यय के विरोधी हैं, इसीलिए सही जगह पर बिल्कुल सही शब्द प्रयोग करना उन्होंने मुझे अपने आचरण से सिखा दिया। हिन्दी के अध्यापक श्री राजबल्लभ पचौरी के साथ मेरी घनिष्ठता सबको पता थी। वाद-विवाद से लेकर काव्यपाठ और भाषण तक जिस भी प्रतियोगिता में जाना हो, मुझे उसकी अनुमति में कभी कोई संकट नहीं आया क्योंकि पचौरी सर की ओर से मुझे अभय प्राप्त था।
मेरे क्लास टीचर भी मुझे ‘पचौरी जी का चेला’ कहते हुए खीझते हुए ही सही, लेकिन अनुमति दे ही देते थे। संगीत के अध्यापक श्री चन्द्रकान्त पाटणकर जी का मैं अधिकृत स्टूडेंट नहीं था किंतु ‘लोकोच्चार प्रतियोगिता’ के लिए उनकी जान खाने का अधिकार मुझे उन्होंने सहर्ष प्रदान किया था। एक हमारे अध्यापक थे श्री जी एस अग्रवाल। वे हमें भूगोल और इतिहास पढ़ाते थे। उन्होंने कभी किसी विद्यार्थी को डाँटा नहीं, लेकिन यदि किसी लड़के के प्रति उन्होंने खिन्नता प्रकट भी कर दी तो इससे फ़र्क़ पड़ता था। वे अपने शिक्षार्थियों के प्रति बेहद सजग थे। वे हमारे एक ऐसे अध्यापक थे, जो पाठ्यक्रम रटाते नहीं, बल्कि सिखाते थे। एक बहुत ग़ुस्सेवाले अध्यापक थे श्री वी एस राही। उनकी दहशत पूरे स्कूल के लड़कों को थी, लेकिन जब स्कूल से निवृत्त हुआ तो समझ आया कि उनकी सख़्ती ने हमारे जीवन में अनुशासन के ऐसे बीज बो दिए जिन पर पल्लवित आदतें हमारी सफलता की प्रशस्ति बन गई। इसी विद्यालय के परिसर में श्री राजकुमार चिटकारा से कम बोलकर ज़्यादा करने का गुण ग्रहण किया; श्रीमती अलका गुप्ता और श्रीमती अंजू रगता से अपने कार्य के अतिरिक्त अन्य विषयों में ऊर्जा नष्ट न करने का व्यवहार सीखा; श्री राजेश जैन और श्री पी दास से अपने विषय में पारंगत होने का महत्व समझा।
उपप्राचार्य श्री एस सी रस्तोगी से कुशल नेतृत्व की क्षमताएँ और प्राचार्य डॉ बी डी जैन से प्रबंधन की परिवक्वता हासिल की। विद्यालयों में जीवन भर श्रेष्ठ नागरिक तैयार करनेवाले इन अध्यापकों का आभार व्यक्त तो नहीं किया जा सकता, किन्तु आज अपने व्यक्तित्व की परतों का अन्वेषण करता हूँ तो अपने एक-एक शिक्षक को अपने व्यवहार की एक-एक परत में जीवित पाता हूँ।
स्कूल से निकलकर कॉलेज में गया तो वहाँ अनेक शिक्षक ऐसे मिले जिन्होंने व्यक्तित्व के रॉ फ्लैट को डेकोरेट करके शानदार बना दिया। मैं कभी नहीं भूल सकता कि वर्ष 2004 में मुझे ‘जनसंचार के सिद्धांत’ पढ़ानेवाली अतिथि प्रवक्ता श्रीमती ऋतु नानन पाण्डेय को जब यह पता चला कि मैं एक कवि सम्मेलन के लिए बेल्जियम पहुँच रहा हूँ, तो वे नीदरलैंड से अपने परिवार के साथ मुझसे मिलने बेल्जियम आ पहुँची। कवि सम्मेलन करके जब मैं होटल पहुँचा तो पता चला कि एक फैमिली पिछले 2 घण्टे से रिसेप्शन पर बैठी मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस घटना ने मुझे एक बार फिर सिखाया कि विनम्रता किसे कहते हैं।
