भारतीय लोकतंत्र के चार स्तम्भ हैं - विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता।
विधायिका ने संसद में नोट लहराने से लेकर सांसदों की ख़रीद-फ़रोख़्त तक के गरिमामयी मंज़र देखे हैं। गाली-गलौज, स्याही, पत्थर, जूते और थप्पड़ जैसे अलंकरणों से इस स्तम्भ की आभा कीचड़ को अंगूठा दिखा रही है। घोटालों और दलाली तक के नवरत्नों ने प्रधानमंत्री पद से वार्ड सदस्य तक की कांति दूनी कर रखी है। स्थितियाँ इतनी सुखद हैं कि पूरे विश्व में भारतीय राजनीति के भ्रष्टाचार की मिसालें दी जाती हैं। किसी भी फ़िल्म में इस स्तम्भ के भीतर की गंदगी दिखाने में कोई राष्ट्रद्रोह नहीं महसूस किया जाता।
न्यायपालिका की कुत्ता-फ़जीहत पिछले दिनों सुखिऱ्यों में प्रकाशित हुई। कभी कोई जज अपने दुर्व्यवहार के लिए सड़क पर जनता के कोप का भाजन बनता है तो कभी सरेआम रिश्वत लेते हुए बरामद होकर न्याय की आँखों पर बंधी काली पट्टी पर धूल झोंकता दिखाई देता है। फैसलों की ख़रीद-फरोख़्त बोलने की हिम्मत इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि इसमें न्यायालय को बेइज़्ज़ती महसूस होती है। फिल्मों में न्याय प्रक्रिया की जितनी चाहे धज्जियाँ उड़ा लो, कभी कोई अवमानना का नोटिस जारी नहीं होता क्योंकि आँखों पर पट्टी बांधे बैठी न्याय की मूर्ति टीवी नहीं देखती। शिवसैनिक, बजरंग दल, आशाराम के भक्त, राम रहीम के भक्त, विश्व हिंदू परिषद, करणी सेना और अन्य संगठन, न्यायालय के आदेश के साथ बलात्कार करते रहते हैं और सभी महकमे चुपचाप बैठे तमाशा देखते रहते हैं।
कार्यपालिका ने अपनी एक साख बनाई है। जनता को विश्वास है कि जब कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिलेगी तो पुलिस ले-दे के काम करवा देगी। थाना एकमात्र ऐसा जगह है जहाँ आम आदमी बाली की तरह जाने से डरता है। पुलिसवालों से बात करने में लोगों की रूह काँपती है। फिल्में पुलिसवालों को दिन रात गालियाँ देती हैं लेकिन पुलिसवाले ऊपर की कमाई में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें फ़िल्म देखने की फुरसत ही नहीं है।
पत्रकारिता लोकतंत्र की आवाज़ है। सरकारी माध्यमों को सरकार का भौंपू कहने की परंपरा इंदिरा जी के ज़माने में ही डाल दी गई थी। अब विज्ञापनदाता की अभिरुचियों, सरकारी स्वार्थों की साधना और टीआरपी की अंधी होड़ में ‘कुछ भी’ दिखानेवाला मीडिया जनता से ‘बिकाऊ’ जैसा अलंकरण प्राप्त कर चुका है। मुद्दे, किरदार, खबर और यहाँ तक कि मौत को भी मंडी में बेचकर पैसा कमानेवाला मीडिया भारतीय लोकतंत्र की बर्बादी के गीत का आधार तत्व है।
इन चारों स्तंभों पर खड़ा लोकतंत्र निस्पृह भाव से लोक और तंत्र के मध्य की अनवरत रस्साकशी को तब-तक देखता रहेगा, जब तक हमारा तंत्र, लोक का आख़िरी कश नहीं मार लेगा।
© चिराग़ जैन
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