Thursday, September 7, 2023

कृष्ण का तो चक्र भी 'सुदर्शन' है

नंदलला, कन्हैया, कान्हा, गिरिधर, मुरलीधर, गोपाल, मोहन, गोविन्द, मधुसूदन, केशव, रणछोड़, माधव, श्याम, वासुदेव, पीताम्बर... और भी दर्जनों संज्ञाएँ मिलकर थोड़ी-थोड़ी झलक भर दे पाती हैं एक कृष्ण की। और ये सब संज्ञाएँ कृष्ण के नाम भर नहीं हैं, अपितु ये सब नाम कृष्ण के जीवन के अलग-अलग किस्सों के शीर्षक हैं, जिनको एक क्रम में लगा देने से कृष्ण की कथा बन जाती है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि इनमें से कोई भी किस्सा अपनी पूर्णता के लिए किसी अन्य किस्से पर निर्भर नहीं है, लेकिन फिर भी जब इन अलग-अलग मोतियों को एक सूत्र का पथ मिल जाए, तो ये सब मिलकर ‘एक’ हो जाते हैं।
यह इसलिए संभव हो पाता है कि कृष्ण, जीवन के प्रत्येक पल को भरपूर जीते हैं। हर क्षण में व्याप्त जीवन का रस भोगने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि फिर उस क्षण को लादकर अगले क्षण तक ले जाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। क्षण तो दूर की बात है, उस क्षण की स्मृति भी अगले किसी क्षण तक यात्रा करने का साहस नहीं जुटा पाती। कृष्ण जहाँ हैं, वहाँ अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ हैं। यही कारण है कि कृष्ण कथा के पीछे नहीं भागते, उल्टे कथा ही कृष्ण के पीछे भागती प्रतीत होती है।
जीवन को पूर्णता से जी लेना ही वह तृप्तिबोध है, जो व्यक्ति को आकांक्षा, उत्कंठा और अपेक्षा से मुक्त कर देता है। कृष्ण की पूरी कथा में वे कहीं भी भाग्य से रुष्ट नहीं दिखाई देते। क्योंकि कृष्ण, समय की सूक्ष्मतम इकाई को भी, समय की नदिया से विलग करके जीना जानते हैं।
इसीलिए कृष्ण का कोई एक किस्सा, किसी दूसरे किस्से पर निर्भर नहीं है। नंदबाबा के घर मे पलता कन्हैया, पूरी तरह अपने बालसुलभ दृश्यों से कथा को अपने इर्द-गिर्द सम्मोहित कर लेता है। यहाँ बचपन के रस में कृष्ण इतने सराबोर हैं कि वीभत्स शत्रुओं का वध करने के लिए भी बालपना नहीं त्यागते। अपितु उसी सहजता से शत्रु को परास्त करते हैं, ज्यों कोई नवजात स्तनपान कर रहा हो; ज्यों पालने में किलोल करता कोई बालक हाथ-पैर चला रहा हो।
कृष्ण कालिया दाह में भी ‘गेंद’ के पीछे कूदते हैं और किसी अबोध बालक के समान ही भयानक विषधर के फन पर नृत्य करते हुए प्रकट होते हैं। यदि यहाँ बालपन छोड़कर कृष्ण, विजेता बन जाते तो वे कालिया पर नाचते हुए नहीं, बल्कि उसको मारते हुए कालिंदी से बाहर आते। यदि इसी दृश्य में कृष्ण पर्यावरण की चिंता करनेवाले ज्ञानी बन जाते तो उन्हें कालिया से भयभीत होना पड़ता, क्योंकि ज्ञान भय का सहोदर है। लेकिन कृष्ण न तो विजेता के अहंकार से युक्त हुए, न ज्ञानी के भय से... वे तो अबोध बालक के समान भयावह दृश्य में कलरव करते दिखाई देते हैं।
