अब कवि सम्मेलन में आना-जाना मेरे लिए सामान्य हो चुका है। एक काम जैसा अनुभव रह गया है कवि सम्मेलनीय यात्राओं का। लेकिन आज भी मेरे घर लौटने पर मेरी अटैची से जब कोई प्रतीक चिन्ह मिलता है तो वे लपक कर उसे उठा लेते हैं और उसका एक एक अक्षर आद्योपान्त पढ़ जाते हैं। जब किसी निमंत्रण पत्र में छपता है मेरा नाम तो देर तक उसे निरखते रहते हैं। मुझे याद है, मेरी सातवीं किताब के प्रकाशन पर भी वे उतने ही ख़ुश थे जितना मैं अपनी पहली किताब के प्रकाशन पर था। कवि सम्मेलन में मिली मोतियों की मालाओं और दुशालों को आज भी वे सहेज कर उठाते हैं और जी भर निरखने के बाद हर बार बोलते हैं - "लो, इन्हें संभाल कर रख दो।" जब कभी मैं श्रृंखलाबद्ध यात्रा पर निकलता हूँ तो वे आह्लाद में सारे रूट मैप देखते हैं। मुझे कोई सम्मान मिलता है तो उनकी आँखों में वो चमक आती है जो शायद मेरी पहली किलकारी पर मेरी माँ की आँखों में आई होगी। ...सच बताऊँ, मेरे पिता मेरी उपलब्धियों को भोगते हैं और मैं हर उपलब्धि पर उनके आह्लाद को।
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment