Monday, January 29, 2018

अवसान

सुबह उगे सूरज का ढलना निश्चित है हर शाम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

जिनका जीवन ग्रंथ हुआ था
जिनका कीना पंथ हुआ था
जो रावण का काल बन गए
मानवता का भाल बन गए
जिनने दीन अहिल्या तारी
जिनने युग की भूल सुधारी
जिनके चिन्ह क्षितिज पर ठहरे
जिनके तप से पत्थर तैरे
सरयू की लहरों में उतरे वो पुरुषोत्तम राम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

जिनकी कीर्ति युगों से ऊँची
आभारी थी सृष्टि समूची
गीता के उद्घोषक थे जो
पाण्डव दल के पोषक थे जो
यौवन पर उपकार रहे जो
कष्टों का उपचार रहे जो
भीषण रण के नायक थे जो
द्वापर के अधिनायक थे जो
केवल भ्रम की भेंट चढ़े थे वो माधव घनश्याम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

अपना क्या अस्तित्व यहाँ पर
जंगल में इक कीट बराबर
हम कितने भोले-भाले हैं
दायित्वों का भ्रम पाले हैं
कितने आए, कितने बीते
जग के कीर्ति कलश कब रीते
छिटका कर कुछ दिन को छींटे
थोड़े हारे, थोड़े जीते
हम भी छोड़ चले जाएंगे जीवन का संग्राम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

© चिराग़ जैन

Sunday, January 28, 2018

इनबाॅक्स के शुभचिंतक

मेरे हितचिंतको!
रोज़ सुबह जब मैं मोबाइल उठाता हूँ तो मेरा व्हाट्सएप्प आपके संदेशों से लदा हुआ होता है। मेरे निरुत्तर रहने के बावजूद आप ‘मा फलेषु कदाचन’ का अनुगमन करते हुए बिना मतलब की ‘गुड मॉर्निंग’ भेजना नहीं भूलते। मेरे शुभाकांक्षियो, आपके द्वारा भेजे जा रहे लाल-पीले फूलों को गूगल पर देख-देखकर मैं ऊब चुका हूँ। और उसके नीचे जो टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में ‘गुड मॉर्निंग’ या ‘गुड नाईट’ लिखकर आप इतराते हैं वह सब इतना बासी हो गया है कि अब उन फूलों से सड़ांध उठने लगी है।
आपकी निष्ठा देखकर मन गंधाने लगता है कि आपके पास जैसे ही कोई कूड़ा-करकट टाइप का फॉरवर्डेड मैसेज आता है आप तुरंत ‘सर्वकार्य त्यक्तेन’ उसे मेरे व्हाट्सएप्प पर दे मारते हैं। तिल के तेल से लेकर अदरक, मेथी, गाजर, लहसुन और लौंग तक के इतने लाभ आप मुझे बता चुके हैं कि अब इन सबको एक साथ खाकर मर जाने का जी करने लगा है।
आपका सूचना तंत्र इतना प्रबल है कि दिल्ली पुलिस से लेकर रॉ तक को जैसे ही किसी संदिग्ध फोन नंबर की ख़बर मिलती है तो वो तुरंत आपको बताते हैं और आप मेरे प्रति अपने अनुराग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मुझे फॉरवर्ड कर देते हैं। पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद हो अथवा मिलावटखोरों की नई साज़िशें; आपके इनबॉक्स में हाज़िरी लगाए बिना पत्ता तक नहीं हिल पाता। और आप इन पत्तों से उत्पन्न आंधियों को मेरे व्हाट्सएप्प पर भेजकर मोक्ष पा लेते हैं।
वैष्णोदेवी के भवन से चला हुआ संदेश हो या अजमेर शरीफ के जिन्नात का हुक्म; हिन्दू धर्म पर मंडरा रहा ख़तरा हो या इस्लाम के खि़लाफ़ चल रही साज़िशें, अमरीका की गुप्तनीति हो या नासा की फ्यूचर प्लैनिंग ...सब कुछ सलीके से आपके व्हाट्सएप्प पर मत्था टेकने आता है और आप उसे मेरे मोबाइल पर फेंक देते हैं।
इतिहास के ऐसे-ऐसे तथ्य आप निकालकर लाते हैं कि अकबर से लेकर चंद्रगुप्त तक सबकी आँखे फट जाती हैं। खुशियाँ मनाने का कोई अवसर चूक न जाए इस उद्देश्य से आप दीपावली, होली, गणतंत्र दिवस, ईद, रमज़ान, गुरूपरब, स्वतंत्रता दिवस, वेलेंटाइन डे, नववर्ष, क्रिसमस, गुडी पड़वा, ओणम, पोंगल, आखा तीज, नरक चतुर्थी, सोमवती मावस, अहोई अष्टमी, करवा चौथ और यहाँ तक कि जलिकुट्टी की भी शुभकामनाएँ भेजने से पीछे नहीं रहते।
आप मुझे इतना प्यार करते हैं कि अपनी हर उपलब्धि मुझसे शेयर करना चाहते हैं। चूँकि मेरे बिना आपका हर त्योहार अधूरा है इसलिए आप न्यूनतम व्यवहार को भी अनदेखा करके अपने, अपनी पत्नी के, अपने बच्चों के, अपने रिश्तेदारों के और अपने दोस्तों के भी चित्र मेरे इनबॉक्स में चिपकाकर मुझसे जन्मदिन और वैवाहिक वर्षगाँठ की शुभकामनाओं की अपेक्षा करते हैं। आपके पड़ोस में भी कोई मर जाए तो उसकी उठावनी की सूचना मुझ तक अवश्य आती है कि न जाने कब मेरा उस अज्ञात दिवंगत के प्रति मोह जाग जाए।
आपके घर में नई गाड़ी आती है और मेरे इनबॉक्स में उसका चित्र टांग दिया जाता है। आप फ़िल्म देखकर आते हैं और सज़ा मेरे इनबॉक्स को मिलती है। आपका कहीं सम्मान होता है और आप मेरे इनबॉक्स में पहुँचकर प्रशंसा की अपेक्षा करने लगते हैं। आप किसी सेलिब्रिटी के साथ फोटो खिंचवाते हैं और मेरे इनबॉक्स में पिंग हो जाता है। आप खिचड़ी खाने का निर्णय लेते हैं और खिचड़ी के लाभ का रायता मेरे इनबॉक्स में बिखर जाता है। आप सब्ज़ी खरीदते हुए सेल्फी खींचते हैं और मेरे इनबॉक्स में सब्जी मंडी लगा दी जाती है।
आपके इतने अधिक अपनत्व के कारण मुझे व्हाट्सएप्प से डर लगने लगा है। आपकी निरंतरता और अनर्गल सक्रियता के कारण मैं व्हाट्सएप्प पर आनेवाले आवश्यक संदेशों की भी अनदेखी करने लगा हूँ।
मैं अपने प्रति आपकी इस चिंता से अनुग्रहित हूँ और आपको दोनों हाथ जोड़कर यह बता देना चाहता हूँ कि आप जिन बासी चुटकुलों को ‘मार्केट में नया है’ के टैग के साथ पेलते हैं उन्हें सुनकर मुझें पाँचवी कक्षा में भी हँसी नहीं आती थी। मैं आपको यह भी सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा हास्यबोध और संवेदना बोध श्रेष्ठ साहित्य से सिक्त होकर काफी आगे बढ़ चुका है और आपके बेमतलब फॉरवर्डेड संदेश उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते। आपके गुड मॉर्निंग मेसेज को डिलीट करने में जो समय नष्ट होता है उसका सदुपयोग करूँ तो मैं कुछ सृजन कर लूंगा।
आपकी प्रशंसा लोलुपता मुझे व्हाट्सएप्प से आपको ब्लॉक करने के लिए प्रेरित करती है किन्तु संचार माध्यमों के महत्व को समझते हुए मैं ऐसा नहीं कर पाता। संचार के माध्यम सूचनाओं के सम्प्रेषण हेतु आविष्कृत हुए थे किंतु आपकी कचरा उंडेल प्रतियोगिता ने इन्हें सिर का दर्द बना दिया है। यदि आप इस माध्यम का उपयोग सूचनाओं एवं सृजन के प्रसारार्थ करें तो आपका सम्मान भी बना रहेगा और इन माध्यमों की उपयोगिता भी। फॉरवर्ड करने की हड़बड़ी में आप न जाने कितने ही अपवाद, विवाद और अफ़वाह प्रचारित करने लगते हैं।
इनबॉक्स प्रत्येक व्यक्ति का निजी अधिकार क्षेत्र है। उसमें घुसकर ज़बरदस्ती अपनी मूर्खताएँ पढ़ने-देखने-सुनने को विवश करना आपका अपमान बढ़ाता है। फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे कई कूड़ेघर हैं जहाँ आप कुछ भी डालकर अपनी भड़ास निकाल सकते हैं।
चाकू का आविष्कार तरकारी बिनारने के लिए ही किया जाए तो बेहतर है। यदि आप उससे हत्या करने लगें तो इससे चाकू की साख भी ख़तरे में पड़ेगी और आपका चरित्र भी। आशा है आज के बाद आप या तो मुझे अपनी बेमतलब ब्रॉडकास्टिंग सूचियों से हटा देंगे अथवा मेरा नम्बर ब्लॉक कर देंगे ...दोनों ही स्थितियों में आपका आभारी रहूंगा।

