Thursday, January 5, 2023

भविष्य का अनुमान

किसी समाज के वर्तमान का आकलन उसके वैभव से किया जाता है, किंतु उसके भविष्य का अनुमान केवल उसके विवेक से लगाया जा सकता है। घटनाएँ और दुर्घटनाएं यदि समाज के लिए कुछ दिन तक न्यूज बुलेटिन की स्टोरी भर बनकर रह जाएं और उनसे बेहतर समाज के निर्माण का कोई विमर्श नहीं उपजे तो समझ लीजिए कि हमारी पीढ़ियां ख़तरे में हैं।
यह वर्ष प्रारंभ हुआ और देश की राजधानी में एक जीती-जागती लड़की सड़कों पर घसीटकर मार दी गई। पूस की सर्द रात में 12 किलोमीटर तक किसी इंसानी जिस्म के खुरदरी सड़क पर घिसटने की कल्पना से लोगों की रूह काँप गई।
सुबह होने से पहले लड़की दुनिया से जा चुकी थी और ख़बर दुनिया पर छा चुकी थी। अब शुरू हुआ हेडलाइंस और पब्लिक सिम्पैथी का घिनौना खेल।
न्यू ईयर के जश्न के तुरंत बाद मीडिया को एक सेंसेशनल स्टोरी मिली तो 'पुलिस की लापरवाही'; 'स्त्री सुरक्षा' और बलात्कार जैसे शब्दों के साथ रिपोर्टिंग की जाने लगी। चूँकि ख़बर में पुलिस को विलेन बनाना था, इसलिए हर ख़बर में लड़की को 'पीड़िता' कहकर संबोधित किया जा रहा था।
दस बजते-बजते राजनीति गरमा गई और आरोपियों में से एक का भाजपा कनेक्शन भुनाने के लिए आम आदमी पार्टी एक्टिव हो गई। उधर दिल्ली के एलजी और केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने घटना पर अफसोस ज़ाहिर करते हुए दिल्ली पुलिस से घटना की अपडेट लेनी शुरू कर दी।
दो दिन तक मीडिया मृतका की माँ के रोते-बिलखते फुटेज, सौरभ भारद्वाज की प्रेस कॉन्फ्रेंस, दिल्ली पुलिस के उच्च अधिकारियों की प्रेस स्टेटमेंट और थाने के बाहर जमा भीड़ की बाइट चलाकर काम चलाता रहा। उस रात के चश्मदीदों की क्लिप भी हर तीन-चार मिनिट में रिपीट होती रही, जिससे यह सिद्ध हो रहा था कि दिल्ली पुलिस नाकारा है। कुछ बड़े चैनल्स ने स्कूटी से टक्कर और गाड़ी के नीचे फंसी लड़की की एनीमेशन भी चलाई। एक डिवाइडर से यू टर्न लेती गाड़ी की सीसीटीवी फुटेज भी सैंकड़ों बार चलाई गई। बारह किलोमीटर तक घिसटकर मर चुकी लड़की को मीडिया दो दिन तक घसीटता रहा।
अदालत में सुनवाई होने से पहले ही आरोपियों को अपराधी घोषित कर दिया गया। पुलिस की चार्जशीट का तो पता नहीं लेकिन जल्दबाज़ रिपोर्टर्स ने उन्हें बलात्कारी कहने में देर नहीं लगाई।
लड़की की पहचान, उसके परिवार की पहचान, उसकी सहेली की पहचान सब कुछ मीडिया ने सार्वजानिक कर दी और विधि-पत्रकारिता के नियम-कायदे मुँह बाये देखते रह गए।
उधर एक आरोपी का भाजपा से सम्बंध होने के कारण भाजपा इस पूरे मुद्दे पर बैकफुट पर रही।
दो दिन बाद सुधीर चौधरी ने अपने 'ब्लैक एंड व्हाइट' में यह दावा किया कि कंझावला कांड में एक नया एंगल सामने आया है कि उस रात दुर्घटना में मरने वाली लड़की के साथ एक सहेली भी थी। सुधीर चौधरी ने यह भी बताया कि उस सहेली से उनके चैनल ने एक्सक्लूसिव बातचीत करके पता चला लिया है कि मृतका उस रात होटल के कमरे से शराब पीकर निकली थी और उसका उसकी सहेली से झगड़ा भी हुआ। होटल के स्टाफ से यह भी पता चल गया कि वह लड़की पहले भी इस होटल में आती रही है, कि उस लड़की से मिलने (थोड़ी देर के लिए) उसके पुरुष मित्र भी आए थे...!
