Sunday, September 17, 2023

पूर्वाग्रही हम

पुलिसकर्मी सड़क पर किसी रिक्शावाले को गरियाते हुए दिखाई देता है, तो हम पुलिसकर्मियों को राक्षस और रिक्शावाले को बेचारा मान बैठते हैं। लेकिन यही रिक्शावाले जब पूरी सड़क घेरकर आपको निकलने का रास्ता नहीं देते, तब हमें ये रिक्शावाले दुष्ट और पुलिसकर्मी रिश्वतखोर लगने लगते हैं। सारे ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करते हुए जब कोई रिक्शावाला जब चाहे, जहाँ चाहे घुस जाता है; दो-दो लेन घेरकर चलता है, रेड लाइट जम्प करता है; तब हमारा मन करता है कि उसे धक्का देकर सड़क से बाहर फेंक दें। उस समय हमें उसका ग़रीब होना दिखाई नहीं देता।
हम भारतीय अक्सर भावुकता में अपने मन की धारणाएं बनाते हैं। इसीलिए जब कोई नेता दिल्ली में आकर ई-रिक्शा वितरित करता है तो उसकी दरियादिली और भाषणबाज़ी से भावुक होकर हम तालियाँ पीटने लगते हैं। भावुकता के इस शोर में हमें उस नेता से यह पूछना याद ही नहीं रहता कि जिस शहर की सड़कों पर ई-रिक्शा का यह ज़खीरा छोड़ दिया गया है, उसके चौराहों पर इनके स्टैंड बनाने की कोई जगह ही नहीं है। जो रिक्शावाले इनको लेकर सड़कों पर लहरा रहे हैं, उन्हें लेन, रेड लाइट, जेब्रा क्रॉसिंग, इंडिकेटर जैसे शब्दों के मतलब ही नहीं पता।
सड़कें ट्रैफिक के बोझ से त्राहिमाम का उद्घोष कर रही हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निवासी पाँच मिनिट में एक किलोमीटर की औसत से गाड़ी चला रहे हैं। मथुरा रोड, नोएडा, कालिंदी कुंज, जमुना बाज़ार, आईटीओ, मिंटो रोड, करनाल बाईपास, उत्तम नगर, पालम फ्लाईओवर, पंजाबी बाग़, आश्रम चौक, मायापुरी, पटेल नगर, भजनपुरा, लक्ष्मी नगर, लालकिला, गुरुग्राम, महिपालपुर, संगम विहार और ओखला जैसे दर्जनों स्थानों पर कभी भी ट्रैफिक जाम की प्रदर्शनी देखी जा सकती है। लेकिन हम इसी बात पर लड़ रहे हैं कि G20 से पहले दिल्ली को नयी बसें मोदी जी ने दी हैं या केजरीवाल ने। हमारे दिमाग़ में यह सवाल कौंधता ही नहीं है कि सवारियाँ लेने-छोड़ने के लिए इन बसों के जो स्टॉप बने हुए हैं उनके लिए सड़क पर "D" की व्यवस्था नहीं है। हमने यह प्रश्न ही नहीं पूछा कि पुरानी बसों के ड्राईवर सड़कों पर तांडव करना कब बंद करेंगे? जगह जगह ख़राब होकर खड़ी बसों को जल्दी से जल्दी हटवाने की सुविधा कब मुहैया की जाएगी?
इस समय इस देश की आवश्यकता केवल इतनी है कि यहाँ की जनता विवेक की साधना करे। कौन नेता मंदिर गया, किसकी पार्टी का नेता मस्जिद जाता है, किसने जनेऊ पहना है, किसने तिलक लगाया है... इन सब सवालों को छोड़कर एक बार इस बात की चिंता की जाए कि जब हम आस्था से भरकर मंदिर या मस्जिद की ओर चलें तो ट्रैफ़िक जाम में फँसकर हमारी आस्था मुरझा न जाए, किसी की रैश ड्राइविंग से प्रभावित होकर हमारे होंठ से ईश्वर-अल्लाह का नाम भूलकर किसी अपशब्द का उच्चारण न कर बैठें।
पेड़ की जड़ों से सड़ांध उठ रही है। इससे जनता का दिल घबराने लगता है तो राजनीति पेड़ की शाखाओं पर पेंट करवा देते हैं। हमें पेड़ स्वस्थ लगने लगता है। हम इस बात में भटक जाते हैं कि डाल पर हरा पेंट करानेवाला नेता अच्छा है या सन्तरी पेंट करानेवाला। जड़ों की सड़न से तना भी गल गया है। और हम इस गले हुए पेड़ की सूखी हुई डालियों पर पोते गए पेंट पर तालियाँ पीट रहे हैं।
लिजलिजे कीड़े पूरे वृक्ष को भीतर ही भीतर चाट रहे हैं। अब तने के ऊपर भी हज़ारों कीड़े रेंगते दिखाई देते हैं और हम इस बात पर खुश हो रहे हैं कि जहाँ से हम देख रहे हैं वहाँ से हमें केवल दूसरी डाल पर कीड़ों का अटैक दिख रहा है। सब अपनी आँखें मसलते हुए सामनेवाले को चिढ़ा रहे हैं कि देख तेरी आँख में कीड़ा घुस गया है।

