ठीक इसी तरह वर्तमान दुर्घटनाओं के लिए न कुम्भ दोषी है, न धर्म और न ही सरकार। इन सब हादसों की अपराधी है अपना विवेक गंवा चुकी जनता।
राजनीति तो हमेशा ही विवेक की आंखें फोड़कर सत्ता पर अधिकार करती रही है। राजनीति की तो यह प्रवृत्ति ही है। किन्तु राजनीति के गलियारों से चलनेवाली उन्माद की आँधी में अपनी व्यवस्था की धज्जियाँ देखकर ताली पीटना आश्चर्यजनक है।
महाभारत इसलिए वीभत्स नहीं था कि उसमें शव गिरे थे, महाभारत इसलिए भयानक था कि उस युद्ध में मृतक के संबंधी शोकाकुल कम और उन्मादी अधिक हो रहे थे।
उन्माद किसी का हित नहीं कर सकता। उन्माद किसी की रक्षा नहीं कर सकता। श्रद्धा की भी एक मर्यादा होती है। नदी में बहता नीर अमृत कहलाता है, किन्तु यही अमृत जब तटबंध तोड़कर जीवन को लीलने लगता है तो इसे माथे नहीं चढ़ाया जाता। मर्यादाहीन नदी भी निंद्य हो जाती है। ऐसे में मर्यादाहीन आस्था कैसे हितकर हो सकती है।
जो लोग परस्पर कुम्भस्नान की याद दिला रहे हैं, वे ही शासन को व्यवस्थित संसाधनों की याद दिलाते रहेंगे तो कुंभकर्ण की नींद सोने वाले जाग सकते हैं। नई दिल्ली स्टेशन पर मरनेवालों के मन में अंतिम समय कुम्भ के प्रति आस्था अधिक रही होगी या व्यवस्था के प्रति क्रोध अधिक रहा होगा या फिर असभ्य नागरिकता के प्रति निराशा... यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन यह सत्य है कि धर्म की ओट में खड़ी नाकारा व्यवस्था ने जिस कपड़े में अपना मुँह चुराया है, उसका रेशा-रेशा जनता के अविवेक से बना है।
.किसी का कद नहीं ऊँचा हुआ है
मेरी आवाज़ छोटी हो गई है
✍️ चिराग़ जैन
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