Saturday, July 27, 2019

चर्चा बहुत ज़रूरी है अब

युग बदला, हालात वही हैं 
निर्बल पर आघात वही हैं 
चेहरा बदला है चौसर ने 
लेकिन शह और मात वही हैं 
लगता है फिर महासमर से, बस थोड़ी ही दूरी है अब 
लगता है सारे नियमों पर चर्चा बहुत ज़रूरी है अब 

फिर कुंती मजबूर हुई हैं, फिर कचरे में कर्ण मिले हैं 
फिर पांचाली चीररहित है, फिर कुनबे के होंठ सिले हैं 
महलों की फिर गोद भरे जो, क्षमता सिर्फ़ नियोगी की है 
सत्ता या तो अंधे की है या नाकारा रोगी की है 
हर शासन पाखण्डी निकला 
न्यायालय भी मंडी निकला 
अम्बा को वरदान मिला तो 
उसका रूप शिखण्डी निकला 
सब प्रतिशोधों से प्रेरित हैं, सबकी साध अधूरी है अब 
लगता है सारे नियमों पर चर्चा बहुत ज़रूरी है अब 

गुरुकुल शिक्षा की रेवड़ियां, जाति देख कर बाँट रहे हैं 
प्रतिभा का अपमान हुआ है, द्रोण अंगूठे काट रहे हैं 
गुरुता स्वार्थ टटोल रही है, करुणा का पथ छोड़ चुकी है 
रंगभूमि सारे नियमों को अपने हित में मोड़ चुकी है 
आश्रम सभी अशुद्ध हुए हैं 
विद्या पथ अवरुद्ध हुए हैं 
परशुराम इक सूतपुत्र की 
क्षमता लखकर क्रुद्ध हुए हैं 
चिड़िया की हत्या कर देना, अर्जुन की मजबूरी है अब 
लगता है सारे नियमों पर चर्चा बहुत ज़रूरी है अब 

कुंती पर भी प्रश्न उठाओ, बिन ब्याहे आह्वान किया क्यों 
भीष्म पितामह से भी पूछो, अनुचित का सम्मान किया क्यों 
क्यों दुःशासन ही दोषी हों, क्यों दुर्योधन ही दंडित हों 
जो प्रतिकार नहीं कर पाए, वो क्योंकर महिमामंडित हों 
हर इक सभा-समिति बदल दो 
प्रतिशोधों की नीति बदल दो 
अम्बा, भीष्म सुरक्षित होंगे 
स्वयंवरों की रीति बदल दो 
यह परिवर्तन कर देने को, हर मन की मंज़ूरी है अब 
सच मानो, सारे नियमों पर चर्चा बहुत ज़रूरी है अब 

© चिराग़ जैन

Thursday, July 18, 2019

वाइको

कांग्रेस वाले कैसे कैसे पीस ले के आए 
कटपीस हो के चिन्दी चिन्दी पे फँसा दिया
कभी तो किसी ने आलू-सोने से बिगाड़ा खेल
कभी नारियल कभी भिंडी पे फँसा दिया
कभी चायवाला कहा और कप धोने पड़े
निंदा पे फँसाया कभी निंदी पे फँसा दिया
पहले ही बोलती थी बन्द कांग्रेसियों की
और अब वाइको ने हिंदी पे फँसा दिया

© चिराग़ जैन

कर्नाटक चुनाव

कर्नाटक के 
इस नाटक का
पर्दा गिरने वाला है
ख़बरों में चर्चा है उनका गुडलक फिरने वाला है

चाल चली जो बीजेपी ने उसके पासे ठीक पड़े
सत्ता में बैठे साथी ही बाग़ी बनकर चीख पड़े
गुपचुप गुपचुप खिचड़ी पक गई, उनके साथी टूट गए
फ्लोर टेस्ट में इज़्ज़त लुट गई, और पसीने छूट गए
जेडीएस की
कुर्सी पर अब
संकट घिरने वाला है
ख़बरों में चर्चा है उनका गुडलक फिरने वाला है


