Friday, September 29, 2017

दीवारों के कान

शायद लफ़्ज़ों के ही पर हों
दीवारों के कान नहीं हैं

© चिराग़ जैन

देवता बहरा हुआ है

पूजने वाले का संकट और भी गहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

हम अभागों के दुखों को देखकर रोया कभी जो
क्रांति की ज्वाला जगा कर फिर नहीं सोया कभी जो
ईश जाने उस हृदय पर कौन सा पहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

आज तक जिसने सभी के पाँव से काँटे निकाले
और सब आदेश भूखों के लिए खुद फूंक डाले
अन्न का वितरण उसी के हुक्म पर ठहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

खून की परवाह तजने का सबक दे साथियों को
वो बताता था कि तोड़ेगा बरसती लाठियों को
आजकल लाठी पे कपड़ा खून का फहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा देवता बहरा हुआ है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 28, 2017

कविकर्म

कभी हिचकी, कभी आँसू, कभी मुस्कान बाँटेंगे
अना, उम्मीद, नेकी, हिम्मत-ओ-अरमान बाँटेंगे
कभी शब्दों का मरहम इश्क के घावों पे रखेंगे
कभी नफरत को चैनो-अम्न का सामान बाँटेंगे

© चिराग़ जैन

Wednesday, September 27, 2017

बलात्कार

फिर से एक प्रश्न पर
अटक गये हैं मिस्टर यक्ष; 
कि सामान्यतया 
बलात्कार के होते हैं दो पक्ष। 

एक बलात्कारी, 
जो बलात्कार करता है, 
और एक बलात्कृता 
जिसका बलात्कार होता है। 

पहला पक्ष 
यानि बलात्कारी 
एक से लेकर 
दस-बीस तक हो सकते हैं 
अपनी संख्या 
और बलात्कृता की लाचारी के अनुपात में 
ये लोग 
बलात्कार की सिचुएशन को 
कुछ मिनिटों, 
कुछ घंटों, 
कुछ दिनों 
और कुछ वर्षों तक 
ढो सकते हैं। 

यहाँ तक तो बात है बिल्कुल साफ़ 
लेकिन प्रश्न ये है 
कि बलात्कार की सिचुएशन में 
किसको कहा जाता है इंसाफ़! 

जिसका हुआ है बलात्कार 
उसका न कोई मुक़द्दमा 
न कोई एफ़ आई आर 
न कोई तारीख़ 
न कोई सुनवाई 
...सीधी फ़ाइनल कार्रवाई 

टिमटिमाते हुए बुझ जाती है 
जीवन की ज्योत 
उसके हिस्से आती है सज़ा-ए-मौत। 

और जिसने किया है ये दुराचार 
उसको 
पहले तो पुलिस प्रोटेक्शन देती है सरकार 
फिर पुलिस के सामने 
सेलिब्रिटी की मुद्रा में बैठता है वो ढीठ 
और उससे पूछ-पूछ कर पुलिस बनाती है चार्जशीट। 

फिर अदालत, तारीख़ और जाँच 
तब तक ठंडी हो चुकी होती है 
पीड़ित लड़की की चिता की आँच। 

फिर सही और ग़लत की खेंचम-खेंच 
फिर क़ानून की ऊँची अदालतों के पेंच 
जैसे-तैसे फाँसी तक पहुँचती है सरकार 
तब तक सामने आ जाते हैं 
दोषियों के मानवाधिकार। 

कुल मिलाकर कैंसिल हो जाता है फाँसी का प्लान 
कोई नहीं लेता फ़ैसले का संज्ञान 
बार बार दोहराया जाता है यही स्टाइल 
हर बार इसी तरह बंद हो जाती है 
बलात्कार की फ़ाइल। 

इस यक्ष प्रश्न पर सारा समाज मौन है 
यक्ष समझ नहीं पा रहा है 
कि सभ्य क़ानून की निगाह में 
बलात्कार का असली दोषी कौन है। 

