आज फिर से संभलना पड़ेगा
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा
आँख से तुम बरसने न दो बदलियाँ
काँपकर सब बयां कर न दें उंगलियाँ
चल न आना मेरी ओर सब भूलकर
बोलने लग न जाएँ कहीं पुतलियाँ
नेह को कब दिखी कोई सीमा
देह को ही समझना पड़ेगा
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा
उस घड़ी किस तरह से जिया जाएगा
तुमको परिचय हमारा दिया जाएगा
साँस की चाल कैसे रहेगी सहज
होंठ को किस तरह से सिया जाएगा
जब संभाले न संभलेंगे आँसू
उस घड़ी खूब हँसना पड़ेगा
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा
अपनी चाहत से नज़रें चुराते हुए
जी रहे थे स्वयं को भुलाते हुए
भाग्य, जिसने हमें तब अलग कर दिया
आज हिचका न हमको मिलाते हुए
तब बिछड़कर सिसकते थे हम-तुम
आज मिलकर सिहरना पड़ेगा
✍️ चिराग़ जैन
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