बीसवीं सदी की समग्र गुनगुनाहट की कहानी, जिस एक जिल्द में सिमटकर पूर्ण होती है उसका शीर्षक है- ‘गोपालदास नीरज’! पीड़ा की अनुभूति को उत्सव के शिल्प में अभिव्यक्त करते किसी भरपूर गीत की जन्मकुण्डली बनाई जाए, तो वह नीरज की जन्मकुंडली होगी।
नीरज का जीवन एक ऐसा बेहतरीन उपन्यास है, जो अनेक रोचक लघुकथाओं से मिलकर बनता है। नीरज की कविता किसी चमचमाते हुए पत्थर का वह टुकड़ा है, जिसके निर्माण में सदियों की पीड़ा का श्रम सम्मिलित है। वे अक्सर कवि-सम्मेलन के मंच पर एक शेर पढ़ते थे- ‘इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, तुमको लग जाएंगी सदियाँ हमें भुलाने में’। इसे पढ़ते समय उनके अधर एक विशेष मुद्रा में खिल-खिल जाते थे और आँखों में एक उपहास ठहाका लगाने लगता था। ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अपने कष्टों की पराजय पर जीत का जश्न मना रहे हों।
गीतकार होने के लिए पीड़ा को जिस सीमा तक सुर-ताल के तटबंध का भान होना चाहिए, दर्द को जिस सलीके से छंद की यति-गति का शऊर आना चाहिए वह नीरज जी के यहाँ ख़ूब समझ आता है। वे अपने हर गीत में किसी अमूर्त से बतियाते नज़र आते हैं। इस अमूर्त की बिल्कुल सही पहचान कर पाना असंभव है। कभी वे भाग्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी फक्कड़ बेफ़िक्री का बयान दर्ज कराते हैं; तो कभी एक नज़र में सारे ज़माने को चिढ़ाते हुए, अपनी गुनगुनाहट पर इतराने लगते हैं। कभी समस्याओं का गिरेबान पकड़कर समाधान का परिचय पत्र दिखाते फिरते हैं; तो कभी निराशा पर ठहाका लगाते हुए जिजीविषा के हस्ताक्षर जड़ देते हैं।
नीरज का विफल प्रेमी भी अपने प्रयासों की शत प्रतिशत ईमानदारी के एहसास से भरकर संतुष्टिलोक के किसी दुर्लभ आनंद में निमग्न दीख पड़ता है। नीरज का समर्पण उनके प्रेम को देह से विदेह तक की यात्रा कराने में समर्थ है। वे सौंदर्य की पोर-पोर को भोगते हुए भी अपनी कविताओं के ऋष्यमूक पर उसकी लिप्सा के प्रकोप से अछूते रह पाते हैं।
नीरज की जवाबदेही स्वयं के प्रति है। वे अपने किसी कृत्य अथवा विचार के लिए सफ़ाई पेश नहीं करते। वे अपनी प्रत्येक श्वासोच्छवास के लिए अपने आप के सम्मुख कोई अकाट्य तर्क लेकर प्रस्तुत होते हैं। उनकी इसी प्रवृत्ति के आगे मृत्यु भी उनके एक इशारे पर दोनों हाथ बांधे उनके अंतिम गीत के पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर लेती है। उनकी इसी अलमस्त फ़क़ीरी के सम्मोहन में मृत्यु का दूत भी अपना कर्त्तव्य बिसार कर कई वर्ष तक यह गीत सुनता रहता है कि-
ऐसी क्या बात है, चलता हूँ अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ
बाद मेरे जो यहाँ और हैं गानेवाले
सुर की थपकी से पहाड़ों को सुलानेवाले
उजाड़ बाग़, बियाबान, सूनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलानेवाले
उनके पैरों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
उनकी राहों के ज़रा शूल हटा लूँ, तो चलूँ
ऐसी क्या बात है, चलता हूँ अभी चलता हूँ
...गाते गाते, सचमुच चले गए नीरज जी! उनके बाद छंद की गंध से फूलों को खिलानेवाले उदास हैं। उनके बाद सुर की थपकी से पहाड़ सो नहीं पा रहे हैं लेकिन उनके गीत इस उदासी में उनके अमरत्व की तान छेड़कर दिलासा देते हैं- ‘छुप-छुप अश्रु बहानेवालो! मोती व्यर्थ लुटानेवालो! कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।’
© चिराग़ जैन
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