Wednesday, July 27, 2016

साहित्य को कालजयी बनाने में व्यवस्था का योगदान

जो लोग इस देश में व्यवस्था की शिक़ायत करते नहीं थकते, मैं उन्हें साफ़-साफ़ कह देना चाहता हूँ कि इस देश की व्यवस्था पूरी तरह कला और साहित्य के पक्ष में है। यह व्यवस्था की ही मेहरबानी है कि हमारी हर फ़िल्म, हर उपन्यास, हर कहानी और हर व्यंग्य कविता कालजयी हो जाती है। सुधारवादी और विकासवादी व्यवस्थाओं में इसकी संभावना शून्यप्रायः होती है।
अंग्रेजी में कोई लेखक यदि अपने समाज में व्याप्त किसी समस्या पर कहानी लिख दे, तो सरकार तुरंत उस समस्या को ठीक करने में लग जाती है और समस्या के ठीक होते ही वह कहानी सन्दर्भविहीन होकर काल के गाल में समा जाती है। हमारे देश में साहित्य के साथ ऐसा दुर्व्यवहार न हो, इसीलिए हमने एक ऐसे सिस्टम को बढ़ावा दिया है जिसमें कोई भी लेखक किसी भी समस्या पर अपनी क़लम चलाए तो कम से कम अपने जीते जी वह उस कृति को मरते हुए न देखे।
पुलिसिया भ्रष्टाचार को समाप्त करना हमारे लिए बाएँ हाथ का काम है। सरकार आज चाहे तो अपने पुलिस महकमे को बोल सकती है कि अब हमारा पेट भर गया है और घर भी। हमारे पास रिश्वत की कमीशन का धन रखने को तिल भर भी स्थान शेष नहीं है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए कृपया सभी पुलिसवाले सुधर जाएँ और जनता को प्रताड़ित करना बंद करके जनता की सेवा हेतु समर्पित हो जाएँ। ...कितना आसान तरीक़ा है। लेकिन सरकार ऐसा करती नहीं है। क्योंकि कुछ लाख रुपये की कमीशन के बोझ से अपना पीछा छुड़ाकर वह अमूल्य साहित्य की हत्या नहीं कर सकती। इसलिए हमारी ब्यूरोक्रेसी और राजनीति अपने घरों में, दीवारों में, नींव में, छतों पर और यहाँ तक कि टॉयलेट में भी धन भरे जा रहे हैं, लेकिन साहित्य की अविरल धारा पर आँच नहीं आने दे रहे।
ज़रा सोचो, यदि पुलिस-वकील-अदालतें और सरकारी दफ्तर सुधरकर जनता की सेवा में जुट गए, तो मुंशी प्रेमचंद, सआदत अली मंटो, मोहन राकेश, महाश्वेता देवी और ऐसे ही हज़ारों लोगों को ऊपर जाकर क्या मुँह दिखाएंगे इस देश के कर्णधार? यदि भारत पुनः सोने की चिड़िया बन गया तो भारतेंदु की ‘भारत दुर्दशा’ की क्या दुर्गति होवेगी। यदि घरेलू हिंसा में लड़कियों का मारा जाना बंद हो गया तो निराला की ‘सरोज स्मृति’ पढ़कर किसे सिहरन होगी। यदि मुसलमानों का जीवन स्तर पूरी तरह से विकास के पथ पर बढ़ निकले तो राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’ किस मुहर्रम में जाकर अपना ताज़िया निकालेगा। यदि हिन्दू मान्यताओं में बढ़ते आडम्बर को समाप्त कर दिया गया तो गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार करता होरी, प्रेमचंद की खिल्ली नहीं उड़ाएगा!
साहित्य और कला के प्रति अनुराग ने हमारी व्यवस्था को न कभी बदलने के लिए प्रेरित होने दिया, और न ही कभी किसी प्रकार के भ्रष्टाचरण पर शर्म महसूस होने दी। इससे एक लाभ और है कि हमें अपनी बात में कविता और शेर उद्धृत करने के लिए हर दो साल बाद किताबें नहीं पलटनी पड़तीं। चार-पाँच शेर याद करके ख़ुद पर ‘हाज़िरजवाबी’ का तमगा लगवाने की सुविधा इसी व्यवस्था ने हमें दी है। कुछ लोग तो दुष्यंत के एक शेर के भरोसे पूरा जीवन बिता लेते हैं-

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

सब जानते हैं कि अव्वल तो कोई पत्थर उछालनेवाला ही नहीं है और अगर कहीं उछल भी गया तो मुल्क़ की तबीयत इतनी ख़राब कर के छोड़ दी गई है कि कोई भी उछला हुआ पत्थर उछालनेवाले की ख़ुद की खोपड़ी में सूराख़ करने से अधिक कमाल नहीं दिखा सकता।
अंत में, दुष्यंत कुमार का एक ऐसा ही शेर मैं भी उद्धृत कर देता हूँ, जिससे इस देश के सत्तर प्रतिशत चिंतित लेख पिछले तीस साल से प्रारम्भ या अंत करते रहे हैं-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

© चिराग़ जैन

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