Friday, January 26, 2018

गणतंत्र दिवस

आज राजपथ पर महाराष्ट्र की झाँकी निकली तो महाकवि भूषण के घनाक्षरी से पूरा वातावरण काव्यमय हो गया। अभी भूषण की धमक गूंज ही रही थी कि छत्तीसगढ़ की झाँकी महाकवि कालिदास की विशाल मूर्ति और मेघदूत के श्लोकोच्चार के साथ पुनः कविता का जयघोष करती निकल गई। 

कल गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर भोपाल में था। मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग ने राष्ट्रकवि प्रदीप सम्मान अर्पण समारोह का आयोजन किया था। जिस समय "अंग्रेजो भारत छोड़ो" के उद्घोष को राजद्रोह घोषित करके स्वाधीनता के नायकों को जेल में ठूसा जा रहा था उस समय एक ब्राह्मण के बेटे ने उसी नारे को थोड़ा सलीके से रचकर जनता के आक्रोश को जीवंत रखने का विद्वतकर्म किया। जब तक अंग्रेज सरकार को यह ज्ञात हुआ कि "दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है" एक फिल्मी गीत मात्र न होकर स्वाधीनता संग्राम का उद्घोष है; तब तक आज़ादी की ललक फिल्मी पर्दे पर चढ़कर पूरे देश में फैल चुकी थी। 

प्रदीप जी ने ऐसे ऐसे विलक्षण गीत रचे कि अनायास ही भारतीय शौर्य के अद्वितीय गायक बन गए। स्वाधीनता के बाद जब 62 की लड़ाई में भारतीय बेटों की अर्थियां पूरे देश को उद्वेलित कर रही थीं तब मेजर शैतान सिंह भाटी की शहादत से बेचैन होकर प्रदीप जी ने वह अमर तराना रच दिया जिसके बिना भारतीय राष्ट्रप्रेम की कथा लिखी ही नहीं जा सकती। 26 जनवरी 1963 को पहली बार लता जी ने दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में "ऐ मेरे वतन के लोगो" को स्वर दिया तो ऐसा लगा जैसे किसी झुंझलाए हुए बच्चे से किसी ने उसका हाल पूछ लिया हो। एक गीत ने पूरे देश की आँखें नम कर दी। भारतीय सेना के शौर्य की गाथा इस करीने से बयान हुई कि युद्ध की पीर लोगों में सिहरन पैदा कर गई।

कल के समारोह में ये सारे किस्से एक-एक कर जीवंत हो गए। मंच पर प्रदीप जी की सुपुत्री मुटुल जी और कैफ भोपाली साहब की सहबज़ादी परवीन कैफ उपस्थित थीं। गत चार दशक से भारत में वीर रस के पर्याय के रूप में प्रतिष्ठापित डॉ हरिओम पँवार को राष्ट्रकवि प्रदीप सम्मान अर्पित किया गया।

सुबह गणतंत्र दिवस की परेड देखने के लिए टेलीविज़न ऑन किया तो लता जी वही अमर गीत गाती दिखीं। दूर कहीं किसी समारोह से 'कर चले हम फिदा' की स्वरलहरी सुनाई दी। अभी होशंगाबाद जाने के लिए टैक्सी मंगाई तो रेडियो पर "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम" सुन रहा हूँ।

भारत की जनता में गहरे तक बसे इस देशभक्ति के जज़्बे को सलाम। ज़माने भर की व्यस्तताओं के बीच भी कैसे अचानक से हमारी देशभक्ति अपने विराट रूप में प्रकट होकर पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बांध जाती है; यह सुखकारी है। 