-चिराग़ जैन

विश्वास कीजिए-

विश्वास कीजिए, राजनीति ने हमें वहाँ तक पहुँचा दिया है, जहाँ उम्मीद की हर लौ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।
विश्वास कीजिए, हमें अपनी संतानों को इस दौर के उस पार सुरक्षित पहुँचाना है तो हमें स्वार्थी होना पड़ेगा। पूरा देश डकार जानेवाली राजनीति हमें दशकों से यह नसीहत देती रही है कि हमें निजी स्वार्थों की चिंता छोड़कर समाज की चिंता करनी चाहिए। हमने भी यह वाक्य सूक्ति की तरह रट लिया। अब जब भी कभी हम व्यवहारिक धरातल पर खड़े होकर अपनी मूलभूत ज़रूरत का सवाल उठाते थे तो हमें स्वार्थी कहकर लानत भेजी जाने लगी।
हम समाज और राष्ट्र के समग्र विकास की प्रतीक्षा में टकटकी लगाए बैठे रहे और राजनेता 'राष्ट्रहित' की ओट में अपने हित साधते रहे। हम पाई-पाई जोड़कर भरपाई करते रहे और राजनीति के नुमाइंदे हज़ारों करोड़ के घोटाले करके विदेश निकल लिए।
शर्मनाक है ये कि जिस देश की जनता में भुखमरी और कुपोषण जैसे अभिशाप ज़िंदा हैं, उस देश के धन का बड़ा सारा हिस्सा विदेशी बैंकों में जमा है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि स्वयं राजनेताओं ने यह स्वीकार किया है कि उन्हें इस काले ख़ज़ाने के विषय में जानकारी है। लेकिन इस धन को वापस लाने के लिए कोई सरकारी प्रयास दिखाई नहीं देता। उल्टे भारत के क़ानून द्वारा अपराधी सिद्ध हो चुके भ्रष्टाचारी, राजनीति के शीर्ष की कानूनी नुमाइंदगी करनेवालों की शादी में दारू पीकर नाचते ज़रूर दिखाई दे गए।
विश्वास कीजिए, राजनीति के इस दरिया में सत्ता और विपक्ष की कुल लड़ाई मगरमच्छों और घडियालों का आपसी संघर्ष है। इनमें से किसी की भी जीत-हार से जनता को कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा। ये ऐसे ही है ज्यों खूँटे पर बंधी बकरियां दो शेरों की लड़ाई में किसी एक की जीत की दुआ मना रही हों। जबकि प्रतियोगिता की शर्त ही यह है कि ज़्यादा बकरियां जिसका साथ देंगी, अगली प्रतियोगिता तक वह जैसे चाहे, वैसे, बकरियों से पेट भरेगा।
विश्वास कीजिए, अब समय आ गया है कि जब भी कोई हमें परमार्थ और राष्ट्रहित की पट्टी पढ़ाकर हमारी खाल उतारने आए तो उसकी आंख में आंख डालकर पूछा जाए कि उसको अपनी खाल देने से हमारा पेट कैसे भरेगा?
विश्वास कीजिए, सब अपनी-अपनी ज़रूरतों के सवाल पूछने लगे तो हमसे पाई-पाई लूटकर कोई अपनी चारपाई पर सोने की मँढ़ाई नहीं करवा सकेगा।
विश्वास कीजिए, यदि हमने अपनी खाल उतारकर देनी बंद कर दी, तो पूरे देश के जिस्म पर तन ढंकने के लिए कपड़े उगने लगेंगे।
विश्वास कीजिए, यदि हमने अपनी थाली की दो रोटियों को वरीयता देनी शुरू कर दी तो काली तिजोरियों में बंद रोटियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद भूखे पेटों तक पहुँच जाएंगी।
विश्वास कीजिए, अपनी बेहतरी के लिए दूसरों से उम्मीद लगाकर बैठने का वक़्त बीत चुका है। विश्वास कीजिए, अब अपने-आप पर विश्वास करने की ज़रूरत है।
-चिराग़ जैन

