Sunday, September 15, 2019

अपशकुनों का दोष

सागर खारा, नदिया सूखी 
ताल-तलैया में कीचड़ था 
लेकिन प्यास नहीं बुझने का, 
हर आरोप ओक ने झेला 

पेट अन्न को तरस रहा था 
और शिरा में रक्त नहीं था 
प्रेम व्यस्त था, प्रीत त्रस्त थी 
आलिंगन का वक़्त नहीं था
चिंताओं की धूप धरा की उर्वरता को सोख चुकी थी 
पर फिर भी बंध्या जीवन का, सारा दंश कोख़ ने झेला 

मुस्कानों में आडम्बर थे 
उत्सव थे कोरी मजबूरी 
हवन बिना मन के होते थे 
और अर्चना रही अधूरी 
श्रम ने भाग्य भरोसे रहकर, कोशिश का अपमान किया था 
लेकिन फिर भी अपशकुनों का, सारा दोष शोक ने झेला 

इन्द्रासन, त्रैलोक्य, अमरता 
शस्त्रों का संधान दे दिया 
मंशा की अनदेखी करके 
सबको ही वरदान दे दिया 
निशदिन कठिन साधना करके, असुरों ने वरदान जुटाए 
फिर इन सारे वरदानों का, हर अभिशाप लोक ने झेला 

© चिराग़ जैन

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