Saturday, June 11, 2016

सेंसर बोर्ड

पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष हैं; इस हेतु उन्हें अपने दायित्व के निर्वाह हेतु सख्त होना पड़ेगा ही। भारत के दर्शकों को अश्लीलता से बचाना, अन्धविश्वास से बचाना उनका दायित्व है और भारत के लोगों अथवा समूहों की भावनाएं आहत न हों; यह देखना उनका काम है। किन्तु चूँकि मैं फिल्मों का आलोचक अथवा विद्वान न होकर एक सामान्य दर्शक हूँ इसलिए "उड़ता पंजाब" जैसे विवाद के बाद कुछ सामान्य प्रश्न करने की हिम्मत कर पा रहा हूँ। ये सब प्रश्न मैं इसलिए भी पूछ सकता हूँ कि इन्हें यह कहकर ख़ारिज भी नहीं किया जा सकेगा कि प्रश्नकर्ता अमुक पार्टी का सदस्य है।

उड़ता पंजाब में कई दृश्य यह कहकर कटवाए जा रहे हैं कि उनमें द्विअर्थी संवाद हैं अथवा उनमें अभद्र भाषा का प्रयोग है। मैं इस तर्क का पक्षधर हूँ लेकिन इस आपत्ति पर यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या पहलाज जी उसी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष हैं जिन्होंने निम्न फिल्मों को "ए" अथवा "यू/ए" प्रमाण पत्र के साथ पास किया था-

1) रागिनी एम एम एस (श्रृंखला)
2) मर्डर (श्रृंखला)
3) ग्रैंड मस्ती
4) रास्कल्स
5) द डर्टी पिक्चर
6) लेडीज़ वर्सिस रिकी बहल
7) विक्की डोनर
8) लाइफ की तो लग गई
9) गैंग्स ऑफ़ वासेपुर
10) जिस्म (श्रृंखला)
11) राज़
12) हीरोइन
13) अइया
14) फुकरे
15) लुटेरा
16) बी ए पास
17) बजाते रहो
18) नशा
19) शुद्ध देसी रोमांस
20) बूम
21) ऊप्स
22) गोलियों की रासलीला रामलीला
23) डेढ़ इश्किया
24) मस्तराम
25) हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया
26) मर्दानी
27) नो वन किल्ड जेसिका
28) सुलेमानी कीड़ा
29) गुड्डू रंगीला
30) प्यार का पंचनामा

इसके अतिरिक्त भी एक लंबी श्रृंखला है जिसमें द्विअर्थी संवादों औरअश्लीलता के शानदार उदाहरण देखने लो मिलते हैं। "लग गई"; "ले ली"; "फट जाएगी" और "दे रही है" जैसे संवादों को सामान्य मानने वाला बोर्ड किन संवादों को द्विअर्थी कह रहा है यह समझ से परे है। "तेरी कह के लूंगा" जैसे वाक्यांश फ़िल्मी पोस्टर की टैगलाइन हो सकती है तो बाकी सब में क्या समस्या है।

अभी टीवी पर 'डॉलर' का एक विज्ञापन आता है जिसमें अक्षय कुमार एकलकड़ी के फट्टे से खलनायक पर वार करते हैं। फट्टा खलनायक के गुप्तांग परलगता है और फिर घायल खलनायक अपने गुप्तांग पर हाथ रखकर संवाद बोलता है - "मेरे अखरोट भिंच गए"।

इन संवादों को द्विअर्थी माना जाए या नहीं।द्विअर्थी तो छोड़ो, अब तो ऐसे ऐसे संवाद आम हो चले हैं जिनमें दूसरा अर्थ खोजा ही नहीं जा सकता।

नो वन किल्ड जेसिका के प्रारंभ में ही रानी मुखर्जी ने दो बार स्पष्ट रूप से संवाद बोला है - "*** फट जाती है।"
सुलेमनी कीड़ा में काव्य पाठ के दौरान नायक कविता पढता है जिसका शीर्षक है - "मेरी *** में कीड़ा है।"

डेढ़ इश्किया में अरशद वारसी और नसीरुद्दीन शाह में "चूतियापा" शब्द को बारबार प्रयोग किया है। इसी फ़िल्म में अरशद का संवाद है - "समझ नहीं पा रिया हूँ कि लेकर आ रिया हूँ कि देकर आ रिया हूँ।"

फ़िल्म "फुकरे" में एक पात्र का नाम ही "चूचा" है। जिसके एकमात्र अर्थ को फ़िल्म में बार बार स्पष्ट किया गया है।
अरशद ही गुड्डू रंगीला फ़िल्म में नायिका से पूछते पाए गए हैं- "लेगी?" बाद में इसी संवाद को वे बदल कर बोलते हैं- "देगी?"