इस देशभक्ति के जीर्णोद्धार में "वंदेमातरम" से लेकर "जन-गण-मन" तक और "सारे जहाँ से अच्छा" से लेकर "ऐ मेरे प्यारे वतन" तक के असंख्य गीतों का योगदान हमारे कवि हृदय में नई ऊर्जा का संचरण कर देता है। 

© चिराग़ जैन

26/01/2018

चुनाव तंत्र

एक दल बोलता है हमको थमा दो देश
हम लोकतंत्र की ज़मीन बेच देते हैं
एक दल बोलता है हमको थमा दो देश
जनता का धर्म और दीन बेच देते हैं
एक नेता बोला हम बन के मुंगेरी लाल
जनता को सपने हसीन बेच देते हैं
जनता ने कहा हम वायदों की बीन पर
काले कोबरा को आस्तीन बेच देते हैं

© चिराग़ जैन

प्रतीक्षा

ओ मथुरा के राजा सुन ले, वैभव से फुरसत पाए तो
गोकुल की गलियों में अब भी फाग प्रतीक्षारत बैठा है
दरबारों के जयकारों से जब भी मन उकता जाए तो
राधा की पलकों में इक अनुराग प्रतीक्षारत बैठा है

राजमहल का स्वांग रचाकर मन भर जावे तो आ जाना
द्यूतभवन की घटना से जब जी घबरावे तो आ जाना
खाण्डववन के तक्षक का विषदंश सतावे तो आ जाना
जमुना तट पर कुंज-लता का बाग प्रतीक्षारत बैठा है

सोने के बर्तन में केवल षड्यंत्रों का द्वंद मिलेगा
पत्तल की सूखी रोटी में जग भर का आनंद मिलेगा
राजमहल के छप्पन भोगों में फंसकर बिसरा मत देना
विदुरों की पावन कुटिया में साग प्रतीक्षारत बैठा है

छींके पर माखन की मटकी अब भी राह निहार रही है
वृद्ध जसोदा आस लगाए आंगन-द्वार बुहार रही है
रण के शोर-शराबे से तुम यह कहकर उठकर चल देना
जसुमति मैया के घर में सौभाग प्रतीक्षारत बैठा है

© चिराग़ जैन

Wednesday, January 24, 2018

लोक और तंत्र की रस्साकशी

भारतीय लोकतंत्र के चार स्तम्भ हैं - विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता।
विधायिका ने संसद में नोट लहराने से लेकर सांसदों की ख़रीद-फ़रोख़्त तक के गरिमामयी मंज़र देखे हैं। गाली-गलौज, स्याही, पत्थर, जूते और थप्पड़ जैसे अलंकरणों से इस स्तम्भ की आभा कीचड़ को अंगूठा दिखा रही है। घोटालों और दलाली तक के नवरत्नों ने प्रधानमंत्री पद से वार्ड सदस्य तक की कांति दूनी कर रखी है। स्थितियाँ इतनी सुखद हैं कि पूरे विश्व में भारतीय राजनीति के भ्रष्टाचार की मिसालें दी जाती हैं। किसी भी फ़िल्म में इस स्तम्भ के भीतर की गंदगी दिखाने में कोई राष्ट्रद्रोह नहीं महसूस किया जाता।
न्यायपालिका की कुत्ता-फ़जीहत पिछले दिनों सुखिऱ्यों में प्रकाशित हुई। कभी कोई जज अपने दुर्व्यवहार के लिए सड़क पर जनता के कोप का भाजन बनता है तो कभी सरेआम रिश्वत लेते हुए बरामद होकर न्याय की आँखों पर बंधी काली पट्टी पर धूल झोंकता दिखाई देता है। फैसलों की ख़रीद-फरोख़्त बोलने की हिम्मत इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि इसमें न्यायालय को बेइज़्ज़ती महसूस होती है। फिल्मों में न्याय प्रक्रिया की जितनी चाहे धज्जियाँ उड़ा लो, कभी कोई अवमानना का नोटिस जारी नहीं होता क्योंकि आँखों पर पट्टी बांधे बैठी न्याय की मूर्ति टीवी नहीं देखती। शिवसैनिक, बजरंग दल, आशाराम के भक्त, राम रहीम के भक्त, विश्व हिंदू परिषद, करणी सेना और अन्य संगठन, न्यायालय के आदेश के साथ बलात्कार करते रहते हैं और सभी महकमे चुपचाप बैठे तमाशा देखते रहते हैं।
कार्यपालिका ने अपनी एक साख बनाई है। जनता को विश्वास है कि जब कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिलेगी तो पुलिस ले-दे के काम करवा देगी। थाना एकमात्र ऐसा जगह है जहाँ आम आदमी बाली की तरह जाने से डरता है। पुलिसवालों से बात करने में लोगों की रूह काँपती है। फिल्में पुलिसवालों को दिन रात गालियाँ देती हैं लेकिन पुलिसवाले ऊपर की कमाई में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें फ़िल्म देखने की फुरसत ही नहीं है।
पत्रकारिता लोकतंत्र की आवाज़ है। सरकारी माध्यमों को सरकार का भौंपू कहने की परंपरा इंदिरा जी के ज़माने में ही डाल दी गई थी। अब विज्ञापनदाता की अभिरुचियों, सरकारी स्वार्थों की साधना और टीआरपी की अंधी होड़ में ‘कुछ भी’ दिखानेवाला मीडिया जनता से ‘बिकाऊ’ जैसा अलंकरण प्राप्त कर चुका है। मुद्दे, किरदार, खबर और यहाँ तक कि मौत को भी मंडी में बेचकर पैसा कमानेवाला मीडिया भारतीय लोकतंत्र की बर्बादी के गीत का आधार तत्व है।
इन चारों स्तंभों पर खड़ा लोकतंत्र निस्पृह भाव से लोक और तंत्र के मध्य की अनवरत रस्साकशी को तब-तक देखता रहेगा, जब तक हमारा तंत्र, लोक का आख़िरी कश नहीं मार लेगा।