इसके बाद अचानक सोशल मीडिया के ग्रुप्स में कुछ ऐसा पोस्ट किया जाने लगा जिससे ख़बर के प्रति लोगों का नज़रिया एकदम बदल गया। जो बिलखती माँ अपनी बेटी के हत्यारों को मृत्युदंड देने की मांग कर रही थी, वही अब अपनी मरी हुई बेटी को छीछालेदर से बचाने की कोशिश करती मिली।
मेरा प्रश्न यह है कि हम आख़िर कब तक इस प्रचार तंत्र के हाथों की कठपुतली बने रहेंगे? नीचे जो प्रश्न मैं पूछ रहा हूँ उनको गंभीरता से सोचकर अपने आप से उनके उत्तर पूछने का प्रयास करना :-
1. अगर वह लड़की किसी तथाकथित अपराध में लिप्त रही भी हो (जो सुनिश्चित करना न्यायालय का कार्य है) तो भी क्या उसे मार देने की छूट किसी अन्य नागरिक को दे देनी चाहिए?
2. अगर वह नशे की हालत में किसी गाड़ी से टकरा ही गयी थी, तो भी क्या उसे 12 किलोमीटर तक सड़क पर घसीटना जस्टीफाई किया जा सकता है?
3. रात के समय यदि कोई लड़की सड़क पर किसी भी स्थिति में मृत पाई जाए, तो क्या उस स्थिति में यह मान लेना चाहिए कि उसका बलात्कार ही हुआ होगा?
4. इस दुर्घटना के बाद क्या हमारे समाज को इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं करना चाहिए कि देर रात तक बाहर रहने वाले लोगों की गतिविधियों पर कम से कम पारिवारिक अंकुश की पहल की जाए।
5. स्कूटी पर जा रही स्त्री हो या गाड़ी में घूम रहे पुरुष; दोनों ही के लिए भीषण सर्दी की रात में सुनसान सड़कों पर निकलना असुरक्षित क्यों नहीं है?
6. पुलिस की मुस्तैदी और कार्यशैली पर पूरी व्यवस्था को गंभीरता से पुनर्विचार क्यों नहीं करना चाहिए?
7. क्या यह सत्य नहीं कि पुलिसकर्मी से शिकायत करने पर यदि पुलिसवाला उल्टे आपको ही डाँटकर भगा दे तो आप कुछ नहीं कर पाते।
8. क्या यह सत्य नहीं कि पुलिस अपनी जनता से सुरक्षाकर्मी जैसा नहीं अपितु तानाशाह जैसा व्यावहार करती है।
9. क्या यह सत्य नहीं है कि आरोपियों में एक व्यक्ति के भाजपा सम्बंध से भाजपा विरोधियों को 'अवसर' मिल गया?
10. क्या यह सत्य नहीं की लड़की की सहेली की गवाही से भाजपा समर्थकों को 'अवसर' मिल गया?
11. क्या यह सत्य नहीं कि हमें हमारी सड़कों को दिन-रात सुरक्षित और निर्भय बनाए रखने के प्रयासों को वरीयता देनी चाहिए।
12. क्या यह आवश्यक नहीं कि इस घटना की रिपोर्टिंग करते समय मीडिया को मनुष्य होने की न्यूनतम अर्हता का ध्यान रखना चाहिए!
मेरा विनम्र अनुरोध है कि इस पोस्ट पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह अच्छी तरह जाँच लें कि आप जो लिखने जा रहे है वह खुले हुए ज़ख़्म पर मरहम लगाने जैसा है, यदि आपकी उंगली ने रिसाव के किसी भी संवेदनशील तन्तु को छू दिया तो घाव की टीस, चित्कार बनकर मनुष्यता के कान फोड़ देगी!
~चिराग़ जैन

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