एक और अतिथि प्रवक्ता डॉ संध्या गर्ग ने जीवन में मातृत्व की भूमिका अदा की। आज भी जीवन की हर चुनौती में उनके मार्गदर्शन से समाधान खोज ही लेता हूँ। आज शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं अपने सभी शिक्षकों का आभार व्यक्त करता हूँ जिनके कारण जीवन के इस दुर्गम पथ पर अनवरत बढ़ता जा रहा हूँ। आप भी तलाशिये, आपके भीतर भी आपके शिक्षक किसी न किसी ‘आदत’ के रूप में साँस ले रहे होंगे।

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 3, 2019

क्षमा : एक पर्व

क्षमावाणी मनुष्य इतिहास का सर्वाधिक वैज्ञानिक पर्व है। यह मनुष्यता के लिए सबसे आवश्यक त्योहार है। ‘क्षमा’ मानव के चरित्र निर्माण का सर्वाधिक प्रबल यंत्र है।
क्षमादान कठिन है किन्तु क्षमायाचना उससे भी अधिक कठिन है। क्षमा करनेवाले के पास कहीं न कहीं बड़प्पन का कोई अहंकार हो सकता है, किंतु क्षमा याचना करनेवाला तो हर अहम् से मुक्त होता है। क्षमा मांगने के लिए अहम् को तिरोहित कर देना अपरिहार्य है। जिसने यह कर लिया वह उत्सव का अनुभव कर सकता है।
‘क्षमा’ - लिखना कठिन है, बोलना और भी कठिन है, अनुभूत करना इससे भी अधिक कठिन है और क्षमा कर पाना सबसे कठिन है। व्यवहारिक धरातल पर जब हम जीवन की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं, उस समय स्थितप्रज्ञ रहकर विपरीत परिस्थितियों में अपनी सहजता को अक्षुण्ण रखना बेहद दूभर होता है। कई बार आपकी क्षमाशीलता को आपकी दुर्बलता समझ कर विपरीत पक्ष आपको प्रतिक्रिया हेतु विवश करता है। ज्ञानी कहते हैं कि सामनेवाला कुछ भी करे, आपको क्षमाशील बने रहना है। किन्तु मेरा मत है कि मनुष्य ने जितने भी संबंध निर्मित किये हैं, उनमें ‘क्षमा’ का संबंध एक ऐसा संबंध है जिसका द्विपक्षीय होना अपरिहार्य है।
यदि दूसरा पक्ष क्षमा के सूत्र में बंधने को तैयार न हो, और हम इकतरफ़ा क्षमा करते रहें तो धीरे-धीरे क्षमा करने वाले व्यक्ति में स्वयं के महान होने का सूक्ष्म अहंकार जन्म लेने लगता है। इसके जन्मते ही वह दूसरे को पहले मूर्ख और फिर तुच्छ समझने लगता है। और आगे बढ़ने पर घृणा जन्म लेती है, और अंततः स्थिति पुनः कटुता की ओर बढ़ जाती है। इसलिए क्षमा के संबंध को साधना है तो इकतरफ़ा निबाह से काम नहीं चल सकता।
साँप के काटने पर अहिंसक रहनेवाले तथागत का उदाहरण हमें याद रखना चाहिए किन्तु सौ गालियाँ देने वाले शिशुपाल का उदाहरण भी हमें नहीं बिसारना चाहिए। यह केवल अपने लिए ही आवश्यक नहीं है, अपितु ‘क्षमाभाव’ के वैभव हेतु भी अपरिहार्य है। यदि थोड़ा-सा ध्यान करेंगे तो हमें ऐसी परिस्थितियों के अनेक उदाहरण अपनी ही ज़िन्दगी के आसपास मिल जाएंगे।
