हिंदी कवि सम्मेलन भारतीय समाज में एक परंपरागत संचार माध्यम के रूप में प्रतिष्ठापित है। आधुनिक और अत्याधुनिक माध्यमों के प्रचलन से पूर्व ही कवि सम्मेलनों ने भारतीय जनमानस में गहरी पैंठ बना ली थी। समय के साथ काव्य मंचों पर रासानुपत में परिवर्तन अवश्य हुए किन्तु ये सब परिवर्तन कवि-सम्मेलन के मूल स्वरूप के इर्द-गिर्द ही बने रहे।
प्रारम्भ में साहित्य और पत्रकारिता के हस्ताक्षर अलग-अलग नहीं थे किंतु समय के साथ ये दोनों ही क्षेत्र अलग चिन्हित किये जाने लगे। हिंदी की पत्रकारिता का तो उद्भव ही साहित्य के साधकों ने किया। माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, धर्मवीर भारती और अन्य तमाम ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने भारत में पत्रकारिता की आधारशिला रखी। यह वह समय था जब साहित्य और पत्रकारिता को अलग करना असंभव जान पड़ता था।
बाद में "साहित्यिक पत्रकारिता" पत्रकारिता के बड़े क्षितिज का छोटा सा अंश बन कर रह गई। इस कालखंड में प्रतिष्ठित साहित्यकारों को समाचार पत्र के संपादन मंडल में इसलिए स्थान मिलता था क्योंकि पत्र में नियमित प्रकाशित होने वाली कहानियां, कविताएं, संपादकीय, व्यंग्य और भाषा का स्तर पत्र की गरिमा तय करता था। धीरे-धीरे समाचार पत्रों में साहित्य एक कोना मात्र बनकर रह गया। अधिकतर समाचार पत्रों में यदा-कदा कोई कविता छाप कर साहित्य की हाज़िरी लगा दी जाती थी और कुछ समूहों ने तो यह हाज़िरी भी बंद कर दी।
इसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब साहित्य, कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास की कड़ियाँ समाचार पत्रों में बाक़ायदा "बैन" हो गईं। कुछ संपादकीय मंडलों ने तो साहित्यिक गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों आदि की ख़बर तक प्रकाशित करने से परहेज किया। अंततः इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक की शुरुआत होते-होते देश के प्रमुख हिंदी दैनिक पत्रों से साहित्य-बीट ही समाप्त हो गई।
मीडिया की अनदेखी के इस दौर में दूरदर्शन एकमात्र ऐसा माध्यम बचा था जिससे प्रसारित होने वाली काव्य-गोष्ठियों में साहित्य जीवित था। नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रसारित होने वाले रंगारंग कार्यक्रमों में हुल्लड़ मुरादाबादी जी, सुरेन्द्र शर्मा जी और शैल चतुर्वेदी जी जैसे चेहरे अक्सर दिखाई देते थे। अशोक चक्रधर जी और गोविंद व्यास जी ने दूरदर्शन की इन काव्य गोष्ठियों में विविध प्रयोग किये। हर दूसरे मंगलवार को प्रसारित होने वाले 'कहकहे' कार्यक्रम में अशोक चक्रधर जी, सुरेश नीरव जी और सरोजिनी प्रीतम जी ने हास्य कविता का नया अध्याय प्रारम्भ किया। अनेक कवियों की वर्तमान लोकप्रियता की नाल दूरदर्शन की इन्हीं गोष्ठियों में गड़ी हुई है। युवा काव्य गोष्ठी, फुलझड़ी एक्सप्रेस और अन्य काव्य आधारित कार्यक्रम टेलीविज़न पर कवियों की हाज़िरी लगवाते रहे। दृश्य-श्रव्य संचार माध्यम पर यह उपस्थिति साहित्यिक अनुष्ठानों के मनोबल की दृष्टि से "डूबते को तिनके का सहारा" सिद्ध हुई।
बाद में सेटेलाइट टेलीविज़न की अतिवृष्टि में जैसे-जैसे दूरदर्शन के रंग फीके पड़े, वैसे-वैसे ही काव्य गोष्ठियों और अन्य साहित्यिक अनुष्ठानों के प्रचार-प्रसार का कारवां भी थम गया।