Wednesday, September 13, 2023

संवेदना पर राजनीति की परत

हम संवेदनात्मक रूप से काफ़ी परिपक्व हो चुके हैं। किसी भी घटना पर होने वाली राजनीति ने हमारी कोमल रोमावली के ऊपर ऐसी मोटी परत चढ़ा दी है कि हम किसी भी घटना को देख सुनकर सिहरते नहीं हैं।
आज सहारनपुर से एक ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा के सामूहिक बलात्कार की ख़बर पढ़ी। फिर देखा कि सोशल मीडिया पर एक तबका योगी आदित्यनाथ का नाम लेकर ताने मारने लगा है। दूसरा तबका राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए बलात्कारों की याद दिलाकर इस ताज़ा घटना से ध्यान हटाने पर आमादा है।
डूब मरना चाहिए इन दोनों तरह के ट्रोलियों को। राजनीति ने हमें कितना वीभत्स बना डाला है कि अपनी राजनैतिक निष्ठा के लिए हम इतने अंधे हो गए। एक नन्हीं बच्ची नोच डाली गई और हम उसमें कांग्रेस-भाजपा देख रहे हैं।
मुझे याद है कि एक अदद लड़की इसी वर्ष के प्रथम प्रहर में दिल्ली की सड़कों पर घसीट कर मार दी गई थी। "गाड़ी के नीचे कई किलोमीटर तक घसीटी लड़की" -इस ख़बर की सनसनी पर मीडिया ने ख़ूब टीआरपी बटोरी। नया साल उस लड़की की लाश से प्रारम्भ हुआ। लेकिन 24 घण्टे के भीतर पता चला कि जिस गाड़ी के नीचे लड़की को घसीट कर मारा गया, उसमें बैठे चार शख़्स में से एक व्यक्ति किसी राजनैतिक दल का नेता था। यह सूचना मिलते ही ख़बर बदल गई। मरनेवाली लड़की को कॉलगर्ल सिद्ध किया जाने लगा और कुछ ही घंटों के बाद ख़बर का नाम-ओ-निशान ग़ायब हो गया। मैं आज तक सोच रहा हूँ कि यदि कोई अपराधी भी है तो भी उसे सड़क पर घसीटकर मार देने का अधिकार किसी अन्य नागरिक अथवा राजनेता को कैसे दिया जा सकता है!
अभी हाल ही में राजस्थान से एक महिला को उसी के रिश्तेदार द्वारा नग्न करके घुमाने की घटना पर सरकार ने तुरंत कार्रवाई की। सहारनपुर की ताज़ा घटना पर भी कुछ ही घंटों में सभी आरोपी गिरफ्तार हो गए हैं।
यदि हम इन घटनाओं में कांग्रेस-भाजपा, हिन्दू मुस्लिम, ब्राह्मण-दलित का एंगल देखना बंद कर देंगे तो कार्यपालिका अधिक आसानी से इन अपराधों पर नियंत्रण कर सकेगी। अन्यथा हम हर अपराध में किसी राजनेता को घेरने की कोशिश करेंगे और राजनीति ख़ुद को बचाने के लिए पूरे सिस्टम का और आपकी सोच तक का बलात्कार करके छोड़ देगी।
ध्यान रखिए, अपराध की कोई जाति नहीं होती। अपराध का कोई धर्म नहीं होता। अपराध की कोई विचारधारा नहीं होती। हाँ, विचारधाराओं के अपराध हमेशा से होते आए हैं। अगर हम इन विचारधाराओं से प्रभावित होकर संवेदनहीन हो गए हैं तो समझ लें कि हम इन अपराधों में बराबर के उत्तरदायी हैं।
-चिराग़ जैन