© चिराग़ जैन

Sunday, January 21, 2018

इतिहास : एक कठपुतली

भारत का इतिहास एक ऐसी कठपुतली है, जिसे कोई भी अपनी उंगलियों पर नचा लेता है। लोकोक्तियों और किंवदंतियों की चोट से घायल इतिहास कराहता रहता है और उसकी कराह को पार्श्वसंगीत घोषित करके, सब अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप राग अलापने लगते हैं।
जो स्वघोषित विद्वान लिखी-लिखाई बातों को कुतर्क की भूल-भुलैया में उलझाकर उसका मेकअप करने में सक्षम हैं भारत का इतिहास एक ऐसी कठपुतली है, जिसे कोई भी अपनी उंगलियों पर नचा लेता है। लोकोक्तियों और किंवदंतियों की चोट से घायल, इतिहास कराहता रहता है और उसकी कराह को पार्श्वसंगीत घोषित करके, सब अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप राग अलापने लगते हैं।
जो स्वघोषित विद्वान लिखी-लिखाई बातों को कुतर्क की भूल-भुलैया में उलझाकर उसका मेकअप करने में सक्षम हैं उनके आगे सुनी-सुनाई बातों की तो कोई औक़ात ही नहीं है। इन दिनों, कुछ ऐसे विद्वानों की भी तादात बढ़ गई है, जो स्वरचित इतिहास के दम पर, पढ़ने से परहेज करनेवालों से मैगस्थनीज़ की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं।
जातीय विश्लेषण और ऐतिहासिक चरित्रों के नितांत व्यक्तिगत मनोभावों का बखान इन विद्वानों का प्रिय कर्म होता है। इनके आत्मविश्वास की दूरबीन इतनी शानदार होती है कि ये इक्कीसवीं सदी में बैठकर चंद्रगुप्त के मोबाइल पर पड़े एसएमएस पढ़ लेते हैं। दुर्याेधन, शकुनि, अम्बिका, भीष्म, द्रौपदी, मंथरा, विभीषण, मंदोदरी और अंगद आदि तो कलयुग तक चलकर आते थे इन्हें अपनी मनोदशा बताने। कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पैगम्बर, ईसामसीह और राम तो इन महान विद्वानों के निर्णय की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़े हैं कि ये लोग सुनिश्चित कर लें तो हम भी ख़ुद को महान मान लें।
पुराने धुरंधरों को धूसर करने के बाद इनकी चर्चाएँ मुग़ल काल और हिन्दू शासकों पर गोलाबारी करने लगती है। बाबर, अकबर, औरंगजेब, महाराणा प्रताप, शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान और शाहजहाँ इनके प्रिय पात्र हैं। मुग़ल काल की घटनाओं का बखान करते हुए ये विद्वान अक्सर मुग़ल-ए-आज़म की अनारकली, बाबरनामा, आईने-अकबरी और अकबर-बीरबल के किस्सों की खिचड़ी पका देते हैं और फिर उसी पतीले में डूबकर महफ़िल समाप्त कर देते हैं। यही स्थिति राजपूतों के इतिहास, पद्मावत महाकाव्य और जौहर की कथाओं के साथ भी घटित हो रही है। 
इससे आगे बढ़कर जब स्वाधीनता संग्राम के नायकों की चर्चा निकलती है तो सारे स्वघोषित इतिहासकार अपनी-अपनी विचारधारा के चश्मे लगाकर ज्ञानी बन जाते हैं। लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, नाना फड़नवीस, मंगल पांडे, बहादुरशाह ज़फ़र और टीपू सुल्तान की मट्टी पलीद करने के बाद ये महान इतिहासकार चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, रासबिहारी बोस और अशफ़ाकुल्लाह ख़ान के पीछे पड़ते हैं। बीच-बीच में विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती को भी कुछ खरोंचे आती हैं। उसके बाद जब बात गांधी, मुखर्जी, सावरकर, लोहिया, जिन्ना और नेहरू तक आती है तो ये विद्वान अपना आकार घटोत्कच्छ की तरह विराट कर लेते हैं। इस समय गांधी, नेहरू इनकी गोदी में खेलते बौने बालकों जैसे दिखने लगते हैं जिनको ये कभी भी थप्पड़ मारकर चुप करा सकते हैं। पटेल और शास्त्री इन्हीं की सलाह पर गांधी जी और नेहरू जी को लताड़ने लगते हैं। और इसके बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी, नरसिम्हा राव और अटल जी तो इनके इशारों पर भरतनाट्यम की मुद्रा में कठघरे में खड़े ही हुए हैं।
आजकल व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर इन महान इतिहासवेत्ताओं का अभियान ज़ोर-शोर से जारी है। राजनीति इन अनर्गल चर्चाओं पर वोट की रोटियाँ सेंकने में व्यस्त है और महापुरुषों के योगदान की चिताएँ मीडिया बुलेटिनों में धू-धूकर जल रही हैं। इन भभकती चिताओं से उठता धुआँ जनता की आँखों में घुसकर वास्तविक मुद्दों के दर्शन में अवरोध पैदा करता रहेगा।

-चिराग़ जैन 

संघर्ष का जयगान

लड़ते-लड़ते हार गया था कल जो सूरज अंधियारे से
उसकी एक किरण से गहरे अंधकार की मौत हो गई
मस्तक की त्यौरी बन जाती थी जिस विष का नित्य ठिकाना
इक मुस्कान खिली तो उस सारे विकार की मौत हो गई

जिस रिश्ते को छोड़ गए थे निर्जन वन में निपट अकेला
जिसको अपनेपन से ज़्यादा भाया दुनिया भर का मेला
जिसका था अनुमान हमें वो हारा-टूटा मिल जाएगा
या तो अब वो नहीं मिलेगा या फिर रूठा मिल जाएगा
जिसको झूठी चमक-दमक में गहरी पीड़ा दे आए थे
उसको हँसते-गाते पाकर शर्मसार की मौत हो गई
इक मुस्कान खिली तो उस सारे विकार की मौत हो गई

धरती के शासन की इच्छा जीवन का आधार बनी थी
क्रूर अशोक भयावह जिसकी बर्बरता अख़बार बनी थी
जिसको निर्दोषों का रक्त बहाने मे कुछ क्षोभ नहीं था
जिसको मन की कोमलता के रक्षण का भी लोभ नहीं था
जिसकी अपराजेय कीर्ति को हार कभी स्वीकार नहीं थी
जब वैराग्य घटा तो उसकी जीत-हार की मौत हो गई
इक मुस्कान खिली तो उस सारे विकार की मौत हो गई