© चिराग़ जैन

संघ की जासूसी

ये नीतीशवा करे है कानाफूसी 
करावे जासूसी
मोदी जी इनका साथ छोड़ दो
इनके तेवर में भर दो ज़रा भूसी
कि छोड़ो कंजूसी
सत्ता की शह-मात छोड़ दो

आर एस एस पर और विहिप पर नज़रें इनकी पैनी हैं
हम हैं मौन तुम्हारी ख़ातिर उनके हाथों छैनी हैं
हमें बता दो आख़िर कब तक गुंडागर्दी सहनी है
संघ लुटा तो बीजेपी की लाज कहाँ फिर रहनी है
जहाँ होती हो रोज़ बेईमानी
क्या दोस्ती निभानी
मोदी जी ये बिसात छोड़ दो
ये नीतीशवा करे है कानाफूसी
करावे जासूसी
मोदी जी इनका साथ छोड़ दो
इनके तेवर में भर दो ज़रा भूसी
कि छोड़ो कंजूसी
सत्ता की शह-मात छोड़ दो


© चिराग़ जैन

कविता और पत्रकारिता

पत्रकारिता जिस घटना की देह लिखती है, कविता उसी घटना की आत्मा लिखती है.

-चिराग़ जैन

पाकिस्तान की हेकड़ी

देखो हेकड़ी निकाल दई सारी 
पड़ोस की बीमारी
तुम्हारा सत्यानाश हो गया
कैसी चौड़े में आरती उतारी
ओ साँपों की पिटारी
खुले में पर्दाफ़ाश हो गया

भारत की हर इक कोशिश को तुमने जी भर कोसा था
बद का अंत बुरा होता है, तुमको नहीं भरोसा था
हम कहते थे रूमाली थी, तुम कहते थे डोसा था
उस हाफ़िज़ को क़ैद किया है, जिसको पाला पोसा था
सब निकल गई तुम्हारी होशियारी
गुनाहों के मदारी
अब तो तुम्हें विश्वास हो गया
देखो हेकड़ी निकाल दई सारी
पड़ोस की बीमारी
तुम्हारा सत्यानाश हो गया

आख़िर कब तक दाबे रखते तुम मानवता के शव को
ऐरा ग़ैरा समझ रखा था तुमने भीषण भैरव को
रावण के घर में रखकर भी बांध न पाए राघव को
दुनिया भर से न्याय मिलेगा अब कुलभूषण जाधव को
वहीं होंगी अदालतें भी सारी
चलेगी न तुम्हारी
तुम्हारा चेहरा वाश हो गया
देखो हेकड़ी निकाल दई सारी
पड़ोस की बीमारी
तुम्हारा सत्यानाश हो गया

© चिराग़ जैन

जनसंख्या

सैंया पूछने लगी है सरकार 
कलैण्डर कब तक छापोगे
अब संभालने दो मोहे घर बार
कलैंडर कब तक छापोगे

कमरों की हालत ख़स्ता है
आंगन पड़ गया छोटा
चौका बोला हो जावेगा
दो रोटी का टोटा
मेरी देह भी करे है इनकार
कलैंडर कब तक छापोगे

संसाधन नाराज़ हुए हैं
रूठी हैं सुविधाएँ
कहीं हमारी लापरवाही
भारी ना पड़ जाएँ
छिन जाएंगे तुम्हारे अधिकार
कलैंडर कब तक छापोगे


