हम तब तक किसी काम को टालने का प्रयास करते हैं, जब तक उस कार्य को करना अपरिहार्य न हो जाए। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। काम को टालने के हमारे पास अनगिनत उपाय हैं। और उचित अवसर की प्रतीक्षा, कार्य को टालने का सर्वाधिक प्रयुक्त बहाना है।
जिसे कार्य करना होता है, वह कार्य कर देता है। किसी कार्य को करने का एक ही तरीका है, कि उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रारंभ किया जाए।
विश्व का कोई पथप्रदर्शक आपको चलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। वह तर्जनी को किसी दिशा मे बढ़ाकर आपको रास्ता तो दिखा सकता है, किंतु हथेलियों से आपको उस रास्ते पर धकेल नहीं सकता। धकेलने से कोई रास्ता तय होता भी नहीं है। रास्ता तो चलने से तय होता है। इसलिए पथ प्रदर्शन का दायित्व दिशा दिखाने तक सीमित है। चलना तो आपको स्वयं ही होगा।
बुद्ध, महावीर जैसे ऊर्जावान मनुष्यों ने भी आपको मार्ग दिखाया, वे आपका हाथ पकड़कर आपको मोक्ष तक नहीं ले जा सके। यहाँ तक कि कृष्ण, जो अर्जुन के सारथी बनकर उनका रथ हाँक रहे थे, वे भी अर्जुन के लिए युद्ध न कर सके। गांडीव तो अर्जुन को स्वयं ही उठाना पड़ा।
पूरी प्रकृति स्वावलंबन के इसी सिद्धांत से संचालित है।
यही कारण है कि जीवन के लिए आवश्यक किसी भी ज्ञान का अर्जन करने के लिए दुनिया के किसी प्राणी को किसी संस्थान मे जाने की आवश्यकता नहीं होती। सद्यजात शिशु, साँस लेने के लिए किसी पाठ्यक्रम का अध्ययन नहीं करता। पलकें झपकने से लेकर चलने, बोलने और सोने-जागने तक कि शिक्षा के लिए कहीं कोई संस्थान नहीं है। भूख लगने पर कोई प्राणी भोजन का कौर, पेट की ओर नहीं ले जाता। पेट मे उत्पन्न जठराग्नि को शांत करने के लिए नन्हें से नन्हा प्राणी भी मुँह के रास्ते ही भोजन ग्रहण करता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त स्वावलंबन का सर्वोत्कृष्ट प्रमाण है।
संतानोत्पत्ति, आत्मरक्षा और अभिव्यक्ति सीखने के लिए भी पाठ्यक्रम आवश्यक नहीं है। ये क्रियाएं भी प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुणों में सम्मिलित हैं।
आवश्यक अभिव्यक्ति के लिए जितनी भाषा जाननी चाहिए, वह प्रकृति ने हर प्राणी को सिखा दी है। और प्रकृति द्वारा सिखाई गई ये भाषा कंठ ही नहीं अपितु आँखों, श्वास, हाथों, चेहरे और नथुनों तक से बोलना जानती है। सम्भवतः यही कारण है कि अभिव्यक्ति जब अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है तब शब्द गौण हो जाते हैं। उस समय आँसू न जाने किस स्रोत से निकलकर नयनों से बह निकलते हैं।
विश्व के जितने भी शिक्षण संस्थान हैं, वे प्राणी को प्रकृति के स्वाभाविक संतुलन से दूर ले जाकर, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम बताते हैं। यदि हम प्राकृतिक होने का अभ्यास करें तो किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं होगी। बल्कि यों कहें कि हम ज्यों-ज्यों सिखाए गए ज्ञान से मुक्त होते जाएंगे त्यों-त्यों प्राकृतिक होते जाएंगे। कृत्रिमता का लोप ही प्राकृतिक हो जाना है।
प्रकृति की योजना हमारी योजनाओं से अधिक सुचारू तथा दोषरहित है। प्रकृति की योजना और हमारी योजना में ठीक वही अन्तर है जो अन्तर वन तथा उद्यान में होता है। उद्यान एकाएक सुव्यवस्थित लगते हैं, किन्तु वे स्वावलंबी नहीं होते। उन्हें अनवरत संवारना पड़ता है। जबकि जंगल की कोई देखरेख नहीं करनी पड़ती, वह अपने वृक्ष स्वयं लगा लेता है। उद्यान स्वावलंबी हो जाए तो वह जंगल बन जाएगा और जंगल पराश्रित जो जाए तो वह उद्यान जैसा लगने लगेगा।
प्रकृति स्वावलंबन की पक्षधर है, इसलिए प्रकृति की ऊर्जा स्वावलंबी प्राणियों के साथ एकाकार हो जाती है और पराश्रित के भीतर जो आलस्य है, वह प्रकृति द्वारा उत्पन्न विरोध है।
✍️ चिराग़ जैन
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