© चिराग़ जैन

स्त्री-समर्पण

जब कभी
अपनी परेशानी की लेकर आड़
मैं तुमको बहुत मजबूर करता हूँ
कि तुम अपने सभी कष्टों को पल में भूल जाओ
और मेरी हर समस्या को बड़ा समझो!
हर बार झुंझला कर सही
पर मान लेती हो मेरी हर बात
ऐसा भला क्या खास है मुझमें
भला हर बार ऐसे क्यों पिघल जाती हो तुम?
जब कभी
अपने किसी आलस्य पर पर्दा किये
बीमारियों का, मूड का या काम का
मैं डाल देता हूँ तुम्हारे सिर
सदा हर एक लापरवाही अपनी
इन सभी अय्यारियों को जानकर भी
क्यों, भला किस बात से मजबूर हो
मेरे उन्हीं झूठे बहानों से
(जो तुम्हें अब तक यकीनन रट चुके हैं)
क्यों बहल जाती हो तुम?
सच बताऊँ
तुम ही हो
जो प्यार के कोरे छलावे में
निभाए जा रही हो
इस अभागे एक रिश्ते को
जहाँ उस प्यार की हर लाश
जल कर बुझ चुकी है
बह चुकी है भस्म भी उसकी
किसी उफनी नदी की बाढ़ में।
और तुम अब तक
उसी ठंडी लपट में जल रही हो,
मूर्ख हो शायद
जो इक अंधे सफर पर चल रही हो!
सच बताऊँ
मैं अगर होता तुम्हारी ही जगह पर
तो तुम्हें अब तक कभी का छोड़ देता!

© चिराग़ जैन

सोच बड़ी कर ले

बिन मतलब के लड़ना छोड़
अड़ना और अकड़ना छोड़
या तो सोच बड़ी कर ले
या फिर लिखना-पढ़ना छोड़

© चिराग़ जैन

Monday, September 25, 2017

छेड़छाड़ का विरोध

दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों को पूरे देश का सेम्पल मानने की चूक सही नीतियों के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। जेएनयू, जामिया और डीयू में किसी लड़की को राह चलते परेशान करना या छेड़ना किसी मनचले के लिए महंगा पड़ सकता है लेकिन कानपुर, इलाहाबाद, पटना, बनारस, लखनऊ जैसे शहरों में स्थिति ऐसी नहीं है। इन विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाली लड़कियाँ छोटे शहरों, कस्बों और गाँव से आती हैं जहाँ ‘आज भी’ जागरूकता का आलम यह है कि छेड़छाड़ के किसी मुआमले की नुक्कड़-सभाओं में लड़कियों को ही दोषी माना जाता है। यदि कहीं कानूनी प्रक्रिया लड़की का पक्ष ले भी ले तो बाद में सामाजिक कानाफूसी से उपजा जनविरोध लड़कियों के लिए किसी प्रताड़ना से कम नहीं होता। यही वह स्थिति है कि कई शताब्दियों तक ‘बदनामी’ से बचने के लिए लड़कियाँ ‘बलात्कार’ के बाद भी थाने जाने से कतराती रहीं। 

दिल्ली जैसे जागरूक शहर में भी आज तक ऐसे मुआमलात खूब होते हैं कि छेड़छाड़ का विरोध करने से पहले लड़की हिचकिचाती है कि लोग उसके बारे में बातें बनानी शुरू न कर दें। 

छोटे शहरों की लड़कियों के मस्तिष्क में उनके माहौल ने यह धारणा बना दी होती है कि वे बड़े शहर की लड़कियों जितनी आधुनिक नहीं हैं इसलिए न तो उनमें लड़कों से बात करने का आत्मविश्वास होता है न ही उनकी बदतमीजी का विरोध करने का। उत्तर प्रदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ रही लड़कियों की स्थिति इतनी दयनीय है कि उन्हें अपने हॉस्टल से मेस तक जाने के लिए भी किसी साथिन की जरूरत होती है। बेंच पर दो-चार लड़के बैठे हों और लड़कियाँ वहाँ से गुजरें तो यह मुमकिन नहीं कि उन पर फब्ती न कसी जाए। यदि किसी लड़की का दुपट्टा पेड़ की झाड़ी में अटक जाए तो वह वहां रुक कर उसे निकालने में समय लगाते हुए अश्लील डायलॉग सुनने की अपेक्षा उसे त्याग कर आगे बढ़ जाना उचित समझती है। शाम के बाद तो सड़क पर किसी भी अकेली लड़की का रास्ता रोकने, हाथ पकड़ने, छातियाँ मसलने और किसी भी हद तक बढ़ जाने का अधिकार लड़कों को मिल जाता है। 