आधुनिक गणितज्ञ

माननीय आर्यभट्ट से कहीं आगे चीज़ हैं। वे एक और एक ग्यारह कभी नहीं करते, अपितु 5 और 6 ग्यारह करते हैं। प्लस का निशान (➕️) न दिखा तो 56; वरना 11 तो है ही..!
इन्होंने छोटी संख्या में से बड़ी संख्या को घटाने जैसे उल्टे-सीधे प्रयोग कभी नहीं किए। मामला हमेशा सीधा-सपाट रखा; बड़ी संख्या से छोटी को घटाना है। इस मामले में वे हमेशा क्लियर रहे हैं, मॉनीटर बनने से गुरु बनने तक!
सोच बड़ी है, इसलिए 'अल्प' और 'बहु' के बीच कोई प्रमेय सिद्ध करते समय पाइथागोरस ने अल्प से हमेशा बहु 'त' दूरी बनाए रखी है। कुछ विदेशी अल्पों के साथ वे निकट खड़े होकर फोटो खिंचा लेते हैं, क्योंकि तब उनकी संख्या में उनकी क्रय क्षमता जोड़ ली जाती है। 
स्वयं को रामानुजन समझनेवाले ये महान गणितज्ञ गणित में अपवाद खोजनेवाले विश्व के प्रथम और एकमात्र व्यक्ति हैं। इन्होंने अनेक जोड़-तोड़ करके यह सिद्ध किया है कि- "चुनावी जीत का आँकड़ा हासिल करने के लिए कम पड़ रही संख्या में पार्टी फण्ड की कोई भी संख्या जोड़कर किसी को कहीं से भी तोड़ा जा सकता है। एक बार सरकार बनने के बाद इस जोड़े गए को निचोड़कर छोड़ देने का भी नियम है।" 
कूटनीति के गणितीय सिद्धांत की गहन साधना के परिणामस्वरूप ये किसी भी लघुत्तम का नाम बदलकर महत्तम रखते हैं और अवसर के अनुसार उसे समापवर्त्य बना लेते हैं।
ऐसा कोई भी व्यक्ति जो इसके कद को आघात पहुँचा सकता है उसके पद को 'घात' देकर कोष्ठक में बंद करने में माननीय सिद्धहस्त हैं। बीजगणित के इतने उद्भट विद्वान हैं कि संख्या, मान, घात और कोष्ठक को अलग-अलग करके जोड़-घटा लेता है। भास्कराचार्य जानते हैं कि सूत्र के साथ चाहे कुछ भी करना पड़े किंतु सार में लाभ न दिखा तो यह असार संसार विस्तार से इनका 'समूचा राजनीति शास्त्र' तार-तार कर देगा।
चूँकि किसी बैंक का वार्षिक घाटा मित्र के नाम के आगे लिखी गई ऋणात्मक संख्या के बराबर होता है, इसलिए बैंक इनके मित्रों को 'धन' और धन्यवाद एक साथ प्रदान कर देते हैं। नीति आयोग की योजना के अनुरूप अब समूचे राष्ट्र में 'बैंक' शब्द को 'धर्मशाला' शब्द से रिप्लेस कर दिया जाएगा ताकि परिग्रही बैंककर्मी, घाटे में जा रही गीताप्रेस गोरखपुर का साहित्य ख़रीदकर आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर हो सकें। 
महान गणितज्ञ जानते हैं कि जब अंत में शून्य ही बचना है तो क्यों न छोटी-बड़ी तमाम संख्याओं को निपटाकर शून्य के विकास में हाथ बँटाया जाए!

