Tuesday, December 9, 2008

रिस्क

मेरे भीतर
दौड़ना चाहती है
इक नदी
दरदरे रेगिस्तान की ओर।

मस्तिष्क ने कहा-
"रिस्क है इसमें।"

मन बोला-
"जुआ ही तो है
या तो लहलहा उठेगा
रेगिस्तान
या दरदरा जाएगी
नदी!"

© चिराग़ जैन

Thursday, October 9, 2008

संकल्प

मैं ये दावा नहीं करता कि दुनिया को बदल दूंगा
मगर जो रास्ता सच का हो, उस रस्ते पे चल दूंगा
मेरा अधिकार है चिंतन पे, संकल्पों पे, कर्मों पे
मैं ये संकल्प लेता हूँ कि सत्कर्मों पे बल दूंगा

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 30, 2008

इरादा

तेरे मन में भी इक इरादा है
मेरे मन में भी इक इरादा है
वक्त क़ी आंधियाँ बताएंगीं
कौन मजबूत कितना ज्यादा है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 18, 2008

प्रेम के रंग से निखारो

जैसा चाहो जवाब दो इसको
दुनिया ऐसा सवाल है यारो
प्रेम के रंग से निखारो तो
ज़िन्दगी बेमिसाल है यारो

© चिराग़ जैन

Monday, September 15, 2008

इश्क़

उम्र के इक पड़ाव पर जाकर
इश्क़ सबको दुलारता होगा
कभी चेहरा निहारता होगा
कभी गेसू संवारता होगा

© चिराग़ जैन

Thursday, August 28, 2008

कोई यूँ ही नहीं चुभता

मैंने कौन-सी कविता कैसे लिखी, इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए असंभव-प्रायः है। भावनाओं के सागर में उठे ज्वार ने अन्तस् की धरती पर कैसा रेणुका-चित्र अंकित किया -यह तो सबको दिखाई देता है, लेकिन इस चित्र के सृजन की त्वरित प्रक्रिया में लहर कैसे उठी; कैसे धरती पर न्यौछावर हुई; कैसे उसने रेत को काटा और कैसे वह वापस लौट गई - इन दृश्यों के साक्षी तो बहुत हैं, समीक्षक कोई नहीं।

मैंने अपने भीतर कविता के प्रस्फुटन को चाहे समझा न हो, देखा अवश्य है। सहज साक्षीभाव से सृजन की आकुलता को अनुभूत किया है। मन के भीतर गुंजायमान काव्य-ध्वनियों का दिन-रात पीछा किया है और अनुभूति से अभिव्यक्ति के बीच, यात्रा की जटिलताओं से साक्षात्कार किया है।

मुझे मालूम है कि मैं किसी कविता के अवतरण का माध्यम हो सकता हूँ, निमित्त हो सकता हूँ, रचयिता नहीं। इसी सत्य को जानते हुए, मैंने कभी कविता लिखने के लिए प्रयास नहीं किए। अभिव्यक्ति में बदलती अनुभूति की विधा के साथ कभी छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की। बल्कि उद्वेलन की पराकाष्ठा पर पहुँचकर इन रचनाओं ने स्वयं ही अपने अवतरण का निमित्त बनाकर मुझे कृतार्थ किया है। मैंने तो अन्तस् में कहीं दूर गूंजती हुई ध्वनियों को सुनकर, गणपति भाव से उन्हें यथावत् काग़ज़ पर उतारने से अधिक कुछ भी नहीं किया।

जैसे मधुमास में लाल-लाल फूलों से लदने से पहले गुलमोहर के छोटे-छोटे पत्ते स्वतः ही झरने लगते हैं। ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का आसन त्यागकर विराट धरातल पर आ उतरते हैं। ठीक उसी प्रकार, कविता भी एक अजीब सी मस्ती लिए स्वेच्छा से ही शब्दों का रूप धारण करती है। काव्य की यह मस्ती स्वयं काव्य को तो आह्लादित करती ही है, साथ ही साथ संसर्गियों के मन में भी एक पावन-सी ऊर्जा, एक सात्विक-सा रोमांच उत्पन्न करती है। इस परिस्थिति में शब्द तलाशने नहीं पड़ते; तुक मिलाने नहीं पड़ते; मात्राएँ गिननी नहीं पड़तीं और धुनें बनानी नहीं पड़ती! सब कुछ स्वतः घटित होता है, एकदम सहज... सत्य-सा...! और ध्यानस्थ योगी-सा कवि, नितान्त अकेला... अकिंचन.... रचना का अवलम्बन बनकर सुखसागर में गोते लगाता है। 

