Thursday, November 10, 2016

नोटबंदी

हमारी कल्पना शक्ति अद्भुत है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नोट जारी करने की बात कही और हमने कल्पनाएँ शुरू कर दी। बातें बनाने में हमें बहुत मज़ा आता है। ऐसी ही बातों के दम पर मोदी जी को चमत्कार पुरुष मानने की परम्परा चल निकली है।

आँखें बड़ी करके होंठों को गोल करके किस्से सुनाते-सुनाते हम अपने प्रधानमंत्री को पुरानी हिंदी फ़िल्म के उस नायक की तरह समझ बैठे हैं जो बेसिर-पैर की विलक्षण शक्तियों से युक्त होता था। ऐसा हम कई सामाजिक तथा राजनैतिक व्यक्तित्वों के साथ पहले भी कर चुके हैं लेकिन इस बार विशेष यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री जी भी ख़ुद को किसी पुरानी हिंदी फ़िल्म का नायक मान चुके हैं।

सवा सौ करोड़ लोगों के देश को चलाने के लिए वे लगभग उन्हीं रास्तों का प्रयोग कर रहे हैं जैसे कोई घर-घर खेल रहा हो। स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय देने से लेकर देश की मुद्रा को "गैरकानूनी" घोषित करने तक का उनका जो अंदाज़ है उससे एक बात स्पष्ट है कि रजनीकांत की फ़िल्में देखते हुए वे निश्चित ही तकिया गोदी में रखकर उसे भींच डालते होंगे।

काला धन बाहर निकलवाने का उनका विचार स्तुत्य है किन्तु इतने बड़े राष्ट्र को अचानक मुद्रा विहीन कर देना समझ से परे है। जिन मूल्यों के करेंसी नोट्स को बंद किया गया उसके बाद पूरा देश "एक दिन के लिये ही सही" अर्थहीन हो गया। इस एक दिन को "सिर्फ एक दिन" कहकर टालने से पूर्व हमें यह जान लेना चाहिए कि इस देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दिन भर मेहनत करके शाम को सिर्फ एक दिन के गुज़ारे भर का अर्थ जुटा पाता है; आज लिक्विड मनी की किल्लत के कारण उसके घर चूल्हा नहीं जल पाया होगा।

केमिस्ट 500 का नोट लेने को तैयार है लेकिन उसके पास बाकी बचे रुपये देने को सौ के नोट नहीं हैं। सब्ज़ी वाला, मदर डेयरी, चाय वाला, परचुनिया, पनवाड़ी, खोमचेवाला और यहाँ तक कि पुलिसवालों के समक्ष भी चालान काटने पर खुले पैसों की चुनौती है।

शादी-विवाह का मौसम है। जिसे आज बेटी विदा करनी है उसे कल रात 8 बजे अचानक प्रधानमंत्री जी ने बताया कि उधार लेकर, बैंक से आहरित कर या अन्य उपायों से उसने विवाह के हेतु जो धन जुटाया था वह सब गैरकानूनी है। यहाँ यह व्यवहारिक तथ्य भी ज्ञात हो, कि इस देश में बहन-बेटी को शगुन दिया जाता है जिसके लिए चेकबुक या NEFT/RTGS कराने की परंपरा नहीं है।

यद्यपि हमारे वित्त मंत्री जी बजट भाषण के दौरान यह स्पष्ट बोल चुके हैं कि "मिडिल क्लास" अपना ध्यान खुद रखे, तथापि इस सरकारसे यह प्रश्न करने का तो मन करता है कि मध्यमवर्गीय जनता के जीवन को सुगम नहीं बना सकते तो उसकी जीवनचर्या को जटिल करने का आपको क्या अधिकार है?

सवा सौ करोड़ लोगों के देश में तीन-चार प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो करोड़ों के टर्न-ओवर की हैसियत रखते हैं। शेष जनता जीवन की मूलभूत चुनौतियों से जूझने में इतनी व्यस्त है कि लाखों-करोड़ों का हेर-फेर करने की फुरसत उसे मिल नहीं पाती। चार लोगों की खामियाँ टटोलने के लिए छियानवे लोगों को साँसत में ले आना यदि शासक को सफलता का पैमाना जान पड़ता है तो यह आश्चर्यजनक है।

स्विस बैंकों में जिन मोटी मछलियों ने डेरा डाल रखा है उनके नाम उजागर करके उस धन को जनसम्पत्ति घोषित करके देश की आर्थिक स्थिति सुधारने की बजाय देश को मुद्राविहीन कर देना क्या वास्तव में राजनैतिक पौरुष का परिचायक है?

मैं कड़े निर्णयों का विरोधी नहीं हूँ। न ही दो नंबर के पैसे का हितैषी हूँ। प्रधानमंत्री जी की नेकनीयती पर भी मुझे तनिक संदेह नहीं है लेकिन एक विचारशील नागरिक होने के नाते मैं यह अपेक्षा अवश्य करता हूँ कि माननीय नरेंद्र मोदी जी से जिन आँखों ने उम्मीदें जोड़ी हैं उनमें आख़िरी पायदान पर खड़ा वह व्यक्ति भी है जिसकी आवाज़ में विवशताओं की आह से अधिक ध्वन्योर्जा नहीं है। 

डिस्क्लेमर : जल्दबाज़ी में ऊल-जलूल टिप्पणी करने वाले जान लें कि यह लेख मोदी जी के विरोध में नहीं अपितु लोकतंत्र के समर्थन में है। इसलिए तर्कहीन चलताऊ किस्म की श्रद्धापूरित बातें लिखकर अपने चश्मे के शीशे का रंग न बताएं। 

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment