Saturday, January 29, 2022

रमेश मुस्कान

‘रमेश मुस्कान’ -यह किसी व्यक्ति का नहीं, एक प्रवृत्ति का नाम है। ज़िन्दगी उन्हें कितनी ही सैड सिचुएशन दे, वे उसको ठहाके की ओर मोड़कर उसका ‘दी एन्ड’ करने में माहिर हैं।
कई बार कुछ लोगों को देखकर ऐसा लगता है कि इनके जीवन में कोई चुनौती, कोई परेशानी है ही नहीं। लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इन लोगों की आँखों का निचला हिस्सा ढेर सारा पानी रोके हुए है। निरंतर ठहाके लगाकर ये लोग अपनी अलकों के बांध से उस पानी को रोके रखने में सफल हो जाते हैं।
इनके ठहाके इतने प्रभावी इसलिए होते हैं कि इनमें बनावट की कोई गुंजाइश नहीं होती। हँसने के लिए मनुष्य का अतिरिक्त बुद्धिमान होना आवश्यक है। यदि आपमें लतीफ़ा समझने जितनी बुद्धि न हो तो लतीफ़ा आपके होंठों पर हँसी रखने की बजाय पेशानी पर परेशानी रख देगा।
ज़िन्दगी भी हमें हर घड़ी लतीफ़ा सुना रही होती है। मुझ जैसे मूर्ख लोगों को वह लतीफ़ा समझ नहीं आता और मैं उसे समझने की जुगत में परेशान दिखने लगता हूँ। बाद में जब परिस्थिति बीत जाती है तब मैं उसी बात पर ख़ूब हँसता हूँ, जिसने मुझे कभी परेशान किया था। रमेश मुस्कान सरीखे लोगों का आई-क्यू लेवल इतना हाई है कि ये ज़िन्दगी के लतीफ़े को झटपट समझ लेते हैं और हमेशा ज़िन्दगी के साथ खिलखिलाते हुए पाए जाते हैं।
कुछ वर्ष पहले रमेश मुस्कान का भयंकर एक्सीडेंट हुआ। टक्कर इतनी भयावह थी कि एक टांग की हड्डी दल बदलकर कूल्हे की हड्डी में घुस गयी। डॉक्टर साहब ने भूलवश एनेस्थीसिया की दवा का असर पूरी तरह होने से पहले ही सर्जरी शुरू कर दी। दर्द की इस चरम सिचुएशन में डॉक्टर को अपने होशो-हवास की इत्तला देने की बजाय ये ऋषिकेश मुखर्जी इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि डॉक्टर को हँसाने का अवसर कब मिलेगा। कुछ समय बाद डॉक्टर साहब किसी बात से परेशान होकर अपने सहायक पर झल्लाने लगे। रमेश जी झट से बोल उठे- ‘डॉक्टर साहब, मैं कुछ हेल्प कर दूँ?’
एक क्षण के लिए डॉक्टर सन्न रह गया और फिर दोबारा एनेस्थीसिया लगवाकर सर्जरी को आगे बढ़ाया। लेकिन इस एक पंक्ति ने ऑपरेशन थियेटर के सारे तनाव को छू-मंतर कर दिया।
आर्थिक चुनौती हो या व्यावसायिक चुनौती; रमेश मुस्कान हर स्थिति में मस्त रहने की कला जानते हैं। उनके साथ वक़्त गुज़ारना किसी पैट्रोल पम्प पर अपनी ऊर्जा का टैंक फुल कराने जैसा अनुभव है। उनकी सलाह हमेशा लाजवाब होती है क्योंकि वे चश्मा आँखों पर नहीं, माथे पर लगाए फिरते हैं।

-चिराग़ जैन

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