उधर गौवर्द्धन को तर्जनी पर रखनेवाले कृष्ण, एक किशोर होते बालक के समान ही जिज्ञासा से उत्पन्न कौतूहल में वह असंभव कार्य कर लेते हैं, जो अन्य किसी मनोदशा में संभव नहीं है। कैशोर्य के द्वार पर खड़ा बालक, अपने समाज की परंपरा पर प्रश्न उठा सकता है। चूँकि अभी वह आस्था की अनुत्तरित वीथियों में गुम नहीं हुए हैं, इसलिए वे पूजित की उपादेयता पर भी तर्कयुक्त प्रश्न उठा लेते हैं। क्योंकि वे तर्क से उत्पन्न ऊर्जा से संचालित हैं, इसीलिए वे किसी की सत्ता का अंधानुकरण करने के स्थान पर उसके भय को न केवल चुनौती देते हैं, अपितु उसका विकल्प उपस्थित करके उसके अनुयायियों को परंपरा की लीक तोड़ने के लिए तैयार भी कर लेते हैं।
कृष्ण के ये सब किस्से उद्वेग तथा उत्तेजना से दूषित नहीं हैं। इसीलिए कृष्ण ‘माधुर्य’ के अधिपति हैं। कृष्ण की बाँसुरी से लेकर उनके पांचजन्य तक सब मधुर हैं। कृष्ण का तो चक्र भी ‘सुदर्शन’ है। इसी कारण कृष्ण के व्यक्तित्व में प्रेम की अथाह संभावना मिलती है। बालसुलभ शरारतों की तरह माखन चुरानेवाले कृष्ण, इस चोरी के लिए गोपियों के कोप के नहीं, प्रेम के भाजन बनते हैं। प्रेम, कृष्ण के व्यक्तित्व का अद्र्धांग है। प्रेम से गढ़े गए व्यक्तित्व का रास भी स्तुत्य होता है। प्रेम से युक्त मनुष्य अश्लील हो ही नहीं सकता। वह तो पीताम्बर धारण किए किसी योगी की भाँति प्रेम की पावनता का भोग करता है। वह देह की सीमाओं के पार, प्रेम की विदेह सम्पदा का रसिया हो जाता है। क्योंकि वहाँ देह महत्त्वहीन है इसीलिए कृष्ण को स्त्रीवेश बना लेने में भी कोई आपत्ति नहीं होती। वहाँ स्त्री-पुरुष जैसा कुछ है ही नहीं, वहाँ तो कोरा प्रेम है। ऐसा प्रेम, जो होली के अलग-अलग रंगों की तरह एक-दूसरे में ऐसे मिल गए हैं कि सभी रंग अपनी पहचान छोड़कर एक नए रंग की सर्जना कर देते हैं, यही रंग प्रेम का रंग है, यही रंग कृष्ण का रंग है।
प्रेम से सिक्त कृष्ण को देखकर ऐसा लगता है कि अब इस कथा में कुछ शेष नहीं रहा। किन्तु कृष्ण यहीं नहीं रुकते। वे एक झटके में प्रेम का यह कुंजवन त्यागकर कत्र्तव्यपथ पर कदम बढ़ा देते हैं। समान्य बुद्धिवाले लोग कथा के इस बिंदु पर कृष्ण को निर्मोही कह सकते हैं। गोपियों के विरह से विचलित संसारी जीव इस बिंदु पर कृष्ण को क्रूर न कह दें इसीलिए कथाकार ने कृष्ण को गोकुल से मथुरा लिवा लाने के लिए जिसे भेजा है, उसका नाम ‘अक्रूर’ है।
कृष्ण का व्यक्तित्व ‘स्वीकार’ का व्यक्तित्व है। वे मन के विरुद्ध उत्पन्न परिस्थितियों को स्वीकार करने में अग्रणी रहते हैं। इसीलिए वे अपने भूतकाल के बोझ से अपने वर्तमान को प्रभावित नहीं होने देते। इसीलिए कंस का वध करनेवाले कृष्ण, गोकुल के कन्हैया से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए कंस सरीखे बलवान शासक को मार देनेवाले कृष्ण, कालयवन की छाती पर चढ़कर उसे परास्त नहीं करते, अपितु युगों की पोथियों से खोजकर वह युक्ति निकालते हैं, जिससे शत्रु के वरदान का कवच भेदन किया जा सके। कृष्ण, लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं किंतु मार्ग को भी निरर्थक नहीं होने देते। वे इस दृश्य में यह संदेश देते हैं कि किसी अपयश से बचने के लिए युद्ध हार जाने से श्रेष्ठ है कि ‘रणछोड़’ बनकर विजय प्राप्त की जाए।
