Sunday, June 26, 2016

कला का मुँह काला कर दिया जाए

"कला का मुँह काला कर दिया जाए" -ये हुक्म अपने आप को दिया है कलयुग के कुकर्मियों ने। कोलाहल पर किलोल की विजय न हो जाए। अपनी महत्वाकांक्षाओं को मनोरंजन के सत्य भाषण से बचाने के लिए सियासत रोज़ नए पैंतरे खेल रही है। कोई मुज़फ्फरनगर के दंगों पर बोलने लगे तो उलेमाओं का फ़तवा उछाल दो, कोई पंजाब के सुट्टे पर बोले तो उसे सेंसर की देहरी पर रगड़ दो। कोई दिल्ली की समस्याओं पर कलम चलाए तो उसे मोदी का चापलूस कहकर अपमानित करो। कोई केंद्र सरकार की किसी नीति पर ऊँगली उठाए तो उसे "कांग्रेसी कुत्ता" कहो। कोई कांग्रेस की हरकतों पर लिखने की कोशिश करे तो उसे संघी कहकर प्रताड़ित करो। कोई फकीरों की मज़ार पर क़व्वाली गाने लगे तो उसे गोली मार दो।

ऑल इण्डिया बकचोद, बिग बॉस, ग्रैंड मस्ती और सनी लियोने जैसे प्रतिमानों की खिड़की से कला का आकलन करो ताकि कलाकार ख़ुद ब ख़ुद शर्मसार होकर ख़ुदकुशी कर ले। कला फिल्मों को आर्थिक विपन्नता से घोंट दो और फिर व्यावसायिक फिल्मों के उदाहरण प्रस्तुत कर फिल्मों की अनुपयोगिता का ढोल पीटो। 

कोई हँसने-हँसाने की कोशिश में व्यंग्य के चौबारे में टहलने लगे तो उस पर मानहानि का मुक़द्दमा दर्ज कर दो। कोई न्यूज़ चैनलों से उत्तरदायित्वहीनता का कारण पूछ ले तो उसे चैनल पर दिखाना बंद कर दो। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला झूठे सर्वेक्षण और अश्लील विज्ञापनों के पक्ष में मुखर होना चाहिए। कला, कलाकार और सत्य... -इन सबको तो फांसी चढ़ा देना चाहिए। 

© चिराग़ जैन

Ref : Comedian got arrested for his sarcasm

Thursday, June 23, 2016

मुहब्बत के पैगम्बरों के लिए सुकून

ख़ुद को ख़ुदा के बन्दे और जेहादी कहने वाले खूंखारों ने ख़ुदा की इबादत और ख़ुदा से मुहब्बत का पैग़ाम देने वाली एक बेहतरीन आवाज़ को ख़ामोश कर दिया। रूह से उठने वाला वो अलाप जो सुनने वालों को सीधे रूहानियत के गलियारों तक लिए जाता था, वो अलाप स्वयंभू जेहादियों पर एक धिक्कार के साथ हमेशा के लिए बंद हो गया। 

दहशतगर्दी की दुनिया रूहानियत को नहीं समझ सकती, क्योंकि रूहानियत का तअल्लुक़ रूह से होता है। ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा या जो भी कोई पारलौकिक सत्ता इस सृष्टि के पीछे है; उसके कोप की इस समय आवश्यकता है। अब इस दुनिया को समझना होगा कि संसार में सिर्फ दो ही तरीके के लोग हैं- 1) दहशतगर्द और 2) इंसान।

दहशतगर्दी के खिलाफ इंसानियत को एक होकर लड़ना होगा; तभी मुहब्बत के पैगम्बरों के लिए सुकून मुहैया हो सकेगा। 

© चिराग़ जैन

Ref : Death of Amjad Farid Sabri

Monday, June 20, 2016

क्या तुम सचमुच ख़ुश रह लोगी

क्या तुम सचमुच ख़ुश रह लोगी
संबंधों के तार तोड़ के
क्या तुम ख़ुद तक लौट सकोगी
अपनेपन की बाग़ छोड़ के


मेरे संदेशों की दस्तक
तुम सुनकर भी ध्यान नहीं दो
मेरे स्वर के आकर्षण को
अपने मन में मान नहीं दो
नदिया, नदिया ही रहती है
चाहे निकले धार मोड़ के
क्या तुम सचमुच ख़ुश रह लोगी
संबंधों के तार तोड़ के