-चिराग़ जैन

Sunday, September 10, 2023

कुएं में भांग

मन यह सोचकर आतंकित है कि हम उस स्थिति तक आ चुके हैं जहाँ कुँआ और खाई में से किसी एक को चुनने की विवशता है। एक ओर वे हैं, जिनसे छीनकर सत्ता भाजपा को दी गई थी और दूसरी ओर ये हैं जो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि किसी भी कीमत पर इन्हें सत्ता से बाहर न किया जा सके।
हमें इन दो में से एक का चुनाव करना है। इनसे इनकी खामियों पर प्रश्न करो तो ये कांग्रेस की कमियाँ गिनाने लगते हैं। और कांग्रेस से उसकी गलतियों पर सवाल पूछो तो वे भाजपा के अपराधों की सूची थमा देती है। 
जो भाजपा जीवन भर महबूबा मुफ्ती को ग़द्दार साबित करने पर तुली रही, वही कश्मीर में सत्ता के लिए उसी महबूबा मुफ्ती से गठबंधन कर लेती है। उधर, जैन आयोग की अंतरिम रिपोर्ट में DMK के कुछ नेताओं का नाम आने पर कांग्रेस गुजराल सरकार पर दबाव बनाती है कि वह DMK को सरकार से बाहर करे। इंद्रकुमार गुजराल कांग्रेस की यह शर्त नहीं मान पाते तो कांग्रेस उनकी सरकार गिरा देती है। बाद में यही कांग्रेस उसी DMK के साथ गठबंधन कर लेती है। 
बचपन से हम एक नेता का किस्सा सुनते आए हैं कि उसने किस तरह बुलडोजर चलाकर तुर्कमान गेट का इलाक़ा ख़ाली करा लिया था। उस सनक में यह तक नहीं विचारा गया कि रातोंरात बेघर हुए इतने लोग कहाँ पनाह लेंगे! अब यही बुलडोजर उत्तर प्रदेश में किसी और का डंका पीटने निकल चला है। 
कांग्रेस ने एशियाड और कॉमनवेल्थ खेलों में पानी की तरह पैसा बहाया। भाजपा के हिस्से G20 सम्मेलन आया तो इन्होंने भी सारी कसर निकाल ली। 
इंदिरा सरकार में सत्ता की आलोचना अपराध था। सरकार का विरोध करना जेल की यात्रा को निमंत्रण था। वर्तमान सरकार में सत्ता से कुछ पूछ लो तो पूरा सिस्टम और पूरी ट्रोल आर्मी आपके पीछे पड़ जाती है। केंद्रीय मंत्री पत्रकार को सर-ए-आम धमकी देती हैं कि मैं आपके मालिक से बात करूंगी।
रामदेव और अन्ना हज़ारे 'जन आंदोलन' करने लगे तो कांग्रेस सरकार ने बल प्रयोग किया। गांधी के देश मे सत्याग्रही को जेल में ठूस दिया गया। अब आदर्श अनुगामी की तरह किसान आंदोलन और पहलवान आंदोलन पर बल प्रयोग करने में सरकार बिल्कुल नहीं हिचकिचाई।
भाजपा ने अपनी ट्रोल आर्मी को अभयदान दे रखा है कि गांधी, नेहरू पर जितनी कीचड़ उछाल सकते हो, उछालो। इधर कांग्रेस ने भी सावरकर के अपमान पर यही नीति अपनाई हुई है। 
कांग्रेस ने इंदिरा जी की हत्या के बाद हुई हिंसा को जस्टीफाई करने में शर्म नहीं की। इधर भाजपा ने भी गोधरा के वीभत्स हत्याकांड के बाद हुई हिंसा को बेशर्मी से जस्टीफाई किया। 
कांग्रेस जब तक शासन में रही उसने 84 के नामजद आरोपियों को न केवल जेल की सलाखों से बचाए रखा, बल्कि उन्हें सत्ता का सुख देकर पुरस्कृत भी किया। 2002 के नामजद आरोपियों के साथ भाजपा भी ठीक यही कर रही है। 
कांग्रेस ने के कामराज और पी वी नरसिम्हा राव के साथ जो व्यवहार किया, भाजपा ने वही व्यवहार लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ किया। 
भाजपा को पानी पी पीकर कोसनेवाले कपिल मिश्रा आज भाजपा में माननीय हैं। उधर कांग्रेस में रहकर भाजपा से रोज़ ग़द्दारी का सर्टिफिकेट प्राप्त करने वाले सिंधिया और गुलाम नबी आज़ाद, आज कांग्रेस को भ्रष्टाचारी बताते फिरते हैं।
भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आनेवाले नेता कांग्रेसियों को ईमानदार लगते हैं और कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले नेता भाजपाईयों को देशभक्त लगते हैं। 
ऐसे और भी हज़ारों उदाहरण मिल जाएंगे। सत्ता की ओर दौड़नेवाले तभी तक सिद्धांतों की दुहाई देते हैं, जब तक वह सिद्धांत उनका पथ अवरुद्ध न करे। जनता इनसे भागकर उधर जाती है तो वे घाव पर मरहम लगाने के बहाने चिकोटी काटने लगते हैं। उनकी चिकोटी से त्रस्त होकर इधर आती है तो ये घाव सहलाने के बहाने छेड़खानी करने लगते हैं। 
नागरिकों को विवेकयुक्त होकर आचरण करना होगा। सभी राजनैतिक दल सत्ता की रस्साकशी में व्यस्त है, प्रशासन शासन की उँगलियों पर कठपुतली की तरह ठुमक रहा है, न्यायपालिका शासन और प्रशासन की इच्छाशक्ति के अभाव में जर्जर हुई जा रही है और पत्रकारिता तलवार से यशगान लिखकर दिन काट रही है। ऐसे में अपने देश को बचाने की ज़िम्मेदारी नागरिकों के कंधों पर है l 
हम जो कर सकते हैं, वह अभी इसी वक़्त से प्रारंभ करें। जहाँ तक सम्भव हो नियमों का पालन करें। धर्म-संप्रदाय और जातियों पर चर्चा न करें। शिक्षा, सफाई और रोज़गार पर ध्यान केंद्रित करें। अपने-अपने परिवार को सामाजिक विद्वेष के सोशल मीडिया प्रचार से बचाए रखें। 
इन सब कार्यों को करने में जहाँ सिस्टम का भ्रष्टाचार अवरोधक बने, वहाँ स्वयं को गांधी बनाकर धैर्य और अहिंसा का मार्ग अपनाएं। जहाँ सत्ता तुम्हें विवशता के दोराहे पर खड़ा कर दे वहाँ सावरकर बनकर अपनी जान बचा लो, क्योंकि आप बचे रहे तो ही कुछ कर सकोगे। देश को गांधी और सावरकर ही नहीं; राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और अम्बेडकर भी चाहिएं। पढ़ो ताकि आपको बरगलाया न जा सके! समझो, ताकि आपको डराया न जा सके। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, September 7, 2023