जिस शस्त्र से शत्रु को परास्त करना हो, उसकी साधना और उसकी पड़ताल बेहद आवश्यक हैं। हमने ‘मुआफ़ी‘; ‘सॉरी’; ‘क्षमा’ जैसे शब्दों को इतना बेमआनी बनाकर रख दिया है कि न तो बोलनेवाले को इससे कोई फ़र्क़ पड़ता है, न ही सुननेवाले को।
जैनियों के पर्युषण पर्व इस शब्द को प्राणवान करने की साधना है। दस दिन के ये पर्व अवचेतन तक क्षमा के पहुँचने का मार्ग हैं। पहले दिन क्षमा का अर्थ समझना होता है, उसके बाद मार्दव, आर्जव आदि के माध्यम से चित्त को क्षमा मांगने योग्य बनाया जाता है, तब कहीं जाकर क्षमा ‘वाणी’ में साकार होती है।
एक बार मुख पर क्षमा विराजित हुई कि त्योहार हो गया, एक बार जिव्हा ने क्षमा चख ली तो फिर मन इतना हल्का हो गया कि वह नाच उठा। फिर अलग से ढोल-नगाड़े नहीं बुलाने पड़ते। फिर तो भीतर का संगीत झूम उठता है। जिन ग्रंथियों ने मन को जकड़ रखा था, वे इस एक शब्द की गूँज से विलीन हो गईं।
यह प्रयोग बेहद सार्थक है। यह आपने भी यकीनन कभी न कभी आज़माया ही होगा। यदि न आज़माया होता तो आप आज जीवित न होते। क्षमा के अभाव में जीवित रहना असंभव है। क्षमा के बिना जीवन ऐसे ही है जैसे किसी झल्लीवाले की पीठ पर लगातार बोझा बढ़ता रहे और उसे उतारने का कोई उपाय ही न किया जाए। फिर अधिक देर तक पीठ बोझा उठा न सकेगी। यह तो कमर टूट जाएगी या लकवा मार जाएगा। बोझा उतारा न गया तो झल्लीवाला यकीनन मर जाएगा।
हमारा मानस संसार में खड़ा यही झल्लीवाला है। दिन-प्रतिदिन के व्यावहार में इस पर बोझा बढ़ता जाता है। क्षमा मन का बोझा उतार देने का उपाय है। भीतर सड़ांध मारती ग्रंथियों से मुक्त होकर जीवन की सुवास भोगने का ज़रिया है। यही कारण है क्षमादान उतना आवश्यक नहीं जान पड़ता, जितना आवश्यक क्षमा याचना है।
अपने भीतर जो कचरा भर गया है, उसे कचरा मानने के लिए तैयार होना कठिन है। उसकी पहचान करके यह स्वीकार कर पाना कि हमने अपने भीतर कचरा रख लिया था- यह आसान काम नहीं है। इस मूर्खता के लिए सबसे पहले स्वयं से क्षमा मांगनी पड़ती है। इस विद्रूपता के लिए अपने आप पर हँसना पड़ता है। यह आसान नहीं होता। दूसरे पर हँसना बहुत आसान है, किंतु अपने आप पर हँसना बड़ा श्रमसाध्य काम है। लेकिन इस सोपान के बिना क्षमा का सुख भोगना नामुमकिन होगा।
‘क्षमावाणी’ पर्व के अवसर पर एकांत में बैठकर अपनी ग़लतियों को याद करना। अपने भीतर भरे द्वेष और घृणा के कचरे की पहचान करने का प्रयास करना। जिसके प्रति क्षोभ या अपराध बोध हो, उसके साथ घटित हुई सर्वाधिक कड़वी घटना को याद करना और फिर जिससे मांगनी हो, उसे व्यक्तिगत रूप से संपर्क करके पूरे चैतन्य मन से क्षमा याचना करना। अगर आज भी रेडीमेड क्षमा मांग ली तो यह पर्व निरर्थक रह जाएगा। अगर आज भी प्राणहीन क्षमा कर के रह गए तो पीठ का बोझा न उतर सकेगा। अगर आज भी खोखली औपचारिकता में फँसे रह गए तो मन को निर्ग्रंथ करने का स्वर्णिम अवसर हाथ से जाता रहेगा।

© चिराग़ जैन