तुम प्रतिबंध लगा सकती हो
सब तकनीकी संचारों पे
लेकिन कैसे रोक लगेगी
अंतर्मन वाली तारों पे
क्या हिचकी को रोक सकोगी
इक झूठी मुस्कान ओढ़ के
क्या तुम सचमुच ख़ुश रह लोगी
संबंधों के तार तोड़ के

संबंधों में खटपट होगी
मन बेचारा पीर सहेगा
किंतु कहीं संवाद रुका तो
हर अपनापन मौन रहेगा
दिल दुखने पर ऐसे चीखो
चुप्पी चल दे राह छोड़ के
क्या तुम सचमुच ख़ुश रह लोगी
संबंधों के तार तोड़ के

© चिराग़ जैन

Sunday, June 19, 2016

अपशब्दों का सत्र

तुमने कड़वे शब्द कहे हैं, कैसे इस सच को झुठलाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

वाणी कड़वी, मन खट्टा है और कसैला रूप-लवण है
किस आसन पर रख पाओगी, प्यार भरा जो मीठा क्षण है
कण-कण में विष व्याप्त हुआ है, किस कण पर अमृत टपकाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

आँखों में अब तक ताज़ा है, प्रेम सुसज्जित पत्र तुम्हारा
पर कानों में गूँज रहा है, अपशब्दों का सत्र तुम्हारा
पाती पढ़-पढ़ मुस्काता हूँ, वाणी सुन-सुन बुझता जाऊँ
समझ नहीं आता इस इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

गहरी खाई में ला पटका, तुमने मेरे मन-पर्वत को
सारी रात पढ़ा है मैंने, प्रेम सुधा में भीगे ख़त को
अपने हाथों से उस ख़त का कोई कोना फाड़ न पाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

तुमको पीड़ा पहुँचाने का, मैं भी अगर इरादा रखता
तो भी वाणी पर संयम की, थोड़ी तो मर्यादा रखता
अंतर्मन पर घाव हुए हैं, कैसे इनकी टीस भुलाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

कष्ट हुआ हो तो तुम मुझसे झगड़ा कर के रो सकती हो
मैं ये सोच नहीं सकता तुम तुम इतनी कड़वी हो सकती हो
अब मैं ख़ुद भी चाहूँगा तो, तुम तक शायद लौट न पाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

© चिराग़ जैन

पिता

अब कवि सम्मेलन में आना-जाना मेरे लिए सामान्य हो चुका है। एक काम जैसा अनुभव रह गया है कवि सम्मेलनीय यात्राओं का। लेकिन आज भी मेरे घर लौटने पर मेरी अटैची से जब कोई प्रतीक चिन्ह मिलता है तो वे लपक कर उसे उठा लेते हैं और उसका एक एक अक्षर आद्योपान्त पढ़ जाते हैं। जब किसी निमंत्रण पत्र में छपता है मेरा नाम तो देर तक उसे निरखते रहते हैं। मुझे याद है, मेरी सातवीं किताब के प्रकाशन पर भी वे उतने ही ख़ुश थे जितना मैं अपनी पहली किताब के प्रकाशन पर था। कवि सम्मेलन में मिली मोतियों की मालाओं और दुशालों को आज भी वे सहेज कर उठाते हैं और जी भर निरखने के बाद हर बार बोलते हैं - "लो, इन्हें संभाल कर रख दो।" जब कभी मैं श्रृंखलाबद्ध यात्रा पर निकलता हूँ तो वे आह्लाद में सारे रूट मैप देखते हैं। मुझे कोई सम्मान मिलता है तो उनकी आँखों में वो चमक आती है जो शायद मेरी पहली किलकारी पर मेरी माँ की आँखों में आई होगी। ...सच बताऊँ, मेरे पिता मेरी उपलब्धियों को भोगते हैं और मैं हर उपलब्धि पर उनके आह्लाद को।

© चिराग़ जैन

Wednesday, June 15, 2016

विभक्त

सृजन की जाह्नवी
विभक्त होकर भी
गंगा ही रहेगी।

तुम देखना
उन्मुक्त बहती संवेदना से
विभक्त होती धार
मोक्षदायिनी होकर पुजेगी
...हर की पौड़ी पर।

कविता से विभक्त काव्यांश
सूक्ति हो जाते हैं
और श्लोक से विभक्त वर्ण
मंत्र बन जाते हैं।

एक सृजन ही तो है
जहां विभक्तियां
धातुओं को अर्थ की
पहचान देती हैं।

© चिराग़ जैन

Monday, June 13, 2016

प्यार का सम्प्रेषण

चीखने से 
शोर बढ़ता है
सम्बन्ध नहीं।

सुकून की खटिया
बुनी जाती है
सहजता की बाण से;
इसमें प्रयास की गाँठें हों
तो मुक्त नहीं हो सकती नींद 
चुभन से!