अनहद नाद के समान अन्तस् में गूंजते इन काव्य स्वरों के पाश्र्व में, जो कारक विद्यमान होते हैं, उनके बूते ही अनुभूति से अभिव्यक्ति की दुर्गम यात्रा पूर्ण हो पाती है। सो, मैं आभारी हूँ उन स्थितियों, परिस्थितियों, योग तथा मनुष्यों का, जो किसी भी रूप में मेरी अनुभूति के कारक बने और अभिव्यक्ति के साक्षी रहे। साथ ही आभार व्यक्त करता हूँ, उन अपनों का जिनके स्नेहावलम्बन को पकड़ मेरा रचनाकार अब तक की यात्रा तय कर सका!

काव्य का दिव्य अवतरण मेरे माध्यम से यूँ ही काग़ज़ों पर होता रहे और माँ शारदे का आशीष सदैव मेरे अन्तस् में काव्य-प्रस्फुटन का रूप धरकर फलीभूत होता रहे!

© चिराग़ जैन

Sunday, August 24, 2008

माखनचोर

कान्हा के किरदार का, कोई ओर न छोर
इक पर वो जगदीश है, इक पल माखनचोर

गोपी, ग्वाले, बांसुरी, रास, नृत्य, बृजधाम
ये सारा कुछ कृष्ण का, केवल इक आयाम

© चिराग़ जैन

Thursday, August 21, 2008

राम ने खोया बहुत श्रीराम बनने के लिए

त्याग दी हर कामना निष्काम बनने के लिए
तीन पहरों तक तपा दिन, शाम बनने के लिए
घर, नगर, परिवार, ममता, प्रेम, अपनापन, दुलार
राम ने खोया बहुत श्रीराम बनने के लिए

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 20, 2008

ख़ुशियों को ज़ंजीर

लिखे किसी ने गीत तो समझो, मन को गहरी पीर मिली
सृजन हुआ उन्मुक्त तभी जब, ख़ुशियों को ज़ंजीर मिली
किस्से बने, कहानी फैली, चित्र सजे, कविता जन्मी
पर न मिली मजनू को लैला, ना रांझे को हीर मिली

© चिराग़ जैन

Thursday, August 14, 2008

देश को महान कौन करता

यदि इतिहास वाले लोग हम जैसे होते
बोलो दुविधाओं का निदान कौन करता
झाँसी वाली रानी कर लेती समझौता गर
राष्ट्र के निमित्त बलिदान कौन करता
भगत भी चाटुकारों वाली भाषा सीख लेते
भारतीयता पे अभिमान कौन करता
नेताजी सुभाष औ पटेल होते स्वार्थी तो
फिर मेरे देश को महान कौन करता

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 15, 2008

ग़रीबी

रुके आँसू, दबी चीखें, बंधी मुट्ठी, भिंचे जबड़े
इन्हीं के तर्जुमे से मुल्क़ में विस्फोट होता है
ये बम रखने का काम अच्छा-बुरा औरों की ख़ातिर है
ग़रीबी के लिए तो सिर्फ़ सौ का नोट होता है

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 1, 2008

ख़ुशियों की तस्वीर

मन के आंगन में मुस्कानों की जागीर बनानी है
अपने ही हाथों से ख़ुद अपनी तक़दीर बनानी है
हम कुछ रंग चुरा लाए हैं ख़ुशियों के गुलदस्ते से
इन रंगों से हमको जीवन की तस्वीर बनानी है

© चिराग़ जैन

Monday, May 5, 2008

बेमतलब का डर

तेरा अहसास मेरे दिल में ही पलता रहा बरसों
बयाने-दिल किसी डर से यूँ ही टलता रहा बरसों
तेरा दिल भी मेरी ख़ामोशियों को कोसता होगा
मेरे दिल को भी बेमतलब का डर खलता रहा बरसों

© चिराग़ जैन

Monday, April 28, 2008

बहाना अनबन का

तू मेरे मन भा जाए या मैं तेरे मन भा जाऊँ
तू मुझसे जुड़ता जाए या मैं तुझसे जुड़ता जाऊँ
आओ तलाशें कोई बहाना अनबन का, इससे पहले
तू मुझसे उकता जाए या मैं तुझसे उकता जाऊँ

