अपनी परेशानी की लेकर आड़
मैं तुमको बहुत मजबूर करता हूँ
कि तुम अपने सभी कष्टों को पल में भूल जाओ
और मेरी हर समस्या को बड़ा समझो!
हर बार झुंझला कर सही
पर मान लेती हो मेरी हर बात
ऐसा भला क्या खास है मुझमें
भला हर बार ऐसे क्यों पिघल जाती हो तुम?
जब कभी
अपने किसी आलस्य पर पर्दा किये
बीमारियों का, मूड का या काम का
मैं डाल देता हूँ तुम्हारे सिर
सदा हर एक लापरवाही अपनी
इन सभी अय्यारियों को जानकर भी
क्यों, भला किस बात से मजबूर हो
मेरे उन्हीं झूठे बहानों से
(जो तुम्हें अब तक यकीनन रट चुके हैं)
क्यों बहल जाती हो तुम?
सच बताऊँ
तुम ही हो
जो प्यार के कोरे छलावे में
निभाए जा रही हो
इस अभागे एक रिश्ते को
जहाँ उस प्यार की हर लाश
जल कर बुझ चुकी है
बह चुकी है भस्म भी उसकी
किसी उफनी नदी की बाढ़ में।
और तुम अब तक
उसी ठंडी लपट में जल रही हो,
मूर्ख हो शायद
जो इक अंधे सफर पर चल रही हो!
सच बताऊँ
मैं अगर होता तुम्हारी ही जगह पर
तो तुम्हें अब तक कभी का छोड़ देता!
© चिराग़ जैन
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