जताना
और बताना
व्यापार में होना चाहिए
व्यवहार में नहीं।

और प्यार में...
...वहाँ तो
आँखें मिलते ही
फिफ्थ गीयर लग जाता है
धड़कनों में!
ओंठ व्यस्त रहते हैं
कँपकँपाने और मुस्कुराने में।

शब्द और आवाज़
केवल शोर हैं
प्यार के सम्प्रेषण में।

© चिराग़ जैन

Saturday, June 11, 2016

संतोष

बूंद भर जल नहीं दो भले तुम मुझे
दीखते ही रहो बस घड़ों की तरह

क्या हुआ गर कभी प्यास बाकी रही
ज़िन्दगी चुक गई आस बाकी रही
जिन ज़मीनों की अरदास बाकी रही
खोखली हो गई बीहड़ों की तरह

मंडियों में सजाया हुआ नेह हूँ
मैं शपथ में बसा एक संदेह हूँ
वक़्त के हाथ जर्जर हुई देह हूँ
बस लिपटते रहो चीथड़ों की तरह

वैभवों का बिखरता हुआ कक्ष हूँ
इक वृहन्नल के आगे खड़ा लक्ष हूँ
आँधियों का सताया हुआ वृक्ष हूँ
तुम बरसते रहो कंकड़ों की तरह

© चिराग़ जैन

सेंसर बोर्ड

पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष हैं; इस हेतु उन्हें अपने दायित्व के निर्वाह हेतु सख्त होना पड़ेगा ही। भारत के दर्शकों को अश्लीलता से बचाना, अन्धविश्वास से बचाना उनका दायित्व है और भारत के लोगों अथवा समूहों की भावनाएं आहत न हों; यह देखना उनका काम है। किन्तु चूँकि मैं फिल्मों का आलोचक अथवा विद्वान न होकर एक सामान्य दर्शक हूँ इसलिए "उड़ता पंजाब" जैसे विवाद के बाद कुछ सामान्य प्रश्न करने की हिम्मत कर पा रहा हूँ। ये सब प्रश्न मैं इसलिए भी पूछ सकता हूँ कि इन्हें यह कहकर ख़ारिज भी नहीं किया जा सकेगा कि प्रश्नकर्ता अमुक पार्टी का सदस्य है।

उड़ता पंजाब में कई दृश्य यह कहकर कटवाए जा रहे हैं कि उनमें द्विअर्थी संवाद हैं अथवा उनमें अभद्र भाषा का प्रयोग है। मैं इस तर्क का पक्षधर हूँ लेकिन इस आपत्ति पर यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या पहलाज जी उसी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष हैं जिन्होंने निम्न फिल्मों को "ए" अथवा "यू/ए" प्रमाण पत्र के साथ पास किया था-

1) रागिनी एम एम एस (श्रृंखला)
2) मर्डर (श्रृंखला)
3) ग्रैंड मस्ती
4) रास्कल्स
5) द डर्टी पिक्चर
6) लेडीज़ वर्सिस रिकी बहल
7) विक्की डोनर
8) लाइफ की तो लग गई
9) गैंग्स ऑफ़ वासेपुर
10) जिस्म (श्रृंखला)
11) राज़
12) हीरोइन
13) अइया
14) फुकरे
15) लुटेरा
16) बी ए पास
17) बजाते रहो
18) नशा
19) शुद्ध देसी रोमांस
20) बूम
21) ऊप्स
22) गोलियों की रासलीला रामलीला
23) डेढ़ इश्किया
24) मस्तराम
25) हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया
26) मर्दानी
27) नो वन किल्ड जेसिका
28) सुलेमानी कीड़ा
29) गुड्डू रंगीला
30) प्यार का पंचनामा

इसके अतिरिक्त भी एक लंबी श्रृंखला है जिसमें द्विअर्थी संवादों औरअश्लीलता के शानदार उदाहरण देखने लो मिलते हैं। "लग गई"; "ले ली"; "फट जाएगी" और "दे रही है" जैसे संवादों को सामान्य मानने वाला बोर्ड किन संवादों को द्विअर्थी कह रहा है यह समझ से परे है। "तेरी कह के लूंगा" जैसे वाक्यांश फ़िल्मी पोस्टर की टैगलाइन हो सकती है तो बाकी सब में क्या समस्या है।