© चिराग़ जैन

Wednesday, July 17, 2019

नीरज नहीं मरा करता है

बीसवीं सदी की समग्र गुनगुनाहट की कहानी, जिस एक जिल्द में सिमटकर पूर्ण होती है उसका शीर्षक है- ‘गोपालदास नीरज’! पीड़ा की अनुभूति को उत्सव के शिल्प में अभिव्यक्त करते किसी भरपूर गीत की जन्मकुण्डली बनाई जाए, तो वह नीरज की जन्मकुंडली होगी।
नीरज का जीवन एक ऐसा बेहतरीन उपन्यास है, जो अनेक रोचक लघुकथाओं से मिलकर बनता है। नीरज की कविता किसी चमचमाते हुए पत्थर का वह टुकड़ा है, जिसके निर्माण में सदियों की पीड़ा का श्रम सम्मिलित है। वे अक्सर कवि-सम्मेलन के मंच पर एक शेर पढ़ते थे- ‘इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, तुमको लग जाएंगी सदियाँ हमें भुलाने में’। इसे पढ़ते समय उनके अधर एक विशेष मुद्रा में खिल-खिल जाते थे और आँखों में एक उपहास ठहाका लगाने लगता था। ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अपने कष्टों की पराजय पर जीत का जश्न मना रहे हों।
गीतकार होने के लिए पीड़ा को जिस सीमा तक सुर-ताल के तटबंध का भान होना चाहिए, दर्द को जिस सलीके से छंद की यति-गति का शऊर आना चाहिए वह नीरज जी के यहाँ ख़ूब समझ आता है। वे अपने हर गीत में किसी अमूर्त से बतियाते नज़र आते हैं। इस अमूर्त की बिल्कुल सही पहचान कर पाना असंभव है। कभी वे भाग्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी फक्कड़ बेफ़िक्री का बयान दर्ज कराते हैं; तो कभी एक नज़र में सारे ज़माने को चिढ़ाते हुए, अपनी गुनगुनाहट पर इतराने लगते हैं। कभी समस्याओं का गिरेबान पकड़कर समाधान का परिचय पत्र दिखाते फिरते हैं; तो कभी निराशा पर ठहाका लगाते हुए जिजीविषा के हस्ताक्षर जड़ देते हैं।
नीरज का विफल प्रेमी भी अपने प्रयासों की शत प्रतिशत ईमानदारी के एहसास से भरकर संतुष्टिलोक के किसी दुर्लभ आनंद में निमग्न दीख पड़ता है। नीरज का समर्पण उनके प्रेम को देह से विदेह तक की यात्रा कराने में समर्थ है। वे सौंदर्य की पोर-पोर को भोगते हुए भी अपनी कविताओं के ऋष्यमूक पर उसकी लिप्सा के प्रकोप से अछूते रह पाते हैं।
नीरज की जवाबदेही स्वयं के प्रति है। वे अपने किसी कृत्य अथवा विचार के लिए सफ़ाई पेश नहीं करते। वे अपनी प्रत्येक श्वासोच्छवास के लिए अपने आप के सम्मुख कोई अकाट्य तर्क लेकर प्रस्तुत होते हैं। उनकी इसी प्रवृत्ति के आगे मृत्यु भी उनके एक इशारे पर दोनों हाथ बांधे उनके अंतिम गीत के पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर लेती है। उनकी इसी अलमस्त फ़क़ीरी के सम्मोहन में मृत्यु का दूत भी अपना कर्त्तव्य बिसार कर कई वर्ष तक यह गीत सुनता रहता है कि-

ऐसी क्या बात है, चलता हूँ अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ

बाद मेरे जो यहाँ और हैं गानेवाले
सुर की थपकी से पहाड़ों को सुलानेवाले
उजाड़ बाग़, बियाबान, सूनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलानेवाले
उनके पैरों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
उनकी राहों के ज़रा शूल हटा लूँ, तो चलूँ
ऐसी क्या बात है, चलता हूँ अभी चलता हूँ

...गाते गाते, सचमुच चले गए नीरज जी! उनके बाद छंद की गंध से फूलों को खिलानेवाले उदास हैं। उनके बाद सुर की थपकी से पहाड़ सो नहीं पा रहे हैं लेकिन उनके गीत इस उदासी में उनके अमरत्व की तान छेड़कर दिलासा देते हैं- ‘छुप-छुप अश्रु बहानेवालो! मोती व्यर्थ लुटानेवालो! कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।’