इन परिस्थितियों में पढ़ना-लिखना तो दूर, साँस लेना तक कितना दूभर होता होगा इसकी कल्पना करने के लिए कुछ क्षण स्वयं को वहाँ खड़ा करना आवश्यक है। एक लड़का किसी लड़की को दबोच कर चूम ले और फिर रोज शाम अपने दोस्तों के साथ उसकी खामोश लाचारी का जुलूस निकालकर उस पर हँसता हुआ निकले तो कैसा लगता होगा इसका अनुमान लगाना जरूरी है। हॉस्टल के बाथरूम में नहाते हुए किसी लड़की की निगाह ऊपर के झरोखे से टकराए और वहाँ दो आँखें उसे बेशर्मी से टंगी हुई दिखाई दें तो कैसा एहसास होता होगा। 

शिक्षाध्य्यन के समय इन संस्थानों की लड़कियों को यह पहेली भी बूझनी होती है कि इनके सामने से गुजरते हुए बेचारे लड़कों को अपने गुप्तांग खुजाने का नियम क्यों निभाना पड़ता है? 

मैं हमेशा आश्चर्य करता था कि इस दमघोंटू माहौल में रहकर पढ़ना और फिर अपनी काबिलियत सिद्ध करके उन्नति करना कितना मुश्किल होता होगा। इन छोटे शहरों की लड़कियों का चेहरा अपने ध्यान में लाकर एक बार हम सबको यह प्रश्न स्वयं से करना चाहिए कि इन मासूम परियों को हमने कितनी मुसीबत में डाल दिया है? हमें सोचना चाहिए कि इतनी सारी जिल्लत सहकर भी मौन रहने की इनकी विवशता हमारी कौन सी परंपराओं और संस्कारों के सम्मिलन से जन्मी है? 

पहली बार इन डरी हुई बच्चियों ने इस देश के प्रशासन को अभिभावक समझ कर इन हरकतों की शिकायत की है। इन्हें फटकार लगाकर चुप रहने को न कहें। इनके साथ वह सुलूक न करें जो अब तक इनके माता-पिता करते आए हैं। इनके साथ मारपीट न करें हुजूर, सच मानिए, इन्हें किसी लड़के ने छेड़ा इसमें इनका कोई कुसूर नहीं है। 

बेटियों को बचाने की जिम्मेदारी प्रशासन उठा ले तो बेटियों को पढ़ाने में किसी परिवार में हिचक न होगी। एक बात और, ये सब लड़कियाँ किसी और मुल्क से भागकर आईं शरणार्थी नहीं हैं, ये हमारे आंगन में गूंजी वही किलकारियां हैं जिनका आकर्षण हमें दफ्तर से घर लौटने के लिए बेताब कर देता है। 

© चिराग़ जैन

वाराणसी विश्वविद्यालय में लड़कियों की सुरक्षा की मांग के संदर्भ में।

Thursday, September 21, 2017

मीडिया

मीडिया "वाच डॉग" के रूप में जन्मा था लेकिन "पैट पप्पी" बन कर मर रहा है।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, September 20, 2017