जिनके दिए उदाहरण हमने, उनके जीवन समतल कब थे
उनकी भाग्य लकीरों में जाने कैसे-कैसे करतब थे
जिसको इधर डुबोया जग ने, उसको उधर उबर जाना है
धड़कन की रेखा सीधी होने का मतलब मर जाना है
समय पुरानी तलवारों को घिसकर पैना कर देता है
जंग दिखे तो यह मत समझो तेज धार की मौत हो गई
इक मुस्कान खिली तो उस सारे विकार की मौत हो गई

© चिराग़ जैन

Thursday, January 18, 2018

द्यूतक्रीड़ा

फिर से द्यूत सजा बैठा है
फिर बदले शकुनि ने पासे
फिर से चूक हुई विदुरों से
फिर हैं पाण्डव मौन-रुआंसे
मानवता की मर्यादा का फिर से आज क्षरण जारी है
मूकदर्शकों के प्रांगण में फिर से चीरहरण जारी है

प्रलय-समर फिर द्वार खड़ा है, पूरी है तैयारी रण की
फिर पांचाली चीख रही है, भीष्म निभाते निष्ठा प्रण की
गुरुओं की गर्दन नीची है, कुल की लज्जा अर्द्धनग्न है
दुर्योधन की जय सुन-सुनकर इक अंधा आनंदमग्न हैं
नीति-नियम की हर परिपाटी का अनवरत मरण जारी है
मूकदर्शकों के प्रांगण में फिर से चीरहरण जारी है

पौरुष दास हुआ बैठा है, अवसरवादी ढीठ रहा है
अपमानित कुण्ठित हठधर्मी अपनी जंघा पीट रहा है
हर पापी ने इस घटना को क्रीड़ा की मदहोशी समझा
जिसने प्रश्न उठाया उसको राष्ट्रद्रोह का दोषी समझा
मातम के बादल घिर आए, यम का आमंत्रण जारी है
मूकदर्शकों के प्रांगण में फिर से चीरहरण जारी है

यह इक पल ही समरांगण में प्रलयंकर भूचाल बनेगा
यह अपमानित भीम अधम का ध्वंस करेगा काल बनेगा
अब नीचे झुक जाने वाली हर गर्दन कटनी है रण में
केश पकड़ने वाले हाथों की छाती फटनी है रण में
ज्वार रुधिर का आज धमनियों के भीतर हर क्षण जारी है
मूकदर्शकों के प्रांगण में फिर से चीरहरण जारी है

दुर्योधन की शठता की अनदेखी के परिणाम मिलेंगे
सौ पुत्रों के शव पर रोना, आँसू आठों याम मिलेंगे
आँखों पर पट्टी बांधी है, मधुसूदन को दोष न देना
ममता के आँचल में युग के अभिशापों को पोस न देना
अनुचित हठ के इस पोषण में अपनों का तर्पण जारी है
मूकदर्शकों के प्रांगण में फिर से चीरहरण जारी है

© चिराग़ जैन

Tuesday, January 16, 2018

शांति का अवसर

भाग जाने दो कन्हैया
युद्ध भू से अर्जुनों को
यह पलायन ध्वंस के जयघोष से कितना बड़ा है
मत मनाओ
यूँ समझ लो शांति का अवसर खड़ा है

मोहवश कोई धनंजय कीर्ति को तजने लगे तो
छोड़कर गाण्डीव जो हरिनाम ही भजने लगे तो
उस समय उस त्याग की अनुगूंज का सम्मान कर लो
इस पराभव से बचेगा क्या तनिक अनुमान कर लो
उत्तरा का तेज कुछ दिन और जीवित रह सकेगा
भीष्म को कुरुकुल कई दिन तक पितामह कह सकेगा
कर्ण की जननी के सारे पुत्र जीवित रह सकेंगे
गर्भ में पलते सहस्रों भ्रूण विकसित रह सकेंगे
अग्नि का उपयोग भोजन हेतु ही होता रहेगा
अन्यथा श्मशान युग की अस्थियाँ ढोता रहेगा
मृत्यु का विकराल वैभव चैन से सोता रहे तो
मत उठाओ,
यूँ समझ लो काल पर पर्दा पड़ा है

द्रौपदी के केश तो इक दिन समय भी बांध देगा
पर सुभद्रा की उजड़ती गोद का रक्षक न कोई
सैंकड़ों अक्षौहिणी सेना सुसज्जित हैं प्रतीक्षित
डस सके इनको निजी प्रतिशोध का तक्षक न कोई
तर्क की सारी हवाएँ शांति पथ की ओर मोड़ो
हो सके तो कृष्ण पल भर के लिए हठमार्ग छोड़ो
हो सके तो यह समर प्रारम्भ होने से बचा लो
हो सके तो एक पूरा कल्प रोने से बचा लो
हो सके तो बाँसुरी की तान से झखझोर डालो
युद्ध के हर पात्र की हर इक प्रतिज्ञा तोड़ डालो
हैं सभी योद्धा किसी अपमान से आहत यहाँ; पर
मत लड़ाओ,
जो लड़ा है वो स्वयं से ही लड़ा है

इस समर से भी बड़ा इक युद्ध अर्जुन लड़ रहा है
मोह के वश आज उसका शौर्य फीका पड़ रहा है
छोड़ देना चाहता है वह सुयोधन से लड़ाई
वह न चाहेगा शवों को रौंदकर हासिल कमाई
वह न अनदेखा करेगा जननियों के आँसुओं को
वह न शोणित से भरेगा लोभ के अंधे कुओं को
ओट ले कर्तव्य की इस बार वह निर्मम न होगा
उठ चुका है ज्वार जो वैराग्य का अब कम न होगा
इस समर से प्राप्त जय का भ्रम न पालेगा धनंजय
त्याग पथ पर यश-पिपासा तोड़ डालेगा धनंजय
तर्क के मत बाण छोड़ो, और इस-उस रूप से अब
मत डराओ,
इस पलायन में समय का सुख गड़ा है

