Sunday, June 19, 2016

अपशब्दों का सत्र

तुमने कड़वे शब्द कहे हैं, कैसे इस सच को झुठलाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

वाणी कड़वी, मन खट्टा है और कसैला रूप-लवण है
किस आसन पर रख पाओगी, प्यार भरा जो मीठा क्षण है
कण-कण में विष व्याप्त हुआ है, किस कण पर अमृत टपकाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

आँखों में अब तक ताज़ा है, प्रेम सुसज्जित पत्र तुम्हारा
पर कानों में गूँज रहा है, अपशब्दों का सत्र तुम्हारा
पाती पढ़-पढ़ मुस्काता हूँ, वाणी सुन-सुन बुझता जाऊँ
समझ नहीं आता इस इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

गहरी खाई में ला पटका, तुमने मेरे मन-पर्वत को
सारी रात पढ़ा है मैंने, प्रेम सुधा में भीगे ख़त को
अपने हाथों से उस ख़त का कोई कोना फाड़ न पाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

तुमको पीड़ा पहुँचाने का, मैं भी अगर इरादा रखता
तो भी वाणी पर संयम की, थोड़ी तो मर्यादा रखता
अंतर्मन पर घाव हुए हैं, कैसे इनकी टीस भुलाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

कष्ट हुआ हो तो तुम मुझसे झगड़ा कर के रो सकती हो
मैं ये सोच नहीं सकता तुम तुम इतनी कड़वी हो सकती हो
अब मैं ख़ुद भी चाहूँगा तो, तुम तक शायद लौट न पाऊँ
समझ नहीं आता इस पर आश्चर्य करूँ या शोक मनाऊँ

© चिराग़ जैन

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