आयुध पूजन

जब भी आयुध पर अहंकार की परत चढ़ी इतिहासों में
तब चंद्रहास को रावण-ग्रीवा भेंट मिली है ग्रासों में
जब शास्त्र नीति अनदेखी करके तीर चलाए जाते हैं
तब अर्द्धरात्रि में सोते बच्चे मार गिराए जाते हैं
अविवेक शक्त हो जाए तो, हर रेख लांघता रण होगा
निशस्त्रो की हिंसा होगी, गर्भस्थों का तर्पण होगा
यदि धर्म विफल हो जाएगा, आवेशों को समझाने में
तो द्रोणशिष्य को देर नहीं अश्वत्थामा बन जाने में
ऋषिकुल से जब भी ग्रहण किये दुर्धर्ष शस्त्र रघुबीरों ने
मंत्रों से मन की शुद्धि की ऋषियों ने और फकीरों ने
यह शस्त्र शुद्धि का उपक्रम केवल ढोंग नहीं, आवश्यक है
यह शक्ति-शौर्य को इंगित है कि दुरुपयोग निजघातक है
रण में जब क्रोध चढ़े सिर पर, रणचण्डी तांडव करती हो
जब काल खड़ा गुर्राता हो, जब भू पर मौत विचरती हो
जब युद्ध चरम पर आ पहुँचे, जब तप्त शिराएँ दहती हों
जब शव पर चलना पड़ता हो, जब रक्त तटीना बहती हो
जब भले बुरे का भान न हो, जब नेत्र बड़े हो जाते हों
जब जबड़े भिंचने लगते हों, जब रोम खड़े हो जाते हों
जब अपने घावों की पीड़ा का ध्यान न हो, आभास न हो
जब महासमर में ध्वंस मचाने में कोई संत्रास न हो
जब हृदय शून्य हो जाता हो, मस्तिष्क गौण हो जाता हो
जब देह शेष रह जाती हो, कारुण्य मौन हो जाता हो
जब क्रोध धधकता हो भीषण, सारा विवेक खो जाता हो
वैरी का लोहू पी पी कर, जब नर पिशाच हो जाता हो
ऐसे आवेगुद्वेगों में संयत रहने का ध्यान रहे
विध्वंस मचाने से पहले मानवता का कुछ भान रहे
शर का संधान करे उस क्षण, तब नयन निमीलित हो जाएं
आक्रोश, क्रोध, आवेश, ध्वंस इक क्षण को कीलित हो जाएं
गाण्डीव उठाए जब अर्जुन, उस पल उसको यह भास रहे
छूटा शर लौट न पाएगा, बस इतना भर अहसास रहे
दिव्यास्त्र साधने से पहले, योधा पल भर यह ध्यान धरे
क्या यह क्षण टल भी सकता है, इसका उत्तर अनुमान करे
झंझा के तेज झखोरे में, अंतर दीपक को आड़ मिले
हिंसा से घिरते चेतन को, सतपथ का एक किवाड़ मिले
इस हेतु दहकते शोलों पर, थोड़ी बौछार जरूरी है
इस हेतु शस्त्र संधान समय में मंत्रोच्चार जरूरी है

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 19, 2017

सामाजिक जीवन का मूल्य

रामायण के राम से ही यह सिलसिला प्रारम्भ हो गया था कि सामाजिक जीवन जीने के लिए व्यक्तिगत जीवन की बलि चढ़ानी होगी। कबीर ने इस बात को बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो घर जारै आपना, चले हमारे साथ। सामाजिक जीवन की अपेक्षा होती है कि मनुष्य 24 में से 48 घंटे काम करे। ऐसे में जाने-अनजाने परिवार के लोगों का समय चोरी किया जाता है।