© चिराग़ जैन

Sunday, January 14, 2018

दिल्ली के मुख्यमंत्री के नाम एक खुला पत्र

श्री मान अरविंद केजरीवाल जी
मुख्यमंत्री
दिल्ली सरकार

सरजी!
हमें इस बात का भान है कि आप जब से सरकार में आए हैं, तब से पूरी क़ायनात आपके खि़लाफ़ हो गई है। पूरे देश की राजनीति, नौकरशाही और व्यवस्था सिर्फ इसी प्रयास में है कि आपको कुर्सी से कैसे हटाया जाए।
स्वयं प्रधानमंत्री आपके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। उधर राज्यपाल ने आपके सुख-चैन की सुपारी दे रखी है। यहाँ तक कि ईश्वर भी आप ही से चिढ़कर स्मॉग भेजने लगा है। और तो और आपकी ईमानदारी और लोकप्रियता से जलकर किरण बेदी, प्रशांत भूषण, शांति भूषण, योगेंद्र यादव, शाज़िया इल्मी, कुमार विश्वास, कपिल मिश्रा और ख़ुद अन्ना हज़ारे तक अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के पूरा न होने पर आपको अकेला छोड़ गए हैं।
दिल्ली पुलिस, डीडीए जैसे महत्वपूर्ण विभाग साज़िशन आपके नियंत्रण से बाहर रखे गए हैं। महत्वपूर्ण सरकारी आयोजनों में आपको निमंत्रित न करके अपमानित किया जाता है। आपकी सरकार के आयोजनों को सुरक्षा का अड़ंगा लगाकर अनुमति नहीं दी जाती। मीडिया के सारे बेईमान मिलकर आपके खि़लाफ़ हो गए हैं। और रही-सही कसर आपका स्वास्थ्य पूरी कर देता है। कभी मानसिक तो कभी शारीरिक स्वास्थ्य की सुरक्षा में भी आपका खासा समय व्यतीत हो जाता है।
इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए हिम्मत तो नहीं हो रही किन्तु एक मतदाता होने के नाते मैं आपको सूचित करना अपना अधिकार समझता हूँ कि जिस केंद्रशासित प्रदेश के मुख्यमंत्री होने का आप लुत्फ़ उठा रहे हैं, वह दिल्ली इन दिनों बहुत समस्याओं से घिरी हुई है।
आपकी गाड़ियों का क़ाफ़िला जिन चौराहों से दनादन दौड़ता हुआ निकलता है, उन चौराहों पर किन्नरों की उपस्थिति आपकी सरकार की नपुंसकता का मज़ाक उड़ाते हुए आपके मतदाताओं को सरेआम लूटती है। पुलिसवाले यह नंगा नाच देखते हैं और ख़ामोशी से स्टॉप लाइन क्रॉस करनेवालों से पैसे वसूलते रहते हैं।
डीटीसी के ड्राइवर ढिठाई से यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपनी लम्बी-चौड़ी बस से आम आदमी को खदेड़कर यह संदेश देते हैं कि सरकार ने आम आदमी को कीड़ा-मकौड़ा समझ लिया है, जिसकी जान की किसी को कोई परवाह नहीं है।
पार्किंग वाले 20 रुपये घंटे को पचास रुपये करने पर आमादा हैं और अनधिकृत पार्किंग में धड़ल्ले से गाड़ियों की वसूली की जा रही है। कानूनी निष्क्रियता का इतना अंधेरा छा गया है कि सिग्नल पर लालबत्ती का रंग लोगों को दिखना बंद हो गया है।
रेहड़ी-पटरीवाले आपके संरक्षण में घटोत्कच्छ की भाँति पूरी सड़क घेरने लगे हैं और रोड टैक्स चुकानेवाले वाहन चालक रोड ढूंढ रहे हैं। टूटी हुई सड़कें और टूटती जा रही हैं।
आपको झुग्गी-झोंपड़ियों में अपने राजनैतिक भविष्य का सूर्य दिखाई देता है और मध्यमवर्गीय दिल्ली अपनी ख़ामोशी का परिणाम झेलती जा रही है। सरकारी विज्ञापन आपकी सरकार को रामराज्य घोषित करना चाहते हैं किंतु उन विज्ञापनों को पढ़नेवाला दिल्लीवासी उनमें सिस्टम की बेशर्मी और ढिठाई पढ़ता है।
अगले वर्ष चुनाव है सरजी! दिल्ली की क़ानून व्यवस्था और यातायात व्यवस्था चरमरा चुकी है। यदि इन खंडहरों पर ढंग से लीपापोती नहीं की गई तो पोलिंग बूथ जाने के लिए घर से निकला आपका वोटर ट्रैफिक जाम में फँसकर रह जाएगा।

-आपका दिल्लीवासी
© चिराग़ जैन

Saturday, January 13, 2018

प्रश्न पूछना पाप है

साहब ने शतरंज की चाल चली। चार-पाँच चाल चलने के बाद, साहब हारने लगे। आँख बचाकर शतरंज की टेबल से उठकर, वे लूडो खेलने लगे। देश शतरंज को भूल गया और लूडो देखने लगा। थोड़ी देर बाद लूडो में भी साहब की सारी गोटियाँ पिट गईं। देश साहब की बुद्धिमत्ता पर लगाने के लिए प्रश्नचिन्ह लेने दौड़ा और जब तक वापस लौटकर आया तो साहब कैरम खेलते पाए गए। किसी जिज्ञासु ने पूछा कि लूडो और शतरंज का क्या हुआ तो साहब उसे बताने लगे कि शतरंज में मेरी गोटी लाल होने लगी तो लूडो के वज़ीर को कैरम की रानी ने शह दे दी। अभी-अभी बेसबॉल के रैकेट से दो सफेद गोटियाँ बाहर पहुँचाई हैं।
‘लेकिन आप तो कह रहे थे कि सफेद गोटियाँ विपक्षियों ने बाहर भेजी हैं!’ -जिज्ञासु आश्चर्यचकित होकर बोला।
प्रश्न सुनकर साहब के चेहरे पर महानता के चिन्ह उभर आए, लेकिन वे विनम्र होते हुए बोले- ‘यही तो हमारा बड़ा दिल है रे। हम काम करके क्रेडिट नहीं बटोरते।’
‘लेकिन आधार, मनरेगा, मंगल यान, एफडीआई के क्रेडिट लेने के लिए तो आपने सारी सीमाएँ लांघ दी थीं।’ -जिज्ञासु, साहब की विनम्रता को सत्य समझकर पूछने की हिम्मत कर बैठा।
सहब ने विनम्रता का कुर्ता उतार फेंका और राष्ट्रभक्ति की कमीज़ चढ़ाते हुए चिल्लाए- ‘अब ऊँची कूद में भी सीमा नहीं पार करूंगा तो विरोधी खिलाड़ी मुझे हरा देंगे। और मैं नहीं चाहता कि मैं हार जाऊँ और भारत की जनता को नज़रें झुकानी पड़ें।’
जिज्ञासु ने नहले पर दहला फेंकते हुए पूछा- ‘पर अपने कट्टर विरोधियों को अपनी पार्टी जॉइन करवाने के कार्य से आपने समर्थकों को नज़रें झुकाने पर विवश किया है।’
अब साहब का धैर्य डोल गया। वे अपनी फुलप्रूफ प्लानिंग का वर्णन करते हुए बोले- ‘मिस्टर जिज्ञासु! समर्थक हमारी पेड ऑडियन्स हैं। उनको स्पॉन्सर्स की उंगलियों पर तालियाँ बजानी होंगी। अभी किसी नेता के पाला बदलने पर थोड़ी ज़िल्लत उठानी होगी लेकिन कुछ दिन बाद इनके ज़ख़्मों पर नारंगी ब्रांड का मरहम लगाकर इन्हें मैनेज कर लेंगे। फिर भी स्थिति न संभली, तो आस्था की एस्टरॉयड डोज़ से फ़ास्ट रिलीफ़ की व्यवस्था कराई जाएगी।’
जिज्ञासु दुःखी होकर बोला कि यह तो चीटिंग है। पेड ऑडियन्स और डोपिंग दोनों ही खेल के नियम के खि़लाफ़ है।
अब साहब ने जिज्ञासु को कोई जवाब नहीं दिया। बल्कि अपने राइट हैंड को एसएमएस किया- ‘नेक्स्ट टारगेट जिज्ञासु भाई।’
दस मिनिट में राइट हैंड का रिप्लाई आया- ‘टारगेट अचीव्ड।’

