सावधान देश के कर्णधारो!
सम्मेद शिखर के मुद्दे पर जैन समाज के साथ जो व्यवहार हो रहा है, वह घर के एक और बेटे को घर से बाहर कर देने का षड्यंत्र है। भारत के लगभग सभी सामाजिक संगठनों में तन-मन-धन से योगदान देनेवाले जैनियों ने कभी स्वयं को सनातनियों से अलग नहीं माना। व्यवसाय, व्यापार और नौकरी-पेशों से आजीविका जुटानेवाले जैनियों ने मंदिर, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, धर्मशालाएं, अनाथालय, वृद्धाश्रम, गौशाला और न जाने कितने ही लोककल्याणकारी प्रकल्पों की स्थापना की है। वैष्णोदेवी, बांकेबिहारी, काशी विश्वनाथ, खाटूश्याम, जगन्नाथजी, केदारनाथ, हरिद्वार, शिरडी, कामाख्या, स्वर्ण मंदिर और अन्य तमाम तीर्थस्थलों पर जैन समाज ने न केवल श्रद्धा से शीश झुकाया है, अपितु क्षेत्र के विकास हेतु उन्मुक्त हृदय से योगदान भी दिया है। अयोध्या के राम मन्दिर आंदोलन में जैन समाज मंदिर निर्माण की मांग करनेवालों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चला।
आस्था, उत्सव, संयम और अहिंसा की जीवनशैली वाले इस समाज ने न तो कभी इस देश के संविधान का अपमान किया न ही नागरिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया। न कभी अपनी आस्थाएं किसी पर थोपने की कोशिश की और न ही कभी किसी की आस्थाओं को ढकोसला कहने का कार्य किया। अनुशासित इतने कि श्रवणबेलगोला में लाखों लोग जुटते हैं लेकिन कभी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। जैन साधुओं के चातुर्मास, पंचकल्याणक, पर्युषण पर्व और महावीर जयंती के महोत्सव में हज़ारों-लाखों की भीड़ जुटती है, लेकिन कभी कहीं अतिरिक्त पुलिसकर्मियों की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
देश के संचालन हेतु ईमानदारी से अपना टैक्स जमा कराने वालों में जैन समाज अग्रणी है। भारतीय शौर्य के प्रतीक महाराणा प्रताप के टूटते आत्मबल को संबल देने के लिए अपनी पूंजी का तिनका-तिनका लुटा देनेवाले भामाशाह के के वंशज आज इस देश में अपनी आस्थाओं की रक्षा हेतु आंदोलन करने पर विवश हैं। गुरु के साहबज़ादों की ससम्मान अंत्येष्टि के लिए सोने की मोहरें बिछाकर आततायी का अहंकार तोड़नेवाले टोडरमल के बेटे आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं। देश की आज़ादी के लिए अपने सीने पर लाठी खानेवाले लाला लाजपत राय के नौनिहालों से उनकी श्रद्धा का मेरुदंड छीना जा रहा है। मानस की चौपाइयों को अपने सुर और स्वर से सजानेवाले रवीन्द्र जैन का कुनबा आज चीखने को विवश है। अंतरिक्ष में भारतीय वैभव का ध्वज फहरानेवाले विक्रम साराभाई के कुटुम्बी आज सत्ता से अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
प्रश्न झारखंड की सरकार या केंद्र की सरकार का नहीं है। प्रश्न यह है कि जब गिरनार के उर्जयन्त गिरी पर्वत को जैनियों से छीनकर 'हिन्दू तीर्थ' घोषित किया गया था, क्या तब जैन समाज की भावनाओं का किसी सत्ताधारी को रत्तीभर भी ख्याल आया था? प्रश्न यह है कि क्या उस समय जैन धर्मावलंबियों के साथ ठीक वही दुर्व्यवहार नहीं किया गया था, जो आक्रमणकारी मुग़लों के साथ किया जाता है?
और अब सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल घोषित करने का सरकारी दुस्साहस!
जैन समाज न तो कहीं बाहर से आक्रमण करके इस देश में आया है और न ही किसी तरह की विदेशी ताकतों के इशारे पर संचालित है। जैन संस्कृति न केवल इस देश की धरती पर उपजी है अपितु अपने स्वेद से इस देश को सींचने में भी उल्लेखनीय योगदान देती रही है। भोज, बिम्बिसार, अशोक और चन्द्रगुप्त सरीखे राजनैतिक पौरुष से जैन समाज ने इस देश का निर्माण किया है।
मान्यताओं का मतभेद हो तो हो, लेकिन हमारे पुरखों और हिन्दुओं के पुरखों में भी कहीं कोई भेद नहीं है। इसलिए शिखर जी की शुचिता को अक्षुण्ण रखने के लिए जारी इस आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में भारत के वर्तमान सत्ताधीश यह बात अच्छी तरह से मन में बैठा लें कि यदि जैन समाज को पराया सिद्ध करने का कोई प्रयास किया गया तो अहिंसा की साधना करनेवाला यह समाज अहिंसा और अनुशासन से बड़ी से बड़ी साज़िश की चूल हिलाने में सक्षम है। यह याद रहे कि असहयोग और सविनय अवज्ञा सरीखे अहिंसक अस्त्रों का प्रभाव पहले भी इस देश ने देखा है। यह याद रहे कि सीने पर लाठी खाकर अपने प्राण देने वाले लालाजी के हाथ में कोई हथियार नहीं था, लेकिन उनकी मृत्यु से उपजी ज्वाला ने ब्रितानिया शासन का भविष्य फूँक कर रख दिया। याद रहे कि भीतरी यात्रा में निमग्न शांत तपस्वियों की साधना भंग करनेवाले कालयवन, उन्हीं की नयनोर्जा से भस्म हो जाते हैं। याद रहे कि वर्चस्व की होड़ करनेवाला अंततः अपने अस्तित्व से हाथ धो बैठता है।
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सत्ताधीशो!