कभी-कभी यह प्रश्न मन को व्यथित करता है कि व्यष्टि की अनदेखी कर समष्टि को प्राथमिकता देनेवाले मनुष्यों के एकाकीपन का मोल कैसे चुकाया जाए? राम की पीर, बाबा तुलसी ने कही भर है किंतु उस पीड़ा को भोगने की कल्पना भी मन में सिहरन पैदा करती है। उधर कृष्ण जनहित में जारी हुए, तो जन्म से ही जन्मदात्री ने छोड़ दिया, यौवन में प्रेम छूट गया और पालनेवाली माँ की गोदी छूट गई। परिस्थितियों ने कृष्ण को इतना निष्ठुर बना दिया कि महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु, घटोत्कच्छ और यहाँ तक कि कर्ण और भीष्म तक कि मृत्यु पर भी समाज के हित को सर्वाेपरि रख स्थितप्रज्ञ बने रहे।
गंगापुत्र भीष्म, गौतम बुद्ध, कबीर, अशोक महान, पन्ना धाय, बिनोवा भावे, केशव बलिराम हेडगेवार, महात्मा गांधी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, गुरु गोलवलकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, इंदिरा गांधी, किरण बेदी, एपीजे कलाम, अटल बिहारी वाजपेयी तक ऐसे हजारों व्यक्तित्व हैं जिनमें से कुछ ने पारिवारिक सुविधाओं को त्याग करके सामाजिक जीवन जीना शुरू किया तो कुछ ने सामाजिक जीवन में उतरकर पारिवारिक सुख त्याग दिए।
गुरु सिख परंपरा, सनातन संत समाज, जैन संत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक वृन्द, सीमाओं पर खड़े वीर जवान और बड़े पदों पर बैठे अफसर -ये सब वर्ग या तो अपने परिवार बसाते ही नहीं, बसाते हैं तो अपने दायित्वों के निर्वहन में परिवार की अनदेखी करते हैं और अंततः पारिवारिक सुखों से वंचित हो जाते हैं। पत्रकारिता, चिकित्सा, विज्ञान, विधि, अभियांत्रिकी, शोध, कला, राजनीति और रक्षण से जुड़े लोगों के जीवन में यह परिस्थिति कमोबेश होती ही है।
कहानियाँ सुनकर बहुत आसान लगता है किंतु एक बार यह अनुभूत करके देखें कि अपनों के अपनत्व का मूल्य चुकाकर समाज और मानवता की सेवा करनेवाले लोगों से उऋण होना लगभग असंभव है। वैचारिक मतभेद और निजि पसंद-नापसंद के कारण हम इन सब लोगों के सामाजिक योगदान की आलोचना कर सकते हैं, इन लोगों की आर्थिक स्थितियों से हम ईर्ष्या रख सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सबके पास समाज से प्राप्त सुविधाएँ ज़रूर हैं लेकिन अपनों से मिलनेवाले सुख का सर्वथा अभाव है।
हम कई सदियों से ऐसे लोगों को आदर और निरादर की सौगात देते रहे हैं लेकिन इन लोगों की निष्ठा को प्यार से हम कभी नहीं नवाज़ सके और यही कारण है कि समाज के लिए सर्वस्व स्वाहा करनेवाले इन योगियों के जीवन में हम अपनत्व का एक भी पल नहीं सजा सके।