© चिराग़ जैन

Monday, April 21, 2008

इक मुक़म्मल बयान

प्यार कब बेज़ुबान होता है
लफ्ज़ बिन दास्तान होता है
आँख तक बोलने लगें इसमें
इक मुक़म्मल बयान होता है

© चिराग़ जैन

Sunday, April 13, 2008

वो कश्मीर हमारा है

हिमगिरि की गोदी में पसरा जो इक हरा बगीचा है
जिसकी झीलों को पुरखों ने स्वेदकणों से सींचा है
जिसके कण-कण में भारत की सौंधी ख़ुश्बू बिखरी है
जिसके प्रांगण में हरियाली दिव्य रूप में बिखरी है
जहाँ धरा पर स्वर्ग सरीख़ा अद्भुत भव्य नज़ारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

एक ओर हरियाली घाटी हरा रंग लहराती है
श्वेत बर्फ़ से ढँकी चोटियाँ चांदी बन छा जाती हैं
सांझ-सवेरे सूरज झीलों के पानी को रंगता है
इसी तरह कश्मीर रोज़ दो बार तिरंगा बनता है
स्वयं प्रकृति ने दुनिया भर को हर दिन दिया इशारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

अमरनाथ से हरगिज़ अपना रिश्ता तोड़ नहीं सकते
मानसरोवर जाने वाली राहें छोड़ नहीं सकते
‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ स्वर से गुंजित लद्दाख जहाँ
हम उस पुण्य धरा से पल भर भी मुख मोड़ नहीं सकते
जिसे आस्था भरी दृष्टि से अपलक नित्य निहारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

जिन शिखरों ने सीमा-प्रहरी का किरदार निभाया है
जिसके गीतों को बच्चों ने विद्यालयों में गाया है
जिसके दम पर पूरा भारत सदा रहा निश्चिंत-निडर
कैसे माने भारत कि वो पर्वतराज पराया है
सेल्यूकस-सा विश्व विजेता जिसके आगे हारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

सवा पाँच सौ काबिल बेटे इक करगिल पर वार दिए
अरबों-खरबों रुपए इसकी रक्षा हेतु निसार दिया
जिसके जन-जन की ख़ुशियों की लेते ज़िम्मेदारी हम
भला दान मेें कैसे दे दें वो केसर की क्यारी हम
नज़र गड़ी जिस पर चोरों की, जो अनमोल सितारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

बेशक़ हम शिव के वंशज हैं, विष धारण कर सकते हैं
लेकिन वक़्त पड़े तो शंकर तांडव भी कर सकते हैं
कर्ण दान में दे सकते हैं निज रक्षा के साधन भी
लेकिन धर्म नीति से हमने जीते बीसों रावन भी
क्षमा विवशता नहीं हमारी, ये स्वभाव हमारा है
दुनिया माने या ना माने वो कश्मीर हमारा है

© चिराग़ जैन

Saturday, April 12, 2008

बचपन नहीं जाता

अगर कुछ शोख़ियों की ओर उसका मन नहीं जाता
तो फिर इंसान के मन से कभी बचपन नहीं जाता

कोई कितना भी ख़ुद को सख्त दिल कहता रहे लेकिन
कभी यादों से पहले प्यार का सावन नहीं जाता

भले ही मिट गया दीवार का नामो-निशां भी अब
मगर मेरे ज़ेह्न से वो बँटा आंगन नहीं जाता

चुभन ही क्यों बहुत लम्बे समय तक याद रहती है
मिरे मन से वो इक पल का परायापन नहीं जाता

किसी के रूठ जाने पर जो पीछे छूट जाते हैं
बहुत दिन तक उन अपनों का अकेलापन नहीं जाता 

© चिराग़ जैन

Thursday, March 20, 2008

अवतारी बालक

जीवन के जिस मौसम में आँखें सपने पाला करती हैं
कुछ रंग-बिरंगी उम्मीदें जब होश संभाला करती हैं
पलकों के भीतर कोई अनगढ़ मूरत ढाली जाती है
सरगम साँसों की वीणा पर प्रियतम के गीत सुनाती है