शुद्ध व्यावसायिकता और ग्लैमर की तेज़ रौशनी में मसनद पर विराजित बिना संगीत-साज के कवि-सम्मेलन को मिसफिट करार दे दिया गया। देश भर में कवि-सम्मेलन होते रहे किन्तु मीडिया की फोकस लाईट का छोटा सा घेरा कवि सम्मेलन तक पहुँचने से कतराता रहा। NDTV ने कुमार संजोय सिंह के संचालन में "अर्ज़ किया है" शीर्षक से एक कवि सम्मेलन की सर्जना की भी थी किन्तु इस प्रयास की यात्रा बहुत लम्बी न हो सकी। इसके तुरंत बाद डॉ अशोक चक्रधर ने SAB TV पर "वाह-वाह" प्रारम्भ किया। कवि सम्मेलन की परंपरागत छवि की तर्ज़ पर तैयार यह कवि सम्मेलन एक नए भवन की नींव मजबूत कर गया।
इसी समय में STAR ONE पर द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज नामक एक कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ जिसने TRP के सभी रेकॉर्ड तोड़ डाले। इस कार्यक्रम में लतीफों और भाव-भंगिमा से लोगों को हँसाने की एक अपेक्षाकृत नवीन विधा की प्रतियोगिता का संयोजन था। इस कार्यक्रम को जब मीडिया के पुराने लोगों ने देखा तो वह साथी याद आया जिसे वे मसनद पर बैठा छोड़ आए थे।
"आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड" में यक़ीन करने वाले मीडिया ने कवि-सम्मेलन को लुप्त मान लिया था। इसलिए जब पीछे जाकर उसने कवि-सम्मेलन के सिर पर लगी फोकस लाइट का स्विच ऑन किया तो वहाँ सब कुछ बदल चुका था। मसनद के गोल तकियों ने सोफे का रूप ले लिया था। कवियों का कुर्ता-पायजामा सूट-बूट में तब्दील हो चुका था। टैंट हाउस के माइक सिस्टम अब ग्लैमरस माइक्रोफोन और लेपल के आकार में ढल गए थे, दरी पर बैठे श्रोताओं की दरियां कुर्सियां बन चुकी थीं और लोकल टैंट हाउस की व्यवस्थाएं भव्य ऑडिटोरियम में सुव्यवस्थित हो चली थीं।
इस दौर तक SAB TV पर अशोक चक्रधर जी द्वारा संचालित "वाह-वाह" का दर्शक वर्ग TRP के आंकड़ों में अपनी सम्मानजनक पहचान बना चुका था। उधर "जनमत" टीवी के माध्यम से दीपक गुप्ता जी और नीरज पुरी जी ; टीवी इंडिया और दबंग टीवी से शैलेश लोढ़ा जी; तथा अन्यान्य चैनल्स से अरुण जैमिनी जी भी सेतुनिर्माण में गिलहरी के योगदान की कथा लिख रहे थे। विवेक गौतम के संचालन में "जैन टीवी" पर चल रहा "इंडिया कॉलिंग" लम्बा चला किंतु अपनी पहचान क़ायम करने में विफल रहा। साधना टीवी पर प्रवीण आर्य के संयोजन में चल रहे "कवियों की चौपाल" कार्यक्रम का उपक्रम भी बहुत फलदायी सिद्ध न हो सका।
इसी उठापटक के बीच सब टीवी को सोनी एंटरटेनमेंट जैसे बड़े समूह ने ख़रीद लिया और अशोक चक्रधर जी का "वाह-वाह" सुभाष काबरा जी के हाथों से होता हुआ शैलेष लोढ़ा जी के हाथों में आ गया। अनेक प्रयोग करने के बाद शैलेष जी ने इसे "वाह-वाह क्या बात है" शीर्षक से बिल्कुल नए प्रारूप में प्रारम्भ किया। ठीक इसी कालखण्ड में लाफ्टर चैम्पियन की अचानक से उभरी मांग का जादू धीमा पड़ने लगा था। और इसी दौर में नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना आंदोलन में डॉ कुमार विश्वास की अग्रणी भूमिका ने उन्हें लोकप्रियता के शीर्ष पर ला खड़ा किया था।
वाह-वाह क्या बात है ने TRP के मोर्चे पर कवि सम्मेलन की महती उपस्थिति दर्ज की और कुमार विश्वास ने कवि सम्मेलनों को उस तबके तक पहुंचा दिया जिसको कविता से कोई ख़ास लेना-देना नहीं था।" वाह-वाह क्या बात है" के संचालक शैलेश लोढ़ा भी लोकप्रिय धारावाहिक "तारक मेहता का उल्टा चश्मा" के मुख्य पात्र के रूप में लोकप्रियता के प्रतिमान स्थापित कर चुके थे।