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 12, 2017

दिन निकलेगा

रात कटेगी, दिन निकलेगा
यह क्रम तो निर्धारित ही है
दिन इक दिन मुझ बिन निकलेगा
यह अनुमोदन पारित ही है

मैं इस भ्रम में जूझ रहा हूँ
मुझसे ही सब काज सधेंगे
पर दुनिया के लोग मुझे भी
दो ही दिन में बिसरा देंगे
विस्मृतियों के वरदानों पर
यह दुनिया आधारित ही है

चाहत, सपना, डर, उम्मीदें
प्रेम, प्रयास, प्रथा, यश-वैभव,
गर्व, विनय, संबंध, सृजन, सुख
हर्ष, विजय, सम्मान, पराभव
इन सब आभासी शब्दों पर
सृष्टि कथा विस्तारित ही है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 7, 2017

सूचना पट्ट से झाँकती सभ्यता

यदि आवश्यकता आविष्कार की जननी है तो दीवारों पर लिखी हिदायतें हमारी बुरी आदतों का आईना हैं।
कल्पना करें तो शायद हम समझ पाएंगे कि अपने सपनों के घर की खूबसूरत दीवार पर तारकोल से ‘गधे के पूत, यहाँ मत मूत’ लिखनेवाला आदमी किस हद तक परेशान हुआ होगा। यत्र-तत्र-सर्वत्र मूत्रत्याग करने वाले निष्ठावान नागरिकों को रोकने की दिशा में पट्ट-लेखकों ने काफी विकास किया है। ‘देखो गधा पेशाब कर रहा है’; ‘यहाँ मूतने वाले तेरी माँ की.....’ और ‘यह मंदिर की दीवार है कृपया यहाँ मूत्रत्याग न करें’ जैसे बहुभाषी ग्रंथों से मूत्रसाधकों को सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका तब ‘एक चित्र सौ शब्दों के समान होता है’ का अनुसरण करते हुए हमने मूत्रनीय दीवारों पर ईश्वर के विराट रूप की छोटी-छोटी टाइल्स लगवा दीं। किन्तु इतने पर भी मूत्रत्यागकर्ताओं ने हार न मानी और वे अपने पूज्य देव को बचाकर अन्य दीवारों पर कार्य निष्पादन करते रहे। साईं बाबा के भक्त को हिंदू देवताओं की तस्वीर न रोक सकी और घोर रामभक्त ने साईं बाबा की परवाह नहीं की। वैष्णव, शाक्त, शैव और न जाने क्या-क्या बहाने बनाकर साधकों ने भक्तिप्रवाह का उपाय खोज ही लिया। अंततः सभी देवताओं ने मीटिंग करके एक साथ एक ही दीवार पर चिपकना स्वीकार किया तब कहीं कुछेक दीवारों के भूमिगत जल में मूत्र संवर्द्धन बन्द हुआ।
विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता का दावा करनेवाले हम लोग कितने सभ्य रहे होंगे इसके प्रमाण-पत्र पूरे देश में हिदायती सूचना-पट्टों पर शान से चिपके हुए हैं। कितने फख्र की बात है कि हमें डायरेक्टली ‘बेहया’ कहनेवाले वाक्य भी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ते और सम्मानपूर्वक हमें लताड़ते हुए लिखते हैं- ‘कृपया पान की पीक यहाँ न थूकें।’ हम इस सम्मान से गद्गद हो उठते हैं और आभार ज्ञापन करते हुए उस इबारत पर अपने मुखारविंद से पीक अर्पण कर आगे बढ़ जाते हैं।
रेल के टॉयलेट में मग्गे से बंधी ज़ंजीर हमारी आदतों के गले में पहनाई गई स्वर्णकड़ी जैसी भूमिका निभाती है।
आज्ञाकारी हम इतने हैं कि हर बात बोर्ड पर लिखकर समझाई जाती है। ‘कृपया यहाँ न थूकें’ और ‘गंदगी न फैलाएँ’ जैसे सूचना पट्ट हमारी आदतों के गौरवशाली इतिहास की झलक दिखाते हैं। ‘कूड़ा कूड़ेदान में ही डालें’, ‘फाटक बंद हो तो लाइन पार न करें’, ‘ट्रांसफार्मर के आसपास पेशाब करना जानलेवा हो सकता है’ और ‘कृपया लाइन न तोड़ें’ जैसे प्रशासनिक वाक्यों के अतिरिक्त निजी क्षेत्र में भी सूचनाओं का विपुल भंडार है। ‘जगह मिलने पर साइड दी जाएगी’, ‘जिनको जल्दी थी वो चले गए’, ‘उड़ के जावेगा के’, ‘कुत्ता भी बिना वजह नहीं भौंकता’ और ‘सड़क तेरे बाप की है क्या बे’ -जैसे वाक्य हमारे ट्रैफिक सेंस की गौरवगाथा के स्वर्णिम अध्याय हैं।
‘मतदान अवश्य करें’, ‘राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान न पहुँचाएँ’, ‘बस की सीट न फाड़ें’, ‘सीढ़ियों पर न बैठें’, ‘रिश्वत न लें, न दें’, ‘दलालों से सावधान’, ‘जेबकतरों से सावधान’ या ‘लेडीज सीट पर न बैठें’ और ‘बंदरों को न छेड़ें’ जैसे वाक्यों में सजा भारतीय लोकतंत्र पूरी दुनिया की चित्र प्रदर्शनियों में दमकता है, तो हमारा गौरवशाली इतिहास और भी प्रखर हो उठता है।
‘कृपया अस्पताल में शोर न करें’ और ‘एम्बुलेंस को रास्ता दें’ जैसे लौकिक मानवीय आदेशों से लेकर ‘जलती चिता में कचरा न डालें’ जैसे पारलौकिक सूचना पट्टों ने हमारी संवेदनाओं की हकीकत चेहरे पर जो श्रृंगार किया है उसे धोने के लिए पानी नहीं आँसुओं की ज़रूरत है।

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 5, 2017

जनता की ज़िम्मेदारी

आप रेडलाइट पर खड़े हैं अचानक आपके पीछे कोई हॉर्न बजाने लगता है। उसको इस बात पर आश्चर्य है कि जब कोई पुलिसवाला नहीं खड़ा तो आप रेडलाइट का सम्मान क्यों कर रहे हो? आप बाजार से गुज़रते हैं। बीच सड़क पर कोई स्कूटर पार्क कर गया है। सारा ट्रैफिक रुक गया है। सबको परेशानी हो रही है। दस-पंद्रह मिनिट बाद स्कूटर का मालिक बेशर्मी से फोन कान पर लगाए आता है और स्कूटर स्टार्ट करके निकल जाता है। 

