जो आस्था न तोड़ सका उसने मन्दिर तोड़े और जो विचार को न मिटा सका वह किताबें जलाने लगा। लेकिन यह कृत्य वीरता का नहीं, अपितु स्वयं के परास्त होने की घोषणा है। अभिमन्यु की हत्या करके कौरवों ने पाण्डवों को आतंकित नहीं किया था अपितु आश्वस्ति प्रदान की थी कि कौरवों का नैतिक बल समाप्त हो गया है।
जब तर्क करते-करते कोई तर्क के स्थान पर बल अथवा क्रोध का प्रयोग करने लगे तो यह सूचना है कि उसके तरकश में तर्क का कोई तीर शेष नहीं है। यह ऐसे ही है जैसे कोई धनुष से तीर छोड़ने के स्थान पर धनुष ही फेंककर मार दे।
किसी ग्रंथ की प्रतियाँ जलाना, किसी धर्म का आस्था केंद्र ध्वस्त करना, अपने विपक्षी की चरित्र हत्या करना, अपने विरोधी का नाम बिगाड़कर बोलना -यह सब इस बात की सूचना है कि तर्क के संग्राम में हमारे पार तर्क ही नहीं कुतर्क भी समाप्त हो चुके हैं।
यह सब कुछ बहुत बचकाना है। रामचरितमानस की प्रतियाँ जलाने से मानस में विराजित राम कैसे अपमानित हो सकते हैं? आप तुलसी की चौपाई पर तर्क करें, वह आपका अधिकार है किन्तु पुस्तक जलाकर आप उस ग्रंथ को मिटाना चाह रहे हैं तो यह आपके मूढ़ होने का प्रमाण है।
ये डिजिटल युग है भाई। दो कौड़ी की तुकबंदी करने वाले भी रेडियो तरंगों और बाइनरी में रूपान्तरित होकर अनन्त काल तक सुरक्षित रहने के जुगाड़ कर लेते हैं, ऐसे में आप हार्डकॉपी जलाकर रगों में दौड़ती रामचरितमानस को मिटाने का दंभ भर रहे हैं! हास्यास्पद है यह।
युद्ध में अनैतिक आचरण करनेवाला योद्धा, जन सहानुभूति खो देता है। बाबा तुलसी के जिस लेखन को आप फूंकना चाह रहे हैं, वह किसी काग़ज़ के टुकड़े पर नहीं बल्कि मानस पटल पर अंकित है।
जब कोई भाजपा का प्रवक्ता राजनैतिक बहस में विपक्षी नेताओं के नाम बिगाड़कर बोलता है तब यह साफ़ समझ आता है कि इस व्यक्ति के पास विचार का घोर अभाव है इसलिए यह हरकतों से ध्यान बंटाने की चेष्टा कर रहा है। राहुल गांधी को 'पप्पू' कहनेवाले; नरेंद्र मोदी को 'फेंकू' कहनेवाले; रवीश को 'रबिश' या 'खबीस' कहनेवाले दरअस्ल राहुल, मोदी या रवीश को नहीं चिढ़ा रहे होते हैं, ब्लकि अपनी पराजय पर एक बेहूदा हँसी का पर्दा डालने की कोशिश कर रहे होते हैं।
ठीक इसी प्रकार मानस की प्रतियाँ जलानेवाले मानस को भस्म नहीं कर रहे अपितु एक पूरे विमर्श को स्वाहा करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।
किसी को मानस के किसी अंश पर शंका हुई- इसमें कोई अपराध नहीं है। किसी अन्य ने अपने ज्ञान के अनुसार उस शंका का उत्तर दे दिया, इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है। शंका करने वाला उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ- यह भी बेहद समान्य घटना है। निवारण करने वाला झल्लाहट और क्रोध से भर गया- यह भी स्वाभाविक है। चर्चा, शास्त्रार्थ में बदल गई; सन्दर्भ स्पष्ट किए गए -इस सबमें कोई बुराई नहीं थी। वरन् यह तो किसी सभ्य समाज के सविवेक होने का द्योतक है।
किन्तु इस चर्चा में शंका करनेवाले को अपमानित करना अनैतिक था और इस चर्चा के दौरान मानस की प्रतियां जलाना अपराध था।
तुलसी, राम और मानस; ये तीनों ही अग्नि के प्रभाव क्षेत्र से बहुत दूर निकल चुके हैं। मान-अपमान जैसे लौकिक शब्द भी इनके आभामंडल के तेज में विलुप्त हो जाते हैं। किंतु इनके विषय में चर्चा करते हुए अभद्रता या अराजकता की लक्ष्मण रेखा लांघनेवाला अपने संस्कारों का आधार कार्ड अवश्य सार्वजानिक कर देता है!
इस घटना पर इसके अपराधियों को लज्जित होना चाहिए और इस पर प्रतिक्रिया करने से पहले राम में आस्था रखने वाले हर मनुष्य को यह चौपाई अवश्य स्मरण रखनी चाहिए :
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥
- चिराग़ जैन
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