Saturday, September 14, 2019

चुभन

उथल-पुथल सी मची हुई है 
हल जीवन को रौंद रहा है 
शायद ईश्वर की आँखों में 
फिर से सावन कौंध रहा है 
जितना ज़्यादा जोता जाए, 
उतना सृजन निराला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा  

मिट्टी के कण-कण को निर्मम, दो बैलों के खुर कूटेंगे 
फाल निरंतर चोट करेगी, परतों के तन-मन टूटेंगे 
जिनमें फलने की इच्छा हो, उन बीजों को गड़ना होगा 
तब इस धरती के दामन में आशा के अंकुर फूटेंगे 
माटी का तन सीला होगा, 
धरती का मुँह काला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा 

दिन भर अम्बर आग उगलता, तब आती है शाम सलोनी 
फिर सूरज के छिप जाने को, हम कह देते हैं अनहोनी 
लेकिन ऐसी हर अनहोनी केवल आँखों का धोखा है 
दिन से किस दिन रात रुकी है, रातों ने कब दिन रोका है 
कुछ पल रात बितानी होगी, 
फिर भरपूर उजाला होगा 
जब-जब खेत चुभन झेलेगा, 
तब-तब ही हरियाला होगा 

 © चिराग़ जैन

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