© चिराग़ जैन

Saturday, July 13, 2019

विवेक निषेध

हमारा समाज पर्दे का दास हो गया है। मीडिया हमारे दृष्टिकोण तय करता है और हम भेड़ों की तरह स्वयं को बुद्धिमान मानकर उस दृष्टिकोण का अनुसरण करने लगते हैं।
‘दंगल’ फिल्म में गीता-बबीता को ज़बरदस्ती उनकी मर्ज़ी के बिना उनके पिता पहलवानी सिखाते हैं तो हम उनके पिता को महान सिद्ध कर देते हैं। क्योंकि कहानी के अंत में पिता (आमिर ख़ान) सही सिद्ध हो गए। हम मंज़िल देखकर रास्ते की प्रशंसा करने लगते हैं। इसी रास्ते पर जब ‘थ्री इडियट’ का डीन चलना चाहता है तो हम उसके खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं। क्योंकि अबकी बार आमिर ख़ान स्टूडेंट थे।
‘कालिया’ में अमिताभ बच्चन स्मगलर बन जाते हैं तो हम दुआ मांगते हैं कि वे पुलिस के हाथ न आएँ। ‘ज़ंजीर’ में वही अमिताभ इंस्पेक्टर बने, तो हम चाहते हैं कि उनके चंगुल से कोई मुजरिम न बचने पाए। इसका साफ़ मतलब है कि हमारी सोच दरअस्ल हमारी नहीं है। हम वह सोचते हैं जो टीवी चाहता है।
हम उतने भर को सच मान लेते हैं, जो पर्दे पर दिखाया जाता है। हम ठीक उसी एंगल से सोचने लगते हैं जिस एंगल से पर्दा चाहता है। हरियाणा में प्रेम विवाह के खि़लाफ़ खाप पंचायतों का फ़ैसला आता है तो हम प्रेमियों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। (कृपया ज्ञात हो कि मैं खाप के पक्ष में नहीं हूँ) किन्तु उत्तर प्रदेश में एक लड़की अपनी मर्ज़ी से सारे क़ानूनी दायरों में रहते हुए प्रेमी के साथ भाग जाती है तो उसके बर्बाद हो जाने की दुआ मांगी जाती है। उस पर लानतें भेजी जाती हैं। क्यों, क्योंकि खाप के मुआमलों में मीडिया ने हमें बताया कि परंपराओं के नाम पर यह अत्याचार है, और हम मानने लगे। लेकिन अब मीडिया ने हमें बताया कि एक दलित के साथ भाग कर लड़की ने अपने पिता की राजनैतिक प्रतिष्ठा भंग कर दी, उनके मुँह पर कालिख़ पोत दी ...और हम मानने लगे।
मैं दोनों मुआमलों में किसी को ग़लत या सही नहीं ठहरा रहा हूँ। मैं केवल यह जानने का प्रयास कर रहा हूँ कि हमारे समाज की अपनी कोई सोच है भी या नहीं। या फिर हम सदियों से मानसिक मवेशियों की तरह अनुसरण ही करते आ रहे हैं। हम एकतरफ़ा फैसला देने में इतनी जल्दी क्यों करते हैं। हम यह क्यों नहीं जानना चाहते कि घटना जहाँ से हमें दिखाई दे रही हैं, उसमें कोई आयाम अनदेखा भी हो सकता है। जो लड़की आज मीडिया के दरवाज़े पर खड़ी होकर अपने पिता से संवाद कर रही है, उसी लड़की ने यदि केवल पुलिस से आस लगाई होती या वह सीधे अपने पिता के सम्मुख खड़ी हो जाती और इसके बाद कोई अनहोनी हो जाती तो हम इसी सोशल मीडिया पर उसे मूर्ख बताते हुए कहते- ‘पागल थी, जिस प्रदेश में पिता नेता है, उसी प्रदेश की पुलिस से सहायता मांग रही थी, जानती नहीं थी क्या कि पुलिस कितनी भ्रष्ट है। सीधे मीडिया में आ जाना था, फिर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती उसका बाल बांका करने की।’
काश हम लोग, अपने विवेक से घटना के सम्यक आकलन का प्रयास भर करना सीखें। काश हम यह समझें कि आँखों को केवल दो आयाम दिखते हैं।

© चिराग़ जैन

सुनो कुम्हारो!