कृष्ण का तो चक्र भी 'सुदर्शन' है

नंदलला, कन्हैया, कान्हा, गिरिधर, मुरलीधर, गोपाल, मोहन, गोविन्द, मधुसूदन, केशव, रणछोड़, माधव, श्याम, वासुदेव, पीताम्बर... और भी दर्जनों संज्ञाएँ मिलकर थोड़ी-थोड़ी झलक भर दे पाती हैं एक कृष्ण की। और ये सब संज्ञाएँ कृष्ण के नाम भर नहीं हैं, अपितु ये सब नाम कृष्ण के जीवन के अलग-अलग किस्सों के शीर्षक हैं, जिनको एक क्रम में लगा देने से कृष्ण की कथा बन जाती है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि इनमें से कोई भी किस्सा अपनी पूर्णता के लिए किसी अन्य किस्से पर निर्भर नहीं है, लेकिन फिर भी जब इन अलग-अलग मोतियों को एक सूत्र का पथ मिल जाए, तो ये सब मिलकर ‘एक’ हो जाते हैं।
यह इसलिए संभव हो पाता है कि कृष्ण, जीवन के प्रत्येक पल को भरपूर जीते हैं। हर क्षण में व्याप्त जीवन का रस भोगने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि फिर उस क्षण को लादकर अगले क्षण तक ले जाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। क्षण तो दूर की बात है, उस क्षण की स्मृति भी अगले किसी क्षण तक यात्रा करने का साहस नहीं जुटा पाती। कृष्ण जहाँ हैं, वहाँ अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ हैं। यही कारण है कि कृष्ण कथा के पीछे नहीं भागते, उल्टे कथा ही कृष्ण के पीछे भागती प्रतीत होती है।
जीवन को पूर्णता से जी लेना ही वह तृप्तिबोध है, जो व्यक्ति को आकांक्षा, उत्कंठा और अपेक्षा से मुक्त कर देता है। कृष्ण की पूरी कथा में वे कहीं भी भाग्य से रुष्ट नहीं दिखाई देते। क्योंकि कृष्ण, समय की सूक्ष्मतम इकाई को भी, समय की नदिया से विलग करके जीना जानते हैं।
इसीलिए कृष्ण का कोई एक किस्सा, किसी दूसरे किस्से पर निर्भर नहीं है। नंदबाबा के घर मे पलता कन्हैया, पूरी तरह अपने बालसुलभ दृश्यों से कथा को अपने इर्द-गिर्द सम्मोहित कर लेता है। यहाँ बचपन के रस में कृष्ण इतने सराबोर हैं कि वीभत्स शत्रुओं का वध करने के लिए भी बालपना नहीं त्यागते। अपितु उसी सहजता से शत्रु को परास्त करते हैं, ज्यों कोई नवजात स्तनपान कर रहा हो; ज्यों पालने में किलोल करता कोई बालक हाथ-पैर चला रहा हो।
कृष्ण कालिया दाह में भी ‘गेंद’ के पीछे कूदते हैं और किसी अबोध बालक के समान ही भयानक विषधर के फन पर नृत्य करते हुए प्रकट होते हैं। यदि यहाँ बालपन छोड़कर कृष्ण, विजेता बन जाते तो वे कालिया पर नाचते हुए नहीं, बल्कि उसको मारते हुए कालिंदी से बाहर आते। यदि इसी दृश्य में कृष्ण पर्यावरण की चिंता करनेवाले ज्ञानी बन जाते तो उन्हें कालिया से भयभीत होना पड़ता, क्योंकि ज्ञान भय का सहोदर है। लेकिन कृष्ण न तो विजेता के अहंकार से युक्त हुए, न ज्ञानी के भय से... वे तो अबोध बालक के समान भयावह दृश्य में कलरव करते दिखाई देते हैं।
उधर गौवर्द्धन को तर्जनी पर रखनेवाले कृष्ण, एक किशोर होते बालक के समान ही जिज्ञासा से उत्पन्न कौतूहल में वह असंभव कार्य कर लेते हैं, जो अन्य किसी मनोदशा में संभव नहीं है। कैशोर्य के द्वार पर खड़ा बालक, अपने समाज की परंपरा पर प्रश्न उठा सकता है। चूँकि अभी वह आस्था की अनुत्तरित वीथियों में गुम नहीं हुए हैं, इसलिए वे पूजित की उपादेयता पर भी तर्कयुक्त प्रश्न उठा लेते हैं। क्योंकि वे तर्क से उत्पन्न ऊर्जा से संचालित हैं, इसीलिए वे किसी की सत्ता का अंधानुकरण करने के स्थान पर उसके भय को न केवल चुनौती देते हैं, अपितु उसका विकल्प उपस्थित करके उसके अनुयायियों को परंपरा की लीक तोड़ने के लिए तैयार भी कर लेते हैं।
कृष्ण के ये सब किस्से उद्वेग तथा उत्तेजना से दूषित नहीं हैं। इसीलिए कृष्ण ‘माधुर्य’ के अधिपति हैं। कृष्ण की बाँसुरी से लेकर उनके पांचजन्य तक सब मधुर हैं। कृष्ण का तो चक्र भी ‘सुदर्शन’ है। इसी कारण कृष्ण के व्यक्तित्व में प्रेम की अथाह संभावना मिलती है। बालसुलभ शरारतों की तरह माखन चुरानेवाले कृष्ण, इस चोरी के लिए गोपियों के कोप के नहीं, प्रेम के भाजन बनते हैं। प्रेम, कृष्ण के व्यक्तित्व का अद्र्धांग है। प्रेम से गढ़े गए व्यक्तित्व का रास भी स्तुत्य होता है। प्रेम से युक्त मनुष्य अश्लील हो ही नहीं सकता। वह तो पीताम्बर धारण किए किसी योगी की भाँति प्रेम की पावनता का भोग करता है। वह देह की सीमाओं के पार, प्रेम की विदेह सम्पदा का रसिया हो जाता है। क्योंकि वहाँ देह महत्त्वहीन है इसीलिए कृष्ण को स्त्रीवेश बना लेने में भी कोई आपत्ति नहीं होती। वहाँ स्त्री-पुरुष जैसा कुछ है ही नहीं, वहाँ तो कोरा प्रेम है। ऐसा प्रेम, जो होली के अलग-अलग रंगों की तरह एक-दूसरे में ऐसे मिल गए हैं कि सभी रंग अपनी पहचान छोड़कर एक नए रंग की सर्जना कर देते हैं, यही रंग प्रेम का रंग है, यही रंग कृष्ण का रंग है।
