भारत का भविष्य न तो उन अराजकों से प्रश्न पूछेगा, जो बंदूकें लहराते हुए 'हीरो' बनने का सपना पाल रहे हैं; न ही उन छुटभैये लीडरों से सवाल करने जाएगा, जो दंगे भड़काकर राष्ट्रीय टेलिविज़न की सुर्ख़ियों में दर्ज होने का ख़्वाब देख रहे हैं। आने वाली पीढ़ियों के सामने यदि सामाजिक विद्वेष की कहानी का कोई भी पन्ना फड़फड़ाया तो वह काग़ज़ का एक टुकड़ा उस महान संस्कृति के लिए कठघरा बन जाएगा, जो स्वयं के विश्वगुरु होने का दम भरती है। जो लोग इन दंगों में मारे गए हैं, उनके वंशजों को जब भारतीय संस्कृति की महानता की कहानी पढ़ाई जाएगी तब उनकी आँखों में घृणा मिश्रित आश्चर्य दहक उठेगा। फिर उसी घृणा को आधार बनाकर तब के राजनैतिक मनसूबे साधे जाएंगे।
जब कोई हमें वर्तमान की स्थितियों पर उकसाने में सफल नहीं हो पाता तब वह इतिहास का ही कोई पन्ना फाड़कर हवाओं में उस पर दर्ज नफ़रतों का धुआँ घोलने लगता है। जातीय विद्वेष की वर्तमान स्थिति इस अभ्यास का प्रमाण है। पीढ़ियों पहले किसी वर्ग विशेष द्वारा किसी व्यक्ति विशेष पर किया गया अन्याय आज जातीय घृणा की प्राणवायु बन गया है।
शम्बूक के वंशजों को यह बताया जाता है कि देखो तुम्हारे पुरखे के साथ कितना अन्याय किया गया। और राम के वंशजों को यह बताया जाता है कि तुम्हारे पुरखों ने शबरी और निषाद को गले लगाया फिर भी इन लोगों को संतोष नहीं मिलता। ये पन्ने लहराने वाले उनसे ज़्यादा ख़तरनाक़ हैं, जो सड़क पर बंदूक लहरा रहे हैं। इसीलिए भविष्य बंदूकों से नहीं, पन्नों से पृष्ठ पूछेगा। जिन्होंने बंदूक उठा ली, जिन्होंने पत्थर फेंके, जिन्होंने आग लगाई और जिन्होंने लूटपाट की वे सब आज नहीं तो कल पकड़े जाएंगे, आज नहीं तो कल मर जाएंगे।
उनके प्रति किसी के मन में कोई दया भी नहीं होगी। उनके पक्ष में भी कोई खड़ा न होगा। लेकिन जिन्होंने बंदूक उठवाई, जिन्होंने घृणा से भरे लेख लिखे, जिन्होंने आग में घी डाला, जिन्होंने नफ़रत के पन्ने लहराए उन सबकी बातें कभी नहीं मरेंगी। उन सबके शब्द हमेशा वातावरण में मंडराते रहेंगे।
भूखे से रोटी छीनना तो अपराध है लेकिन भूखे के सामने रोटी का गुणगान करना पाप है। क़ानून केवल अपराध का दंड देता है लेकिन पाप का दंड पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। जब समुंदर उफ़ान पर हो तब उसमें और पानी डालने वालों भी उतना ही ख़तरा होता है, जितना उसमें से पानी निकालने वालों को। जब कोई मुद्दा गर्म हो तब उसके पक्ष में बोलना भी उतना ही नुकसानदायी है जितना उसके विरोध में बोलना।
कई बार मौन से स्थितियां आसान हो जाती हैं। अराजकता का उद्देश्य होता है कि वह ध्यान आकर्षण करे। यदि उस पर ध्यान दिया जाए या उस पर चर्चा की जाए तो वह प्रोत्साहित होती है। हमें सोशल मीडिया और न्यूज़ मीडिया को सकारात्मकता की ख़बरों से पाटने की ज़रूरत है। हमें अपनी हर पोस्ट से यह संदेश देना होगा कि चर्चाओं में रहना है तो बुराई का रास्ता छोड़ना होगा। मांग कोई भी हो, अगर उसको कहने का सलीका विधि-सम्मत नहीं होगा तो उसे अखबारों में नहीं छापा जाएगा। उपद्रव के समाधान हेतु सरकारी तंत्र तो सक्रिय होगा लेकिन मीडिया उसके समाचारों की पल-पल रिपोर्टिंग करके उसे प्रोत्साहित नहीं करेगा। हमारे व्हाट्सएप्प से कोई भी ऐसा समाचार प्रसारित नहीं होगा जो किसी उपद्रव का प्रचार करता हो।
'बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा' - यह डायलॉग उनकी सोच को संचालित करता है तो हम उनका ज़िक्र करना छोड़ दें। जिसकी चर्चा करना छोड़ दो वह हमारे मस्तिष्क से बाहर हो जाता है। हमें इन नकारात्मकताओं को इतिहास से बाहर करना है तो इसके लिए पहला क़दम यही होगा कि इन्हें चर्चाओं से बाहर किया जाए। यदि इनकी चर्चा बन्द हो गई तो वे मनसूबे भी मर जाएंगे जो इन लपटों पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं, और वे कुंठाएं भी मर जाएंगी जो पीढ़ियों पहले हुई किसी घटना की टीस से वर्तमान को सड़कों पर नंगा करने में जुटी हैं।फिर भविष्य के पास इतिहास को कोई सफ़हा उड़ता हुआ पहुँचेगा तो उससे सद्भाव की ख़ुशबू आएगी, पथराव की दुर्गंध नहीं।
© चिराग़ जैन
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