Tuesday, March 27, 2018

श्वास से ज़्यादा ज़रूरी है विश्वास

सावधान रहकर रेंगा जा सकता है, चला जा सकता है किन्तु दौड़ा नहीं जा सकता। दौड़ने के लिए विश्वास की आवश्यकता होती है। जिस राह पर दौड़ रहे हो, उस पर विश्वास; जिन पैरों से दौड़ रहे हो, उन पर विश्वास; जिन राहगीरों के साथ दौड़ रहे हो, उन पर विश्वास। जिस वृक्ष के नीचे से गुज़रोगे, उस पर विश्वास करना होगा कि वह आपके ऊपर गिर नहीं पड़ेगा। आसमान पर विश्वास करना पड़ेगा कि वह टूट नहीं जाएगा। दाहिने पैर को विश्वास करना होगा कि जब तक वह हवा में रहेगा, तब तक बाँया पाँव उसके हिस्से का भी संतुलन बनाए रखेगा। बाँए पैर को आश्वस्त होना होगा कि जब वह अपने हिस्से की दौड़ लगाएगा तो दाहिना पैर देह के बोझ को ज़िम्मेदारी से संभाले रखेगा। इनमें से किसी भी विश्वास का स्थान संदेह ने ले लिया तो वह संदेह आपके पैरों को जकड़ लेगा।
जड़ के विश्वास पर ही देवदार के तना भौतिकी के समस्त नियमों के विपरीत, सैंकड़ों फीट तक उठता चला जाता है। यदि उस तने को जड़ पर विश्वास न हो और वह बार-बार मुड़कर जड़ की मजबूती जाँचने लगे तो वह अष्टवक्र सरीखा झाड़ बनकर रह जाएगा।
सृष्टि विश्वास पर टिकी हुई है। सूर्य पर हमें विश्वास है कि वह शाम को ढल जाएगा। चन्द्रमा पर हमें विश्वास है कि वह नियत क्रम में घटता-बढ़ता रहेगा। यहाँ तक कि मृत्यु पर भी हमें विश्वास है कि वह एक न एक दिन अवश्य आएगी। बस, हम नहीं करते तो सिर्फ़ इस जीवन पर विश्वास नहीं करते। जिस जीवन का प्रारंभ प्रसव जैसी अद्वितीय पीड़ा से होता है उसकी शक्ति पर हमें भरोसा नहीं हो पाता। जिस मस्तिष्क ने बिना किसी प्रशिक्षण के देह के रोम-रोम पर नियंत्रण कर रखा है उसकी क्षमता पर हम संदेह करने लगते हैं।
जिन संबंधों की ऊर्जा शक्ति एक पूरी सृष्टि से लोहा लेने को तैयार रहती है, उन संबंधों पर हमें विश्वास नहीं है। जिस प्रेम के बूते सृष्टि की हज़ार बार सृजित की जा सकती है, उस प्रेम पर हम भरोसा नहीं कर पाते और घृणा को पोसने लगते हैं। लहलहाते हुए खेत का स्वप्न देखनेवाले लोग, बीज की क्षमताओं पर संदेह नहीं करते। जितनी ऊर्जा हम बीज पर संदेह करने में खपाते हैं, उतनी ही ऊर्जा अपने श्रम, अपनी इच्छाशक्ति और भूमि की उर्वरता को पोसने में खपाएँ तो खेत में फसल ज़रूर लहलहाएगी।
जीवन जीने के लिए विश्वास, श्वास से भी अधिक आवश्यक है। विश्वास के अभाव में कोई भी सफ़र गति नहीं पकड़ सकता; न क़ामयाबी का, न भक्ति का, न प्रेम का और न ही रिश्तों का! जो मन में संदेह रखकर इनमें से किसी राह पर चलता है, वह दरअस्ल अपने-आप को छल रहा होता है।

© चिराग़ जैन

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