गिरिडीह में मधुबन से पारसनाथ पर्वत की ओर जानेवाली सड़क पर पांव रखते ही जैन धर्मावलंबियों के अंतःकरण में सम्मेद शिखर की आस्था का अनहद नाद गूंजने लगता है। गुणायतन, तेरापंथी कोठी, भूमिया जी, बीसपंथी कोठी और विमल समाधि मंदिर के दर्शन करते हुए जब कोई जैन तीर्थयात्री सम्मेद शिखर की यात्रा प्रारम्भ करता है, उस क्षण उसकी शिराओं में पावनता का एहसास प्रवाहित होने लगता है।
वैभव और संपन्नता का जीवन जीनेवाला जैन समुदाय बहुत कम सुविधाओं के बावजूद शिखर जी की यात्रा में अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है। अर्थ के बल पर अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त होटल और परिसर बनवा लेना जैनियों के लिए बिल्कुल भी कठिन नहीं है, किंतु इन सुविधाओं के साथ इस क्षेत्र की पावनता के सम्मुख जो संकट उत्पन्न होगा; उसके लिए जैन समाज का कोई भी नुमाइंदा कभी तैयार नहीं हो सकता।
सम्मेद शिखर हमारे लिए एक तीर्थक्षेत्र ही नहीं अपितु दैवीय ऊर्जा का एक भंडारगृह भी है। सत्तू, गुलदाना और बेसन के सेव खाकर पर्वत की जो कठिन यात्रा जैन मतावलंबी करते हैं उसे 'यात्रा' नहीं, 'वंदना' कहा जाता है।
यह अकेली संज्ञा ही जैन समाज के लिए इस तीर्थक्षेत्र का महत्व स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। अपनी काया से इस दुर्गम पर्वत की यात्रा को 'वंदना' कहा जाता है। इसका तात्पर्य है कि हमारे लिए यह पूरा पर्वत एक वेदी है, जिस पर अपनी काया के संपूर्ण अस्तित्व के समर्पण के साथ 'वंदना की जाती है।
सुनने में आया है कि झारखंड सरकार इस पर्वत को पर्यटन क्षेत्र घोषित करने जा रही है। यह सुनना जैन समाज के लिए ठीक ऐसे ही है, ज्यों कोई हमारे देवता को शो-पीस कहकर बेचने की बात कर रहा हो। जैसे कोई आस्था की किसी हाट में कीमत लगा रहा हो।
पर्यटन इन्द्रियों की लिप्सा की पुष्टि करता है और अध्यात्म इन्द्रियों को जीतने की राह दिखाता है। इन दोनों विरोधाभासी विषयों को एक साथ रखना कम से कम आस्था के अस्तित्व पर तो कुठाराघात होगा ही होगा।
जैन समाज भगवान महावीर के सिद्धांतों का अनुगामी है। पारसनाथ पर्वत पर न हिम है, न ही वन्यजीव! इस पर्वत की यात्रा का मार्ग भी बहुत रमणीक नहीं है। आस्थाओं के कुछ केंद्र यहाँ अवश्य हैं, जिनकी सादगी और एकरूपता आपके 'भौतिक पर्यटकों' का मनोरंजन करने में सक्षम नहीं हैं। इस क्षेत्र की सादगी का अर्थ अध्यात्म के बटोही को समझ आता है। इसलिए इसे पर्यटक स्थल घोषित करना सरकार की एक अपरिपक्व तथा अनावश्यक सोच का उदाहरण बनेगा।
भारत आस्थाओं का देश है। जैन दर्शन और जैन समाज ने देश के उन्नयन हेतु अग्रिम पंक्ति में रहकर सेवा की है। देश के अर्थ की जड़ों को अपने स्वेद से सींचनेवाला जैन समुदाय पूरे विश्व में शान्तिप्रिय जीवनशैली के लिए जाना जाता है। ऐसे में यदि जैन समाज को अपने तीर्थक्षेत्र की शुद्धता को बचाने के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है तो यह विषय समूचे भारतीय समाज की सोच पर प्रश्नचिह्न जड़ देगा।
जैन समाज आहत है। अहिंसा के अनुगामी अनशन और आंदोलन की राह पर निकल पड़े हैं। भामाशाह के बेटे अपनी श्रद्धा की शुचिता मांग रहे हैं। देश के राजनैतिक सिंहासन पर उनका राज है, जो आस्था और धार्मिक भावना का अर्थ भी समझते हैं और ताकत भी!
ऐसे मे सरकार को चाहिए कि पर्यटन की चकाचौंध से जैन समाज के इस आस्था केंद्र को दूर रखे क्योंकि आत्मा के स्तर पर घटित होनेवाली लौ की ज्योति भौतिकता की हैलोजन से बहुत ऊपर होती है। क्योंकि यदि इस आंदोलन में जैन समुदाय को कड़वे शब्द बोलने पड़े तो झारखंड की सरकार भारत की मीठी संस्कृति से आँखें नहीं मिला सकेगी।
क्योंकि स्वर्णभद्र कूट से जो हवाएँ टकराती हैं, उनके विघटन की ख़बर तक छापने कभी कोई नहीं आया!
~चिराग़ जैन