कृष्ण की यही युक्तिसंगत चेतना उन्हें पूर्ण बनाती है। परम्परा से परे रहकर जीने की उनकी यही चेष्टा उन्हें अपराजेय बनाती है। कृष्ण अनप्रेडिक्टेबल हैं। कृष्ण की सोच का कोई मैथड ड्रॉ नहीं किया जा सकता। कृष्ण के एक्शन्स का कोई पैटर्न ड्राफ्ट नहीं किया जा सकता। कृष्ण सोच के ठीक विपरीत कार्य कर सकते हैं। युद्ध के मैदान में गीता बाँचना विश्व में विरोधाभास का उत्कृष्ट उदाहरण है। और गीता भी ऐसी-वैसी नहीं, समय की अजगरी धाराओं पर भी प्रासंगिक बने रहनेवाला अद्वितीय प्रवचन है गीता। गीता को पढ़ो तो आभास होता है कि युद्ध घटित हो सके इसके लिए गीता नहीं गढ़ी गई है, बल्कि गीता उत्सर्जित हो सके, इसके लिए युद्ध गढ़ा गया है। कुरुक्षेत्र की उपलब्धि अर्जुन का शौर्योपयोग नहीं है। कुरुक्षेत्र का प्राप्य युधिष्ठिर का राज्याभिषेक नहीं है। कुरुक्षेत्र का हासिल तो श्रीमद्भागवत गीता है।
सुदर्शन से युक्त होकर भी रथचक्र को अस्त्र बना लेने का कृत्य शत्रु के आत्मविश्वास पर आक्रमण है। कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि सुदर्शन उपलब्ध होने के बावजूद कोई रथ का पहिया उठाकर फेंकने लगेगा। जिस पर आक्रमण हुआ, उसने अपना पूरा अवधान सुदर्शन से बचने पर केंद्रित किया होगा। पहिये से बचने के लिए उसने कोई नीति ही नहीं बनाई होगी।
सुभद्रा विवाह, विदुर के घर भोज, मित्र का सारथी बनने की स्वीकृति... यह सब परंपराओं के विरुद्ध अपने व्यक्तित्व का स्वीकार विराट कर लेना है। कृष्ण अपने ही आचरण के ठीक विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं। युद्ध के उन्माद में अंधे हुए जा रहे पांडवों को टोकते हुए जो कृष्ण शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं, वही कृष्ण, युद्ध से विरक्त हो रहे अर्जुन को युद्धोन्मुख करते हैं। यह कृष्ण का अपनी बात से पलट जाने जैसा प्रतीत होता है, किंतु इस विरोधाभास में यह स्पष्ट है कि सही और गलत की परिभाषा समय-स्थान-परिस्थितियों के अनुरूप बदलती हैं। जब कृष्ण शांति का संदेश लेकर गए तब युद्ध रोकने के लिए विराट रूप धारण कर लिया। और जब सारथी बनकर कुरुक्षेत्र में आ पहुँचे तब युद्ध करवाने के लिए विराट हो गए। अर्जुन के रण छोड़ देने से कृष्ण के प्रति उनकी मित्रता पर कोई प्रभाव न पड़ता, क्योंकि कृष्ण तो स्वयं रणछोड़ हैं। किन्तु कृष्ण, अर्जुन के माध्यम से समाज का यह विवेक जागृत करना चाहते हैं कि एक्शन का अनुकरण करते समय कारण का संज्ञान न लिया जाए तो कृत्य ढोंग बन जाता है।
...दो घंटे पहले यह लेख लिखना प्रारंभ किया था। सोचा था लड्डू गोपाल जैसे किसी छोटे से लेख से जन्माष्टमी की बधाई दे दूंगा, लेकिन यह लेख स्वतः ही विराट होता चला गया। फिलहाल यहीं विराम लेता हूँ। कन्हैया के अनुराग के वशीभूत किसी दिन मेरी मनसुखा सी लेखनी फिर नाची तो इस विषय पर और लिखूँगा।

✍️ चिराग़ जैन

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