अभी टीवी पर 'डॉलर' का एक विज्ञापन आता है जिसमें अक्षय कुमार एकलकड़ी के फट्टे से खलनायक पर वार करते हैं। फट्टा खलनायक के गुप्तांग परलगता है और फिर घायल खलनायक अपने गुप्तांग पर हाथ रखकर संवाद बोलता है - "मेरे अखरोट भिंच गए"।

इन संवादों को द्विअर्थी माना जाए या नहीं।द्विअर्थी तो छोड़ो, अब तो ऐसे ऐसे संवाद आम हो चले हैं जिनमें दूसरा अर्थ खोजा ही नहीं जा सकता।

नो वन किल्ड जेसिका के प्रारंभ में ही रानी मुखर्जी ने दो बार स्पष्ट रूप से संवाद बोला है - "*** फट जाती है।"
सुलेमनी कीड़ा में काव्य पाठ के दौरान नायक कविता पढता है जिसका शीर्षक है - "मेरी *** में कीड़ा है।"

डेढ़ इश्किया में अरशद वारसी और नसीरुद्दीन शाह में "चूतियापा" शब्द को बारबार प्रयोग किया है। इसी फ़िल्म में अरशद का संवाद है - "समझ नहीं पा रिया हूँ कि लेकर आ रिया हूँ कि देकर आ रिया हूँ।"

फ़िल्म "फुकरे" में एक पात्र का नाम ही "चूचा" है। जिसके एकमात्र अर्थ को फ़िल्म में बार बार स्पष्ट किया गया है।
अरशद ही गुड्डू रंगीला फ़िल्म में नायिका से पूछते पाए गए हैं- "लेगी?" बाद में इसी संवाद को वे बदल कर बोलते हैं- "देगी?"

संवादों की अश्लीलता के नाम पर अगर सेंसर बोर्ड "बुरा न सुनो" का सिद्धांतपालन करने वाला बन्दर बन जाए तो इससे आगे बढ़कर हम उन फिल्मों पर आते हैंजिनके पोस्टर से क्लाइमेक्स तक सिवाय अश्लीलता कुछ ढूंढे नहीं मिलता।

यदि याददाश्त पर सरकारी बेरियर न लगा हो तो उस पोस्टर का संज्ञान ले लें जिसके पोस्टर पर भीगे बदन की नायिका नग्न केवल एक झीनी चद्दर ओढ़कर लेती हुईथी। उसके स्तनों का स्पष्ट प्रदर्शन फ़िल्म की सफलता की सीढ़ी बन गई थी।पीके में सिर्फ रेडियो की आड़ में छुपे आमिर खान पोस्टर पर आए तो वह बॉलीवुडकी विकसगाथा का अध्याय समझा गया।

बीए पास में शिल्पा शुक्ला और अन्यअभिनेत्रियों के साथ पूरे सम्भोग दृश्य अगर अश्लील नहीं थे तो फिर नैतिकताके शास्त्रों पर गुमराह करने का मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए। सनी लियोने, विद्या बालन, राखी सावंत, मल्लिका शेरावत जैसी अभिनेत्रियों के अभिनय ने जबअश्लीलता और अभद्रता की परिभाषाएँ बदलीं तब सेंसर बोर्ड की आँखें कौन सेसपने देखने में व्यस्त थीं। द डर्टी पिक्चर, बूम, ग्रैंड मस्ती, मर्डर, जिस्म, राज, रागिनी एम् एम् एस, शुद्ध देसी रोमांस और मस्तराम बनाने के बादजब हमारे सामने अश्लीलता के प्रश्न उठते हैं तो ऐसा लगता है कि विजयमाल्या लालकिले से राष्ट्र को ईमानदारी और संस्कारों का उपदेश दे रहे हों।

किस सीन पर प्रश्न उठाने वाले बोर्ड को आँखों की पट्टी हटाकर राजाहिंदुस्तानी, मुहब्बतें, कील दिल, 2 स्टेट्स, हंसी तो फँसी, हीरोपंती, पुरानी जीन्स, रिवॉल्वर रानी, बैंग बैंग, यारियां, फाइंडिंग फैनी, हेटस्टोरी 2, बेवकूफियां, धूम 3, हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया, रागिनी एम एम एस, एक विलेन, क्वीन, राजा नटवरलाल, ढिशक्याउँ, तेज़ाब, मानसून वेडिंग, ज़िद, दट्रेन, रास्कल्स और राज़ जैसी फ़िल्में दोबारा देखनी चाहियें।

उड़ता पंजाब पर दर्ज आपत्तियों में एक आपत्ति यह भी थी कि फ़िल्म के शीर्षक में "पंजाब"का नाम आने से पंजाब के लोगों की भावनाएं आहत होंगी। श्रीमान कृपया निम्न सूची पर भी नज़र डाल लें-