© चिराग़ जैन

सपनों की शोकसभा

समय मिले तो तुम भी आना दो झूठे आँसू टपकाने
हमने जो मिलकर देखे थे, उन सपनों की शोकसभा है
तुम जिनका तर्पण कर आए जीवन नदिया की धारा में
जो आँखों में ठहर गए थे, उन लम्हों की शोकसभा है

जिनसे फिल्टर हो जाते थे, कड़वाहट के सब कीटाणु
सबसे पहले अपनेपन की दोनों किडनी फेल हुई हैं
संवादों के सन्नाटे में दिल छोटा होता जाता था
मुस्कानों को लकवा मारा, आलिंगन को जेल हुई है
जिन दीवारो-दर को हम-तुम दोनों अपना घर कहते थे
जिन रिश्तों को अपना माना, उन अपनों की शोकसभा है

तस्वीरों पर धूल जमी है, गुलदस्तों में वीरानी है
आंगन की तुलसी मुरझाई, सूखी है सुख की हरियाली
अपशकुनों ने पैर पसारे, सारी चीजें़ लावारिस हैं
सारा कलरव मौन हुआ है, सारा घर लगता है खाली
जिनको उड़ने की हिम्मत हम दोनों मिल-जुलकर देते थे
हिम्मत कर पाओ तो आना, उन पंखों की शोकसभा है

© चिराग़ जैन

Tuesday, January 9, 2018

शहर का बयान

सारी जिम्मेदारी मेरी, सब सहना लाचारी मेरी
प्राण लुटाकर गाली खाना, बस इतनी सी पारी मेरी
फिर भी जब अवसर होगा सब गाँवों का गुणगान करेंगे
मैं तो ठहरा शहर मुझे अपनाकर सब अहसान करेंगे

जब सुविधा का प्रसव कराने, गाँवो ने इनकार किया था
तब मैंने ही आगे बढ़कर ये दुखड़ा स्वीकार किया था
शुद्ध हवा ने धमकी दी जब मुझको छोड़ चले जाने की
तब भी मैंने बस लोगों की सुविधा का सत्कार किया था
सुख से दूरी जारी मेरी, सुविधाओं से यारी मेरी
मुझको लगता था होएगी, मानवता आभारी मेरी
पर गाँवों की बिछड़ी यादों का निशदिन सम्मान करेंगे
मैं तो ठहरा शहर मुझे अपनाकर सब अहसान करेंगे

बरसातों में घर की पक्की छत के नीचे जीने वाले
गर्मी में एसी कमरों में ठंडे शर्बत पीने वाले
सर्दी में ब्लोअर की ऊष्मा से सुख की चाहत करते हैं
तब क्यों याद नहीं आते हैं कच्चे छप्पर झीने वाले
नदिया कर दी खारी मेरी, धरती कर दी भारी मेरी
मेरा शोषण करने वालों को चुभती अय्यारी मेरी
पक्की सड़कों पर दौड़ेंगे, पगडंडी पर मान करेंगे
मैं तो ठहरा शहर मुझे अपनाकर सब अहसान करेंगे

मेरी निंदा के चर्चे हैं मानवता के अखबारों में
मुझको माना है खलनायक वक्तव्यों के व्यापारों में
पैसे की व्यवहारिकता को कविताओं में जी भर कोसा
गाँव सुखों का मोल लगाता, रोज़ाना इन बाजारों में
किसने शक्ल सुधारी मेरी, कब समझी दुश्वारी मेरी
भोलेपन की चालाकी को, खलती है हुशियारी मेरी
अंगूरों को खट्टा कहकर कुंठा का रसपान करेंगे
मैं तो ठहरा शहर मुझे अपनाकर सब अहसान करेंगे

© चिराग़ जैन

Sunday, January 7, 2018

पीड़ा का अनुमान

जिस बिरवे की हर कोंपल को अपने हाथों से दुलराया
उस बिरवे के मुरझाने पर माली पर क्या बीती होगी
चहक भरी जिसने जीवन में, तिनका-तिनका नीड़ बनाकर
उस चिड़िया के उड़ जाने पर, डाली पर क्या बीती होगी

कतरा-कतरा जोड़ा हिम ने, तब नदिया का रूप बना था
धरती का सीना छलनी कर इक मीठा जलकूप बना था
जिन हाथों में होंठों तक भी जाने का दम शेष नहीं था
उन हाथों से गिर जाने पर, प्याली पर क्या बीती होगी

दिन भर खून-पसीना देकर, जिस सूरज के प्राण बचाए
प्राची कितना सिसकी होगी, जब वो पश्चिम के मन भाए
जिसका तेज दमकता चेहरा सारी दुनिया में रौशन था
उस सूरज के ढल जाने पर, लाली पर क्या बीती होगी

जिसके नखरे पूरे करके रीझा करती रोज़ रसोई
ताती रोटी, नर्म पराँठे, चार परत आटे की लोई
जो रोटी पोए जाने तक खाली बासन खनकाता था
उस बेटे के मर जाने पर, थाली पर क्या बीती होगी

