Friday, November 18, 2016

पगडण्डी और राजमार्ग

पगडण्डी को छूकर निकला राजमार्ग कुछ देर
त्यौरी पिघलीं, आँखें चमकीं, चिंता हो गई ढेर

तेज़ दौड़ते वीराने को भाया दृश्य सुहाना
चैपालों को हंसी-ठहाका, पनिहारिन का गाना
बूढ़ा बरगद, मीठी पोखर और पशुओं का घेर

मन में कितनी ठंडक उतरी, कैसे मैं बतलाऊँ
जब सूखी आंखों ने देखी, मटके वाली प्याऊ
होंठ नहीं गीले कर पाते फ्रिज से सेठ-कुबेर

पगडण्डी से चलकर आती हैं जब मस्त हवाएँ
राजमार्ग का मन करता है, यहीं कहीं बस जाएं
अमराई में खाट डाल कर सुस्ता लें कुछ देर

यूं तो कितनी शहरी सड़कें आगे-पीछे घूमें
हर आगे बढ़ने वाले को आगे बढ़कर चूमें
पगडण्डी चखकर लाई है मीठे-मीठे बेर

सड़क कभी इस राजमार्ग से मिले कभी उस मग से
पगडण्डी इक बार परस ले जिसको भी निज पग से
फिर मुश्किल है पैदा होना उसके मन में फेर

सड़क लांघ जाती है अक्सर राजमार्ग का सीना
पगडण्डी ने मर्यादा की सीमा कभी तजी ना
रोज़ सबेरे ले आती है पत्ते-फूल सकेर

सड़क विदा के समय अकड़ कर दूर चली जाती है
पगडण्डी सहमी-ठिठकी सी खड़ी नज़र आती है
राजमार्ग को ही जाना पड़ता है नज़रे फेर

मिला हाँफते राजमार्ग को ज्ञान यहाँ अलबेला
बहुत तेज़ जो दौड़ा इक दिन वो रह गया अकेला
काम सभी पूरे हो जाते थोड़ी देर-सबेर

© चिराग़ जैन

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