1) ज़िला ग़ाज़ियाबाद
2) मुम्बई मस्त कलंदर
3) पटियाला हाउस
4) चलो दिल्ली
5) दिल्ली बैली
6) मम्मी पंजाबी
7) गैंग्स ऑफ़ वासेपुर
8) दिल्ली सफारी
9) देहरादून डायरी
10) मुम्बई मिरर
11) बोम्बे टॉकीज़
12) गो गोआ गोन
13) बोम्बे टू गोआ
14) लव इन बोम्बे
15) चेन्नई एक्सप्रेस
16) वन्स अपॉन अ टाइम इन मुम्बई
17) वन्स अपॉन अ टाइम इन बिहार
18) चांदनी चौंक टू चाइना
19) मद्रास कैफे
20) वेक अप इण्डिया
21) चक डे इण्डिया
22) अहमदाबाद जंक्शन
23) परांठे वाली गली
24) मिड समर मिड नाईट मुम्बई
25) मुम्बई कनेक्शन
26) मुम्बई 125 केएम
27) पीपली लाइव
28) मुम्बई कैन डांस साला
29) मुम्बई दिल्ली मुम्बई
30) एनएच 10
31) एनएच 8 (रोड टू निधिवन)
32) बोम्बे वेलवेट
33) एंग्री इंडियन गॉडेस
34) लखनवी इश्क़ 

इस सूची को और भी लम्बा किया जा सकता है। "ज़रा हट के, ज़रा बच के ये है मुम्बई मेरी जान" जैसे गीतों ने किसी की भावनाएं आहत नहीं की।

इन सब सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में मेरा प्रश्न केवल यह है कि किसी भीव्यक्ति अथवा विचारधारा अथवा दल अथवा संस्थान के चश्मे लगाकर बैठे लोग क्यावास्तव में किसी का हित कर सकते हैं।

निहलानी जी एक बार इस एहसास कोजी लें कि फ़िल्म उद्योग को निरंकुश होने से रोकने के लिए जब सेंसर बोर्ड कागठन किया गया था तब इस बोर्ड के प्रतिष्ठापकों की आँखों में सपना रहा होगाकि यह संस्था निष्पक्ष रहकर कार्य करेगी। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 7, 2016

ज़िन्दगी: एक लड़की

जिन्दगी
एक खूबसूरत लड़की है
इसकी प्रशंसा करोगे
तो ये चहक उठेगी।
इसे एकटक निहारोगे
तो इसके मुखड़ा सज उठेगा
हया के रंग से।
इसे अनदेखा करोगे
तो ये उदास हो जाएगी।
इसे कोसोगे
तो चुपके से
दूर चली जाएगी तुमसे।

बहुत प्यारी है रे जिन्दगी
इसे चहकने दो,
इससे मुस्कुरा कर मिलो
कभी कचमचा कर
चूम लोगे इसे
तो झूम उठेगी
इसकी चिरौरी करो
इसे चिकौटी काट लो

...लेकिन कोसना मत इसे कभी
कुम्हला जाएगी बेचारी।

© चिराग़ जैन

Sunday, June 5, 2016

पर्यावरण के नाम पर

विकासवादियो!
पर्यावरण के नाम पर
मुट्ठी न भींचो,
तुमसे किसने कहा है
कि दुनिया के भले के लिए
कोई पेड़ सींचो?
तुम तो अपनी बालकनी में
तुलसी का इक पौधा लगा लो
और अपने परिवार के लिए
थोड़ी सी सांसें उगा लो।
मत सोचो
कि किस तरह बचाई जाए
दादी नानी की कहानी,
पर ये तो विचार करो
कि तुम्हारे नौनिहाल
कहाँ से पिएंगे
साफ-शुद्ध पानी।
माना
कि तुम्हारी विकास उगलती फैक्ट्रियां
नहीं रोक सकती
काला जहरीला धुआँ,
लेकिन बचाई तो जा सकती है नदी
सहेजा तो जा सकता है कुआँ।
हमारी पढ़ी लिखी सोसाइटी से
ज्यादा समझ थी
पिछले जमाने के असभ्य-अनपढ़ों में
जो जानते थे
कि स्वस्थ भविष्य के बीज छुपे हैं
पीपल और बरगद की जड़ों में।
आओ
विकास और विनाश के बीच
एक स्पष्ट रेखा खींच आएं
आओ
स्मार्ट सिटी की ग्रीन बेल्ट पर लगे
गुलमोहर को सींच आएं।

© चिराग़ जैन