Wednesday, January 12, 2022

बाँसुरी : माधुर्य की गंगोत्री

बाँसुरी मेरा प्रिय वाद्य है। अपनी ख़ामियों को ख़ूबी बना लेने का श्रेष्ठतम उदाहरण है बाँसुरी। बाँस के खोखलेपन से सुर निकाल लेने का चमत्कार है बाँसुरी।
श्वास की लिपि से मन की भाषा बोलने का यंत्र है बाँसुरी। अंगुलियों पर थिरकते सुरों को उच्छ्वास की ऊष्मा से मीठा करने का जादू है बाँसुरीवादन।
जब कोई बंसी बजाता है तो उसके नयन स्वतः मुंद जाते हैं। पलक गिरते ही भीतर आनन्द का महारास प्रारम्भ होता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर केवल अधरों को बाँसुरी बजाते देखा जा सकता है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो हम पाएंगे कि अधर ही नहीं; अंगुलियाँ, कान, मस्तिष्क, मन और आत्मा तक सब मिलकर बाँस की इस पोरी को रसाल-सा मीठा करने में जुट जाते हैं।
श्वास चौकन्नी रहती है कि कहीं उसके आधिक्य से सुर न बिगड़ जाए। अंगुलियाँ सावधान रहती हैं कि ज़रा-सी इधर-उधर हुई तो तान में व्यवधान हो जाएगा। पलकें बन्द होकर ध्यान से सबकी चौकसी करने में तल्लीन ही जाती हैं। मन तान की सर्जना करता है और कान उसके साकार होने पर हर्ष की रोमावली को जागृत कर देते हैं।
गहरे ध्यान में उतरने की संगीतमयी वीथि है बाँसुरी। भीतर घटित हुए अनहद नाद का सुरावतार है बाँसुरी वादन। संगीत की सर्वाधिक मुँहलगी विधा है बाँसुरी वादन।
जब बाँसुरी बजती है तो पूरा परिवेश कलात्मक हो उठता है। दसों अंगुलियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो दस गन्धर्व किसी बाँस के पुल पर लास्य कर रहे हों। ओंठ की मुद्रा देखकर ऐसा लगता है ज्यों अनंग ने अपने पुष्पधनु पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे तान दिया हो। ग्रीवा हौले से एक दिशा में घूमकर कोई नाट्यमुद्रा की छवि प्रस्तुत करती है।
कुल मिलाकर सब कुछ मधुर हो जाता है। शायद इसीलिए वंशवाले कन्हैया के लिए कहा जा सका- ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरं!’

© चिराग़ जैन

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