प्रेम से सिक्त कृष्ण को देखकर ऐसा लगता है कि अब इस कथा में कुछ शेष नहीं रहा। किन्तु कृष्ण यहीं नहीं रुकते। वे एक झटके में प्रेम का यह कुंजवन त्यागकर कत्र्तव्यपथ पर कदम बढ़ा देते हैं। समान्य बुद्धिवाले लोग कथा के इस बिंदु पर कृष्ण को निर्मोही कह सकते हैं। गोपियों के विरह से विचलित संसारी जीव इस बिंदु पर कृष्ण को क्रूर न कह दें इसीलिए कथाकार ने कृष्ण को गोकुल से मथुरा लिवा लाने के लिए जिसे भेजा है, उसका नाम ‘अक्रूर’ है।
कृष्ण का व्यक्तित्व ‘स्वीकार’ का व्यक्तित्व है। वे मन के विरुद्ध उत्पन्न परिस्थितियों को स्वीकार करने में अग्रणी रहते हैं। इसीलिए वे अपने भूतकाल के बोझ से अपने वर्तमान को प्रभावित नहीं होने देते। इसीलिए कंस का वध करनेवाले कृष्ण, गोकुल के कन्हैया से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए कंस सरीखे बलवान शासक को मार देनेवाले कृष्ण, कालयवन की छाती पर चढ़कर उसे परास्त नहीं करते, अपितु युगों की पोथियों से खोजकर वह युक्ति निकालते हैं, जिससे शत्रु के वरदान का कवच भेदन किया जा सके। कृष्ण, लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं किंतु मार्ग को भी निरर्थक नहीं होने देते। वे इस दृश्य में यह संदेश देते हैं कि किसी अपयश से बचने के लिए युद्ध हार जाने से श्रेष्ठ है कि ‘रणछोड़’ बनकर विजय प्राप्त की जाए।
कृष्ण की यही युक्तिसंगत चेतना उन्हें पूर्ण बनाती है। परम्परा से परे रहकर जीने की उनकी यही चेष्टा उन्हें अपराजेय बनाती है। कृष्ण अनप्रेडिक्टेबल हैं। कृष्ण की सोच का कोई मैथड ड्रॉ नहीं किया जा सकता। कृष्ण के एक्शन्स का कोई पैटर्न ड्राफ्ट नहीं किया जा सकता। कृष्ण सोच के ठीक विपरीत कार्य कर सकते हैं। युद्ध के मैदान में गीता बाँचना विश्व में विरोधाभास का उत्कृष्ट उदाहरण है। और गीता भी ऐसी-वैसी नहीं, समय की अजगरी धाराओं पर भी प्रासंगिक बने रहनेवाला अद्वितीय प्रवचन है गीता। गीता को पढ़ो तो आभास होता है कि युद्ध घटित हो सके इसके लिए गीता नहीं गढ़ी गई है, बल्कि गीता उत्सर्जित हो सके, इसके लिए युद्ध गढ़ा गया है। कुरुक्षेत्र की उपलब्धि अर्जुन का शौर्योपयोग नहीं है। कुरुक्षेत्र का प्राप्य युधिष्ठिर का राज्याभिषेक नहीं है। कुरुक्षेत्र का हासिल तो श्रीमद्भागवत गीता है।
सुदर्शन से युक्त होकर भी रथचक्र को अस्त्र बना लेने का कृत्य शत्रु के आत्मविश्वास पर आक्रमण है। कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि सुदर्शन उपलब्ध होने के बावजूद कोई रथ का पहिया उठाकर फेंकने लगेगा। जिस पर आक्रमण हुआ, उसने अपना पूरा अवधान सुदर्शन से बचने पर केंद्रित किया होगा। पहिये से बचने के लिए उसने कोई नीति ही नहीं बनाई होगी।
सुभद्रा विवाह, विदुर के घर भोज, मित्र का सारथी बनने की स्वीकृति... यह सब परंपराओं के विरुद्ध अपने व्यक्तित्व का स्वीकार विराट कर लेना है। कृष्ण अपने ही आचरण के ठीक विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं। युद्ध के उन्माद में अंधे हुए जा रहे पांडवों को टोकते हुए जो कृष्ण शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं, वही कृष्ण, युद्ध से विरक्त हो रहे अर्जुन को युद्धोन्मुख करते हैं। यह कृष्ण का अपनी बात से पलट जाने जैसा प्रतीत होता है, किंतु इस विरोधाभास में यह स्पष्ट है कि सही और गलत की परिभाषा समय-स्थान-परिस्थितियों के अनुरूप बदलती हैं। जब कृष्ण शांति का संदेश लेकर गए तब युद्ध रोकने के लिए विराट रूप धारण कर लिया। और जब सारथी बनकर कुरुक्षेत्र में आ पहुँचे तब युद्ध करवाने के लिए विराट हो गए। अर्जुन के रण छोड़ देने से कृष्ण के प्रति उनकी मित्रता पर कोई प्रभाव न पड़ता, क्योंकि कृष्ण तो स्वयं रणछोड़ हैं। किन्तु कृष्ण, अर्जुन के माध्यम से समाज का यह विवेक जागृत करना चाहते हैं कि एक्शन का अनुकरण करते समय कारण का संज्ञान न लिया जाए तो कृत्य ढोंग बन जाता है।
...दो घंटे पहले यह लेख लिखना प्रारंभ किया था। सोचा था लड्डू गोपाल जैसे किसी छोटे से लेख से जन्माष्टमी की बधाई दे दूंगा, लेकिन यह लेख स्वतः ही विराट होता चला गया। फिलहाल यहीं विराम लेता हूँ। कन्हैया के अनुराग के वशीभूत किसी दिन मेरी मनसुखा सी लेखनी फिर नाची तो इस विषय पर और लिखूँगा।

