Thursday, September 26, 2019

आईआईटी रुड़की का कवि सम्मेलन

आईआईटी रुड़की का कवि सम्मेलन था। सभागार में तिल रखने को जगह नहीं थी। मंच पर डॉ गोविंद व्यास, श्री मनोहर मनोज, श्री अरुण जैमिनी, श्री अंसार कम्बरी और मैं आमंत्रित कवियों के रूप में विराजमान थे। तीन कवि रुड़की स्थानीय कवियों के रूप में मंचासीन थे और दो युवक विद्यार्थी कवियों के रूप में।
संचालन प्रारंभ किया तो संस्थान में भूगोल विषय पर शोध कर रहे दिव्यांशु दीक्षित से शुरुआत कराई। पहले ही मुक्तक में दिव्यांशु ने मंत्रमुग्ध कर दिया-

मौन भी स्वर हो गए अब लौट आओ
प्रश्न उत्तर हो गए अब लौट आओ
फूल जल तुमने चढ़ाया पत्थरों पर
प्राण पत्थर हो गए अब लौट आओ

कथ्य और भाषा, दोनों उम्मीद से बेहतर थी। फिर भीतर के क्षुद्र अहंकार ने स्वप्न देखा कि शायद गीत कमज़ोर होगा। लेकिन गीत ने भी मेरे भीतर के अहंकार को चूर-चूर किया... अहा, क्या बिंबविधान था...

प्रेम में उतरा, तभी कठिनाइयाँ स्वीकार कर लीं
ज़िन्दगी की भँवर क्या, जब नयन झीलें पार कर लीं

उफ्फ... भूगोल का शोधार्थी, मन की इतनी गहरी परतों को खोलकर छू सकेगा.. यह मेरी कल्पना से परे था। जियो दिव्यांशु, तुम सबकी नज़रों में आओ, किन्तु तुम्हारी दिव्यता को किसी की नज़र न लगे। दिव्यांशु के काव्यपाठ का सम्मोहन अभी टूटा भी न था, कि संस्थान के पर्यवेक्षक श्री महावीर ने दार्शनिक मुक्तकों से मंच और श्रोतादीर्घा को चमत्कृत किया। अद्भुत मनोदशा थी, जितना सुनता जाता था, उतनी ही प्यास बढ़ती जाती थी। जब हेमन्त मोहन ने ग़ज़लें पढ़नी शुरू कीं तो ऐसा लगा, ज्यों प्रतिभा अपने विश्वरूप के दर्शन करा रही हो। आँखें अपलक हो चली थीं और तन अकम्पित! और फिर एक शेर ने तो श्रेष्ठता के चरम को छू लिया-

क़ैदख़ानों को बड़ा करते रहें
लोग समझेंगे कि वो आज़ाद हैं

अहा.. रोम-रोम खिल उठा। कितने पुण्यों से ये दो मिसरे हेमन्त मोहन को मिले होंगे। ईश्वर इस लाजवाब शायर को ख़ूब आशीष दे! इसके बाद भी मंच काव्य से लबरेज ही रहा, विश्वकर्मा के प्रांगण में सरस्वती के इन लाडलों की उपस्थिति ऐसी ही थी मानो लंका नगरी की किसी कुटिया में रामभक्त मिल गया हो।

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