Saturday, June 11, 2016

संतोष

बूंद भर जल नहीं दो भले तुम मुझे
दीखते ही रहो बस घड़ों की तरह

क्या हुआ गर कभी प्यास बाकी रही
ज़िन्दगी चुक गई आस बाकी रही
जिन ज़मीनों की अरदास बाकी रही
खोखली हो गई बीहड़ों की तरह

मंडियों में सजाया हुआ नेह हूँ
मैं शपथ में बसा एक संदेह हूँ
वक़्त के हाथ जर्जर हुई देह हूँ
बस लिपटते रहो चीथड़ों की तरह

वैभवों का बिखरता हुआ कक्ष हूँ
इक वृहन्नल के आगे खड़ा लक्ष हूँ
आँधियों का सताया हुआ वृक्ष हूँ
तुम बरसते रहो कंकड़ों की तरह

© चिराग़ जैन

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