Monday, January 29, 2018

अवसान

सुबह उगे सूरज का ढलना निश्चित है हर शाम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

जिनका जीवन ग्रंथ हुआ था
जिनका कीना पंथ हुआ था
जो रावण का काल बन गए
मानवता का भाल बन गए
जिनने दीन अहिल्या तारी
जिनने युग की भूल सुधारी
जिनके चिन्ह क्षितिज पर ठहरे
जिनके तप से पत्थर तैरे
सरयू की लहरों में उतरे वो पुरुषोत्तम राम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

जिनकी कीर्ति युगों से ऊँची
आभारी थी सृष्टि समूची
गीता के उद्घोषक थे जो
पाण्डव दल के पोषक थे जो
यौवन पर उपकार रहे जो
कष्टों का उपचार रहे जो
भीषण रण के नायक थे जो
द्वापर के अधिनायक थे जो
केवल भ्रम की भेंट चढ़े थे वो माधव घनश्याम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

अपना क्या अस्तित्व यहाँ पर
जंगल में इक कीट बराबर
हम कितने भोले-भाले हैं
दायित्वों का भ्रम पाले हैं
कितने आए, कितने बीते
जग के कीर्ति कलश कब रीते
छिटका कर कुछ दिन को छींटे
थोड़े हारे, थोड़े जीते
हम भी छोड़ चले जाएंगे जीवन का संग्राम रे
फिर भी कब रुकते हैं पल भर इस दुनिया के काम रे

© चिराग़ जैन

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