© चिराग़ जैन

Thursday, January 4, 2018

देशप्रेम का क्रीम-पाऊडर

‘राजनीति महत्वाकांक्षी मस्तिष्कों का क्रीड़ाक्षेत्र है।’ -यह एक सूक्ति मात्र नहीं बल्कि मतदाताओं की उम्मीदों पर वज्रपात भी है। समाजसेवा और देशप्रेम का क्रीम-पाऊडर लगाकर कोई व्यक्ति जनता को मुँह दिखाने क़ाबिल बनता है। निरंतर ब्यूटी पार्लर भ्रमण करने के फलस्वरूप जनता एक दिन यह यक़ीन कर बैठती है कि चेहरे की यह चमक वास्तविक है। जैसे ही जनता को यह यक़ीन होता है उसी क्षण नया नेता भागकर किसी पार्टी के दफ़्तर में जाता है और अपने मेकअप पर हुए ख़र्चे की बोली लगाने का उपक्रम शुरू करता है।
पार्टी में बैठे पुराने घाघ नेता, फाउंडेशन के दम पर बनी उसकी पब्लिक फाउंडेशन का पार्टी के हित में आकलन करते हैं और एक कुशल गृहिणी की तरह आलू-प्याज की शैली में उससे उसकी औक़ात का मोलभाव करने लगते हैं। उचित मूल्य लग जाने के बाद नवनिर्मित नेताजी का चेहरा दो भागों में बाँट दिया जाता है। पार्टी कार्यालय के भीतर उनका आचरण ठीक वैसा होता है जैसा ग्राहक जुटा लेने के बाद किसी गणिका का अन्य गणिकाओं से होता है। पार्टी कार्यालय के बाहर वही गणिका अन्य ग्राहकों के सामने चरित्रवती बनकर लानत भेजने लगती है।
प्रत्येक गणिका के जीवन में एक समय ऐसा अवश्य आता है जब उसका आसामी उससे ऊब जाता है और उसे ग़ैरत की क़ीमत चुकाने में आनाकानी करने लगता है। इस परिस्थिति में हर गणिका यह समझ जाती है कि उसका ग्राहक अब ज़्यादा दिन उसे नहीं झेलेगा। मूर्ख गणिकाएँ ऐसी स्थिति को दिल से लगाकर आसामी को नपुंसक कहने लगती हैं और बिस्तर पर की गई उसकी हरक़तों को सार्वजनिक करके उसकी चरित्र हत्या का प्रयास करती हैं। किन्तु प्राणहीन की हत्या संभव कहाँ है?
समझदार और अनुभवी गणिकाएँ ऐसा नहीं करतीं। वे ग्राहक की ऊब को भाँपकर अतिरिक्त विनम्र हो उठती हैं। अन्यान्य उपायों से भरसक प्रयास करती हैं कि उसका आसामी उससे ख़ुश रह सके। किन्तु जब कोई उपाय नहीं दिखता तो वे एक दिन ग्राहक के भोजन में विष मिला देती हैं और उसकी लाश का अंगूठा कोरे काग़ज़ पर लगाकर उसकी संपत्ति का हरण कर लेती हैं। ये गणिकाएँ सर्वाेच्च पदों तक पहुँचने की क्षमता रखती हैं।
विभीषण जब रावण से अपमानित हुआ तो उसे राम याद आए। उसने राम को बताया कि मैं तो लंका में रहकर भी आप ही के नाम की उपासना करता था। सुनकर राम प्रसन्न हो गए और विभीषण को राज्यसभा भेजने का वचन दे दिया। अपनी राज्यसभा की सीट पक्की होते देख महात्मा विभीषण ने रावण की लंका, भाई-बहन और यहाँ तक कि अपने राष्ट्र से भी मुख़ालफ़त करने में हिचक न की। विभीषण के इस समर्पण से राम बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें भक्त-शिरोमणि की उपाधि दी।
उधर सुग्रीव का भाई उसकी बदतमीज़ीयों से उकताकर उसे घर-निकाला दे चुका था। सुग्रीव में इतनी हिम्मत न थी कि भाई के कान पर दो टिका दे। दुःखी सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर बैठे सीताहरण लाइव देख रहे थे। उन्होंने रावण को ऐसा पाप करने से रोकना चाहा किन्तु उन्हें लगा कि सीता का पता बताने के बदले में मैं राम से सौदेबाज़ी कर सकता हूँ। उन्होंने सीताहरण होने दिया। राम जब विकल होकर पहुँचे तो सुग्रीव उतने ही प्रसन्न हुए जितने संजीव कुमार के हाथ काटकर गब्बर सिंह जी हुए थे। उन्होंने राम से कहा कि मैं आपकी केस स्टडी तो करना चाहता हूँ लेकिन ‘फोर्स्ड बैचलर’ होने के कारण कंसन्ट्रेट नहीं कर पा रहा हूँ। राम अब तक फोर्स्ड बैचलर की पीड़ा जान चुके थे। लक्ष्मण तो इस फील्ड में सीनियर फैलो थे ही। दोनों भाइयों ने मिलकर पीएसी की मीटिंग में बाली को धूल चटाने की योजना बनाई। इसके लिए सबसे पहले सुग्रीव को पार्टी से निलंबित किया गया। उसने बाली को गालियाँ देने का अधिकृत लाइसेंस पा लिया। कुछ दिन गालियों से अभिषेक करने के बाद सुग्रीव को वापस पार्टी की सदस्यता दे दी गई। इस स्टेप से बाली बौखला गया। उसकी बौखलाहट का लाभ उठाकर उसे पार्टीविरोधी सिद्ध करते हुए राम ने बाली की हत्या कर दी।
अंगद सबसे समझदार रहा। उसने चाचा को पटाए रखा। क्योंकि वह जानता था कि राजनीति में पासा कहीं भी पड़ सकता है। यदि चाचा जीता तो अंगद की स्वामिभक्ति उसकी राज्यसभा सीट का ग्राउंड बना देगी और अगर चाचा निबट गया तो इकलौता पुत्र होने के कारण उसका अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार रहेगा ही रहेगा।
अब प्रश्न यह है कि इस सबके बीच जनता क्या करे। अरे भई, हरि का गुन गाओ.... राम का नाम भजो और अपनी दो जून की रोटी की चिंता करो। क्योंकि भूखे पेट न भजन गोपाला!

© चिराग़ जैन