ऐसे संयोगों के बल पर SAB TV का "वाह-वाह क्या बात है" कवि सम्मेलनों के खोए हुए ग्लैमर का लॉन्चिंग पैड साबित हुआ। नए रूप-रंग और ग्लैमर के साथ प्रसारित होता परंपरागत कवि सम्मेलन कॉर्पोरेट और मल्टी नेशनल्स को भी आकृष्ट करने लगा। उधर कुमार विश्वास की ख्याति भी कवि सम्मेलनों की सिल्वर स्क्रीन प्रेजेंस के लिए प्रायोजक जुटाने में सहायक सिद्ध हुई।
इधर "वाह-वाह क्या बात है" के सौ से अधिक एपिसोड प्रसारित हो चुके थे, उधर धूमिल होते लाफ्टर शो के एक सादा से नुमाइंदे कपिल शर्मा ने एक कॉमेडी शो लांच करके भारतीय टेलीविज़न जगत के TRP अन्वेषकों को चौंका दिया। चूँकि कवि-सम्मेलन और लाफ्टर शो के स्वरूप में बहुत सी समानताएं हैं इसलिए इन दोनों प्रकार के कार्यक्रमों के श्रोतावर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा समान ही है।
कपिल शर्मा के शो की टीआरपी के चलते कोई नया कार्यक्रम तो टेलीविज़न पर नहीं शुरू हुआ किन्तु कवि सम्मेलन के प्रति उदासीन मीडिया का बर्ताव पूरी तरह बदल गया। टीवी न्यूज़ चैनल्स ने कवि सम्मेलनों को अनियमित प्रसारण के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया। एकाध वर्ष में ही प्रत्येक न्यूज़ चैनल में होली के अवसर पर कवि-सम्मेलन अनिवार्य सा हो गया। इसी बीच न्यूज़-नेशन ने "चुनावी-चकल्लस" शीर्षक से कवियों का एक ऐसा कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसमें राजनैतिक चुनावी घटनाक्रम पर कवियों की चुटकियां कार्यक्रम की सफलता का माध्यम बनी। 16वीं लोकसभा के चुनाव में यह कार्यक्रम ख़ासा लोकप्रिय हुआ। चुनाव सम्पन्न होने के बाद इसे "चकल्लस" शीर्षक से संजय झाला जी ने संचालित किया।
उधर कुमार विश्वास ने दो कदम और आगे बढ़कर "महाकवि" शीर्षक से दिवंगत कवियों के जीवनवृत्त की एक श्रृंखला ABP NEWS पर प्रारम्भ की। इस कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार ने कवियों के ग्लैमर को और ऊपर उठाने में सहायता की।
कुछ समय बाद NEWS 18 INDIA ने "लपेटे में नेताजी" शीर्षक से एक ऐसा कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसमें राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को स्टूडियो में कवियों के सामने बैठाया जाता था और कवि अपने चुटीले अंदाज़ में उनसे प्रश्न पूछते थे। इस कार्यक्रम में पहली बार कविता और राजनीति का ON AIR आमना सामना हुआ।
न्यूज़ मीडिया में कवि सम्मेलन अब पूरी तरह चस्पा हो चुका है। किसी भी मुद्दे पर कवियों को बुलाकर एक एपिसोड शूट कर लेना प्रोग्रामिंग हेड के लिए आसान भी होता है और इस कार्यक्रम की सफलता की गारंटी भी पूरी होती है। कई लाख रुपये ख़र्च करके प्रोग्रामिंग कोटे का एक बुलेटिन तैयार करने की बजाय मौलिक कंटेंट, सरल समन्वय और अपेक्षाकृत कम व्यय में शानदार कवि सम्मेलन शूट करने में प्रोडक्शन की अधिक रुचि दिखने लगी है। आज तक, एबीपी, न्यूज़ नेशन, ज़ीन्यूज़, ज़ी बिज़नेस, इंडिया न्यूज़, न्यूज़ 24 और अन्य सभी न्यूज़ चैनल्स पर समय-समय पर कवि सम्मेलनों की उपस्थिति यह घोषणा करती है कि साहित्य और मीडिया का जो बिछोह प्रिंट मीडिया के मेले में प्रारम्भ हुआ था वह अब इलैक्ट्रोनिक मीडिया की गलियों में समाप्त हो गया है। मीडिया के पास नए कंटेंट का टोटा था और कवि-सम्मेलनों के पास उचित प्रचार तकनीकों का। दोनों ने आपस में हाथ मिलाकर एक नए युग की शुरुआत की है।
© चिराग़ जैन