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, September 3, 2023

अस्तित्व का मूल्य

हाँ, जगत् में एक कण के अंश-सा अस्तित्व हूँ मैं
पर मेरा व्यक्तित्व इस कण की चमक दुगुनी करेगा
हाँ, समय में एक क्षण के अंश-सा अस्तित्व हूँ मैं
पर मेरा व्यक्तित्व इस क्षण की दमक दुगुनी करेगा

साँस है बस दास प्राणों की किसी आह्लाद के बिन
हर इमारत ताश का घर है महज; बुनियाद के बिन
वक़्त पर बोला नहीं जो, क्या भला जीवन जिया वो
ज्यों कहानी में कोई किरदार हो संवाद के बिन
हाँ, समर में मात्र रण के अंश सा अस्तित्व हूँ मैं
पर मेरा व्यक्तित्व इस रण की धमक दुगुनी करेगा

कृष्ण जिसका छत्र धारें, मैं वो गोवर्धन नहीं हूँ
देव जिस पर पर पुष्प वारें, कालिया मर्दन नहीं हूँ
बाँसुरी की तान, माखन, मोरपंखी, भी नहीं मैं
चक्र का नर्तन नहीं हूँ, शंख का गुंजन नहीं हूँ
कुंजवन में एक तृण के अंश सा अस्तित्व हूँ मैं
पर मेरा व्यक्तित्व इस वन की गमक दुगुनी करेगा

मैं पराजित गिद्ध जैसा पात्र हूँ, सीताहरण में
मैं हूँ बूढ़े रीछ का प्रेरक वचन, लंकादहन में
देखने में गौण हूँ फिर भी कथा का भार मुझ पर
मैं किसी रथचक्र-सा बेमोल, अभिमन्यु मरण में
कर्ण के किस्से में बिच्छू दंश-सा अस्तित्व हूँ मैं
पर मेरा होना, किसी प्रण की रमक दुगुनी करेगा

~चिराग़ जैन