सब लोग "उसके जाने के बाद" कुछ अपशब्द टाइप बड़बड़ाते हुए अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। नो पार्किंग के बोर्ड के ठीक नीचे पार्किंग करने वाले लोग; नो राइट टर्न से दाएं मुड़ने वाले लोग; यू-टर्न को ब्लॉक करने वाले लोग; पार्क के बेंच पर च्विंगम चिपकाने वाले लोग; बस की सीट फाड़ने वाले लोग; पैट्रोल पम्प पर पेट्रोल चुराने वाले लोग; अपने दूर के रिश्तेदार की पहुँच पर इतराने वाले लोग; चौराहों पर भीख देने वाले लोग; आसाराम की रिहाई के लिए जंतर-मंतर पर धरना देने वाले लोग; रेल लाइनों पर गंदगी फेंकते लोग; बिजली-पानी की चोरी करते लोग; रामपाल के लिए सेना को पथराने वाले लोग; रामवृक्ष के लिए पुलिस को दबोचने वाले लोग; रामरहीम के लिए देश जलाने वाले लोग और माँ की कसम देकर मेसेज फारवर्ड करने वाले लोग ....इन्हीं सब लोगों से मिलकर हमारे देश की जो तस्वीर बनती है उसमें सरकारी योगदान अथवा निकम्मेपन की कोई भूमिका नज़र तो नहीं आती लेकिन फिर भी हम अपने हर सामाजिक व नैतिक अपराध को सरकार तथा सिस्टम की ओट लेकर छुपा देने के अभ्यस्त हो गए हैं। 

मैं सरकार और सिस्टम की तरफदारी या विरोध न करके केवल इतना भर सोचना चाहता हूँ कि जो सुई पिछले सात दशक से सिस्टम की ख़राबी पर अटकी है उसे एक बार जनता की अथक ईमानदारी से आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता! क्या आवश्यक है कि बर्बरीक बनकर इस देश की महाभारत को एकटक निहारते रहा जाए और हर मृत जयद्रथ तथा अभिमन्यु को वीरता के ख़िताब की डुगडुगी थमाकर उससे निंदा का रस प्राप्त किया जाए? 

क्या एक सप्ताह मात्र के लिए हम यह प्रयोग नहीं कर सकते कि सरकारी नीतियों के उलाहनों को छोड़कर हम आत्म अनुशासन से इस देश की छोटी छोटी समस्याओं को बढ़ने से रोक पाएं। क्या अपने बच्चों को कल सड़क पर बेहिचक चलने देने के लिए आज हम अपनी गाड़ी थोड़ी दबा कर पार्क नहीं कर सकते? क्या कल अपनी बिटिया के निडर जीने की सुविधा देने के लिए आज अपने बेटों को संस्कार का छोटा-सा पाठ नहीं पढ़ा सकते। क्या कल अपने देश पर फख्र करने के लिए आज अपने आलस्य व प्रमाद का त्याग नहीं कर सकते? क्या हम देश को बदलने की ख़्वाहिश के लिए अपनी आदतों को सुधारने की कोशिश नही कर सकते!!! 

© चिराग़ जैन

Friday, September 1, 2017

कबिरा इन द मार्केट

कबिरा लुकाठी लेकर बाज़ार की ओर गया। उसे देखकर अपना घर फूँकने को प्रेरित हुए कुछ नवयुवक उसके साथ हो लिए। बीच बाज़ार खड़े होकर कबिरा ने लड़कों से पूछा- ‘बॉयज़, आर यू रेडी टू सेट फायर ऑन योर ओन हाउस?’
लड़के जोश में आकर बोले- ‘यस सर!’
कबिरा बोला- ‘ओके, गेट रेडी विद योर लुकाठी।’
लड़के निराश होकर बोले- ‘बट वी डोंट हेव लुकाठी विद अस!’
कबिरा मुस्कुराहट छुपाते हुए बोला- ‘डोंट वरी जेंटलमेन, आई विल अरेंज अ हॉट लुकाठी फ़ॉर यू।’
लड़के कृतार्थ भाव से बोले- ‘सो नाइस ऑफ यू सर!’
‘बट इट विल कॉस्ट फाइव हंड्रेड रूपीज़ ईच।’ -कबिरा ने मौके पर चौका मारा।
कबिरा ने पाँच-पाँच सौ रुपये सबसे ऐंठे। फिर सबके हाथ में लुकाठियाँ थमाकर अपने घर चला गया और अपने एसी बेडरूम में लेटकर ‘हाउस बर्निंग शो’ का लाइव टेलीकास्ट देखता-देखता सो गया।
© चिराग़ जैन