गारा गूँदो, चाक चलाओ 
चाहे मिट्टी में सन जाओ 
पर जिस दिन वह रूप धरेगी, जब वह एक सुराही होगी 
उस दिन उसको छू लेने की तुमको सख़्त मनाही होगी 

जब उसके भीतर का पानी जग की प्यास बुझाता होगा 
जब हर आता जाता उसकी तारीफ़ें कर जाता होगा 
तब उसको पछतावा होगा 
उसके मन में लावा होगा 
जिसने भट्ठी में सुलगाया 
उसके ऊपर धावा होगा 
जब उसकी मनचाही होगी, तनिक नहीं कोताही होगी 
तुम पर निर्णय दुनिया देगी, उसकी सिर्फ़ गवाही होगी 

तुम मत याद दिलाना उसको सौंपा है आकार तुम्हीं ने 
उसके कोमल कच्चेपन को थामा है हर बार तुम्हीं ने 
तब वह यही समझती होगी
निश्चित ही मैं सागर होती 
हाथ तुम्हारा ना लगता तो 
मैं अब से कुछ बेहतर होती 
जब उसकी वाहवाही होगी, तब कुछ लापरवाही होगी 
तब तुम उसकी फ़िक्र करोगे, तो वह तानाशाही होगी 

© चिराग़ जैन

Thursday, July 11, 2019

मत पूछिए

शायरी में ढूंढ लेना सिसकियों की दास्तां 
चश्मे-तर की सुर्ख़ियां अख़बार से मत पूछिए 

आदमी होकर सियासत में दख़ल मुम्किन नहीं 
आदमीयत का पता सरकार से मत पूछिए 

दुश्मनी ही कर रहे हो तो ज़रा तल्ख़ी रखो 
सच बता दूँगा मैं सब कुछ, प्यार से मत पूछिए 

शुक्र है आवाज़ से महरूम होती है दुआ 
किस क़दर ऊबा है घर, बीमार से; मत पूछिए 

© चिराग़ जैन

Sunday, July 7, 2019

शायरी से गुज़र रहा हूँ मैं

अब सही काम कर रहा हूँ मैं 
अपने अंदर उतर रहा हूँ मैं 

मैं कहाँ हूँ बता नहीं सकता 
शायरी से गुज़र रहा हूँ मैं 

चाहतें जो मुझे चिढ़ाती थीं 
उनके अब पर कतर रहा हूँ मैं 

जी रहा हूँ ये बात भी सच है 
ये भी सच है कि मर रहा हूँ मैं 

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 3, 2019

कर पाए, तो इतना कर दे!

ओ ईश्वर कहलाने वाले 
सारा विश्व बनाने वाले 
क़िस्मत के पर्दे में छुपकर 
सारा खेल रचाने वाले 
अपना नाटक ख़ुद ही खेले मानव को इतना अवसर दे! 
कर पाए, तो इतना कर दे! 

तेरी मर्ज़ी होती है तो हम इस धरती पर आते हैं 
तेरी मर्ज़ी से जीते हैं, तू कहता है, मर जाते हैं 
तेरे हाथों की कठपुतली 
जैसे चाहा वैसे उछली 
पल भर को ढीली भी कर दे 
हर इक कठपुतली की सुतली 
एक दफ़ा पुतलों की डोरी, पुतलों के हाथों में धर दे 
कर पाए, तो इतना कर दे! 

सुनते हैं तूने ही सारी दुनिया को वरदान दिए हैं 
कहने को इक जीभ बनाई, सुनने को दो कान दिए हैं 
आवाज़ें सुंदरतम भर दीं 
साँसों तक में सरगम भर दी 
हर ख़ामोशी के ज़ख़्मों में 
तूने सुर की मरहम भर दी 
जो मन में ताण्डव करते हैं, उन शब्दों को भी तो स्वर दे 
कर पाए तो इतना कर दे! 

हो सकता है ऐसा हो तो, हम जीवन को दुःख से भर लें 
हो सकता है यह सब कुछ हम शायद तुझसे बेहतर कर लें 
या तो मन से जी लेने दे 
या फिर मन से मर लेने दे 
जो होगा देखा जाएगा 
हमको मन की कर लेने दे 
सुख-दुख जो भी हो, वो होगा खुद हासिल करने का वर दे 
कर पाए तो इतना कर दे!

© चिराग़ जैन