वो मौसम जिसमें अपने कुछ कानून बनाए जाते हैं
वो मौसम जिसमें मिलन-विरह के नग़में गाए जाते हैं
वो मौसम जिसमें दुनियादारी से चिढ़ होने लगती है
वो मौसम जब आँखें अपनी दुनिया में खोने लगती हैं
वो मौसम जिसमें प्रीतम सारे जग से ऊँचा होता है
वो मौसम जब दो बाँहों में संसार समूचा होता है
वो मौसम जिसमें लोगों को दुनिया का तौर नहीं दिखता
वो मौसम जिसमें साजन से बढ़कर कुछ और नहीं दिखता
उस मौसम में इक बालक को जंज़ीर दिखाई देती थी
भारत माता की पीड़ा, आहें, पीर दिखाई देती थी
उस मौसम में इक बालक भारत मां की पूजा करता था
धरती की ख़ातिर जीता था, धरती की ख़ातिर मरता था
उस मौसम में इक बालक खेतों में बन्दूकें बोता था
मां की पीड़ा का अनुभव कर भीतर ही भीतर रोता था

उसके मन के भीतर जाने कैसा लावा सा गलता था
उसकी गीली आंखों में आज़ादी का सपना पलता था
उसकी आवाजे़ें अंग्रेजों के नक्कारों पर भारी थीं
उसकी बातों में स्वाभिमान वाली स्वर्णिम चिंगारी थी
ईश्वर ने स्वाभिमान की मानो मूरत एक बनाई थी
जिसने सतपथ पर चल अपनी जीवन वसुधा महकाई थी
वो जागा तो भारत की सोई जवानी ने अंगड़ाई ली
वो निकला तो आज़ादी की देवी ने आ अगुआई की
वो झूमा तो ऐसा झूमा, दुश्मन की नींवें हिला गया
वो गूंजा तो ऐसा गूंजा, लंदन तक हल्ला मचा गया
वो हंसते-हंसते फांसी पर झूला; दुश्मन थर्राया था
वो एक कटा तो गली-गली में भगतसिंह उग आया था
वो लक्ष्मण, भरत, भीष्म, अर्जुन की एक सकल प्रतिच्छाया था
वो मां के कष्ट मिटाने को अवतारी बनकर आया था

✍️ चिराग़ जैन

Thursday, February 14, 2008

लरजिश हमारे लहजे में

कहाँ अचानक मिले हैं हम-तुम, यहाँ के मौसम में शायरी है
जवान रुत, मदभरी हवाएँ, ये शाम जैसे ठहर गई है

महकती रुत उनके सुर्ख़ नाज़ुक लबों को छूकर बहक रही है
सनम के भीगे बदन की लरजिश हमारे लहजे में आ गई है

जो सोच की हद में आ गया हो, वो चाहे जो भी हो आदमी है
किसी तरह भी समझने से जो, समझ न आए, ख़ुदा वही है

शराब पीकर बहकने वालों को उस नशे की ख़बर नहीं है
वो उम्र भर फिर सँभल न पाया, रसूल की जिसने मय चखी है

नज़र में शोख़ी, ज़ुबां में नरमी, बदन में मस्ती, लबों पे सुर्ख़ी
ये हुस्ने-जाना है या ख़ुदा ने, कोई सरापा ग़ज़ल कही है

© चिराग़ जैन

Friday, January 25, 2008

तेरी दुश्मनी भी क़माल है

न जहाँ में तेरा जवाब है, न नज़र में तेरी मिसाल है
तेरी दोस्ती भी क़माल थी, तेरी दुश्मनी भी क़माल है

क्या हसीन खेल है ज़िन्दगी, कभी ग़मज़दा, कभी ख़ुशनुमा
कभी एक उम्र का ग़म नहीं, कभी एक पल का मलाल है

मेरी सोच बदली तो साथ ही, मेरी ज़िन्दगी भी बदल गई
कभी मुझको उसका ख़याल था, कभी उसको मेरा ख़याल है

ज़रा ये बता दे कहाँ गईं, तेरी दोस्ती, तिरी उल्फ़तें
मुझे अपने ग़म से गरज़ नहीं, तेरी रहमतों का सवाल है

तेरी राह मुझसे बदल गई, कि ये वक़्त थोड़ा बदल गया
तब दूर जाना मुहाल था, अब साथ रहना मुहाल है

© चिराग़ जैन