संवादों की अश्लीलता के नाम पर अगर सेंसर बोर्ड "बुरा न सुनो" का सिद्धांतपालन करने वाला बन्दर बन जाए तो इससे आगे बढ़कर हम उन फिल्मों पर आते हैंजिनके पोस्टर से क्लाइमेक्स तक सिवाय अश्लीलता कुछ ढूंढे नहीं मिलता।

यदि याददाश्त पर सरकारी बेरियर न लगा हो तो उस पोस्टर का संज्ञान ले लें जिसके पोस्टर पर भीगे बदन की नायिका नग्न केवल एक झीनी चद्दर ओढ़कर लेती हुईथी। उसके स्तनों का स्पष्ट प्रदर्शन फ़िल्म की सफलता की सीढ़ी बन गई थी।पीके में सिर्फ रेडियो की आड़ में छुपे आमिर खान पोस्टर पर आए तो वह बॉलीवुडकी विकसगाथा का अध्याय समझा गया।

बीए पास में शिल्पा शुक्ला और अन्यअभिनेत्रियों के साथ पूरे सम्भोग दृश्य अगर अश्लील नहीं थे तो फिर नैतिकताके शास्त्रों पर गुमराह करने का मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए। सनी लियोने, विद्या बालन, राखी सावंत, मल्लिका शेरावत जैसी अभिनेत्रियों के अभिनय ने जबअश्लीलता और अभद्रता की परिभाषाएँ बदलीं तब सेंसर बोर्ड की आँखें कौन सेसपने देखने में व्यस्त थीं। द डर्टी पिक्चर, बूम, ग्रैंड मस्ती, मर्डर, जिस्म, राज, रागिनी एम् एम् एस, शुद्ध देसी रोमांस और मस्तराम बनाने के बादजब हमारे सामने अश्लीलता के प्रश्न उठते हैं तो ऐसा लगता है कि विजयमाल्या लालकिले से राष्ट्र को ईमानदारी और संस्कारों का उपदेश दे रहे हों।

किस सीन पर प्रश्न उठाने वाले बोर्ड को आँखों की पट्टी हटाकर राजाहिंदुस्तानी, मुहब्बतें, कील दिल, 2 स्टेट्स, हंसी तो फँसी, हीरोपंती, पुरानी जीन्स, रिवॉल्वर रानी, बैंग बैंग, यारियां, फाइंडिंग फैनी, हेटस्टोरी 2, बेवकूफियां, धूम 3, हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया, रागिनी एम एम एस, एक विलेन, क्वीन, राजा नटवरलाल, ढिशक्याउँ, तेज़ाब, मानसून वेडिंग, ज़िद, दट्रेन, रास्कल्स और राज़ जैसी फ़िल्में दोबारा देखनी चाहियें।

उड़ता पंजाब पर दर्ज आपत्तियों में एक आपत्ति यह भी थी कि फ़िल्म के शीर्षक में "पंजाब"का नाम आने से पंजाब के लोगों की भावनाएं आहत होंगी। श्रीमान कृपया निम्न सूची पर भी नज़र डाल लें-

1) ज़िला ग़ाज़ियाबाद
2) मुम्बई मस्त कलंदर
3) पटियाला हाउस
4) चलो दिल्ली
5) दिल्ली बैली
6) मम्मी पंजाबी
7) गैंग्स ऑफ़ वासेपुर
8) दिल्ली सफारी
9) देहरादून डायरी
10) मुम्बई मिरर
11) बोम्बे टॉकीज़
12) गो गोआ गोन
13) बोम्बे टू गोआ
14) लव इन बोम्बे
15) चेन्नई एक्सप्रेस
16) वन्स अपॉन अ टाइम इन मुम्बई
17) वन्स अपॉन अ टाइम इन बिहार
18) चांदनी चौंक टू चाइना
19) मद्रास कैफे
20) वेक अप इण्डिया
21) चक डे इण्डिया
22) अहमदाबाद जंक्शन
23) परांठे वाली गली
24) मिड समर मिड नाईट मुम्बई
25) मुम्बई कनेक्शन
26) मुम्बई 125 केएम
27) पीपली लाइव
28) मुम्बई कैन डांस साला
29) मुम्बई दिल्ली मुम्बई
30) एनएच 10
31) एनएच 8 (रोड टू निधिवन)
32) बोम्बे वेलवेट
33) एंग्री इंडियन गॉडेस
34) लखनवी इश्क़ 

इस सूची को और भी लम्बा किया जा सकता है। "ज़रा हट के, ज़रा बच के ये है मुम्बई मेरी जान" जैसे गीतों ने किसी की भावनाएं आहत नहीं की।

इन सब सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में मेरा प्रश्न केवल यह है कि किसी भीव्यक्ति अथवा विचारधारा अथवा दल अथवा संस्थान के चश्मे लगाकर बैठे लोग क्यावास्तव में किसी का हित कर सकते हैं।

निहलानी जी एक बार इस एहसास कोजी लें कि फ़िल्म उद्योग को निरंकुश होने से रोकने के लिए जब सेंसर बोर्ड कागठन किया गया था तब इस बोर्ड के प्रतिष्ठापकों की आँखों में सपना रहा होगाकि यह संस्था निष्पक्ष रहकर कार्य करेगी। 

© चिराग़ जैन

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