Wednesday, June 15, 2016

विभक्त

सृजन की जाह्नवी
विभक्त होकर भी
गंगा ही रहेगी।

तुम देखना
उन्मुक्त बहती संवेदना से
विभक्त होती धार
मोक्षदायिनी होकर पुजेगी
...हर की पौड़ी पर।

कविता से विभक्त काव्यांश
सूक्ति हो जाते हैं
और श्लोक से विभक्त वर्ण
मंत्र बन जाते हैं।

एक सृजन ही तो है
जहां विभक्तियां
धातुओं को अर्थ की
पहचान देती हैं।

© चिराग़ जैन

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