Sunday, January 21, 2018

इतिहास : एक कठपुतली

भारत का इतिहास एक ऐसी कठपुतली है, जिसे कोई भी अपनी उंगलियों पर नचा लेता है। लोकोक्तियों और किंवदंतियों की चोट से घायल इतिहास कराहता रहता है और उसकी कराह को पार्श्वसंगीत घोषित करके, सब अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप राग अलापने लगते हैं।
जो स्वघोषित विद्वान लिखी-लिखाई बातों को कुतर्क की भूल-भुलैया में उलझाकर उसका मेकअप करने में सक्षम हैं भारत का इतिहास एक ऐसी कठपुतली है, जिसे कोई भी अपनी उंगलियों पर नचा लेता है। लोकोक्तियों और किंवदंतियों की चोट से घायल, इतिहास कराहता रहता है और उसकी कराह को पार्श्वसंगीत घोषित करके, सब अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप राग अलापने लगते हैं।
जो स्वघोषित विद्वान लिखी-लिखाई बातों को कुतर्क की भूल-भुलैया में उलझाकर उसका मेकअप करने में सक्षम हैं उनके आगे सुनी-सुनाई बातों की तो कोई औक़ात ही नहीं है। इन दिनों, कुछ ऐसे विद्वानों की भी तादात बढ़ गई है, जो स्वरचित इतिहास के दम पर, पढ़ने से परहेज करनेवालों से मैगस्थनीज़ की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं।
जातीय विश्लेषण और ऐतिहासिक चरित्रों के नितांत व्यक्तिगत मनोभावों का बखान इन विद्वानों का प्रिय कर्म होता है। इनके आत्मविश्वास की दूरबीन इतनी शानदार होती है कि ये इक्कीसवीं सदी में बैठकर चंद्रगुप्त के मोबाइल पर पड़े एसएमएस पढ़ लेते हैं। दुर्याेधन, शकुनि, अम्बिका, भीष्म, द्रौपदी, मंथरा, विभीषण, मंदोदरी और अंगद आदि तो कलयुग तक चलकर आते थे इन्हें अपनी मनोदशा बताने। कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पैगम्बर, ईसामसीह और राम तो इन महान विद्वानों के निर्णय की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़े हैं कि ये लोग सुनिश्चित कर लें तो हम भी ख़ुद को महान मान लें।
पुराने धुरंधरों को धूसर करने के बाद इनकी चर्चाएँ मुग़ल काल और हिन्दू शासकों पर गोलाबारी करने लगती है। बाबर, अकबर, औरंगजेब, महाराणा प्रताप, शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान और शाहजहाँ इनके प्रिय पात्र हैं। मुग़ल काल की घटनाओं का बखान करते हुए ये विद्वान अक्सर मुग़ल-ए-आज़म की अनारकली, बाबरनामा, आईने-अकबरी और अकबर-बीरबल के किस्सों की खिचड़ी पका देते हैं और फिर उसी पतीले में डूबकर महफ़िल समाप्त कर देते हैं। यही स्थिति राजपूतों के इतिहास, पद्मावत महाकाव्य और जौहर की कथाओं के साथ भी घटित हो रही है। 
इससे आगे बढ़कर जब स्वाधीनता संग्राम के नायकों की चर्चा निकलती है तो सारे स्वघोषित इतिहासकार अपनी-अपनी विचारधारा के चश्मे लगाकर ज्ञानी बन जाते हैं। लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, नाना फड़नवीस, मंगल पांडे, बहादुरशाह ज़फ़र और टीपू सुल्तान की मट्टी पलीद करने के बाद ये महान इतिहासकार चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, रासबिहारी बोस और अशफ़ाकुल्लाह ख़ान के पीछे पड़ते हैं। बीच-बीच में विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती को भी कुछ खरोंचे आती हैं। उसके बाद जब बात गांधी, मुखर्जी, सावरकर, लोहिया, जिन्ना और नेहरू तक आती है तो ये विद्वान अपना आकार घटोत्कच्छ की तरह विराट कर लेते हैं। इस समय गांधी, नेहरू इनकी गोदी में खेलते बौने बालकों जैसे दिखने लगते हैं जिनको ये कभी भी थप्पड़ मारकर चुप करा सकते हैं। पटेल और शास्त्री इन्हीं की सलाह पर गांधी जी और नेहरू जी को लताड़ने लगते हैं। और इसके बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी, नरसिम्हा राव और अटल जी तो इनके इशारों पर भरतनाट्यम की मुद्रा में कठघरे में खड़े ही हुए हैं।
आजकल व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर इन महान इतिहासवेत्ताओं का अभियान ज़ोर-शोर से जारी है। राजनीति इन अनर्गल चर्चाओं पर वोट की रोटियाँ सेंकने में व्यस्त है और महापुरुषों के योगदान की चिताएँ मीडिया बुलेटिनों में धू-धूकर जल रही हैं। इन भभकती चिताओं से उठता धुआँ जनता की आँखों में घुसकर वास्तविक मुद्दों के दर्शन में अवरोध पैदा करता रहेगा।

-चिराग़ जैन 

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