हमारा समाज पर्दे का दास हो गया है। मीडिया हमारे दृष्टिकोण तय करता है और हम भेड़ों की तरह स्वयं को बुद्धिमान मानकर उस दृष्टिकोण का अनुसरण करने लगते हैं।
‘दंगल’ फिल्म में गीता-बबीता को ज़बरदस्ती उनकी मर्ज़ी के बिना उनके पिता पहलवानी सिखाते हैं तो हम उनके पिता को महान सिद्ध कर देते हैं। क्योंकि कहानी के अंत में पिता (आमिर ख़ान) सही सिद्ध हो गए। हम मंज़िल देखकर रास्ते की प्रशंसा करने लगते हैं। इसी रास्ते पर जब ‘थ्री इडियट’ का डीन चलना चाहता है तो हम उसके खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं। क्योंकि अबकी बार आमिर ख़ान स्टूडेंट थे।
‘कालिया’ में अमिताभ बच्चन स्मगलर बन जाते हैं तो हम दुआ मांगते हैं कि वे पुलिस के हाथ न आएँ। ‘ज़ंजीर’ में वही अमिताभ इंस्पेक्टर बने, तो हम चाहते हैं कि उनके चंगुल से कोई मुजरिम न बचने पाए। इसका साफ़ मतलब है कि हमारी सोच दरअस्ल हमारी नहीं है। हम वह सोचते हैं जो टीवी चाहता है।
हम उतने भर को सच मान लेते हैं, जो पर्दे पर दिखाया जाता है। हम ठीक उसी एंगल से सोचने लगते हैं जिस एंगल से पर्दा चाहता है। हरियाणा में प्रेम विवाह के खि़लाफ़ खाप पंचायतों का फ़ैसला आता है तो हम प्रेमियों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। (कृपया ज्ञात हो कि मैं खाप के पक्ष में नहीं हूँ) किन्तु उत्तर प्रदेश में एक लड़की अपनी मर्ज़ी से सारे क़ानूनी दायरों में रहते हुए प्रेमी के साथ भाग जाती है तो उसके बर्बाद हो जाने की दुआ मांगी जाती है। उस पर लानतें भेजी जाती हैं। क्यों, क्योंकि खाप के मुआमलों में मीडिया ने हमें बताया कि परंपराओं के नाम पर यह अत्याचार है, और हम मानने लगे। लेकिन अब मीडिया ने हमें बताया कि एक दलित के साथ भाग कर लड़की ने अपने पिता की राजनैतिक प्रतिष्ठा भंग कर दी, उनके मुँह पर कालिख़ पोत दी ...और हम मानने लगे।
मैं दोनों मुआमलों में किसी को ग़लत या सही नहीं ठहरा रहा हूँ। मैं केवल यह जानने का प्रयास कर रहा हूँ कि हमारे समाज की अपनी कोई सोच है भी या नहीं। या फिर हम सदियों से मानसिक मवेशियों की तरह अनुसरण ही करते आ रहे हैं। हम एकतरफ़ा फैसला देने में इतनी जल्दी क्यों करते हैं। हम यह क्यों नहीं जानना चाहते कि घटना जहाँ से हमें दिखाई दे रही हैं, उसमें कोई आयाम अनदेखा भी हो सकता है। जो लड़की आज मीडिया के दरवाज़े पर खड़ी होकर अपने पिता से संवाद कर रही है, उसी लड़की ने यदि केवल पुलिस से आस लगाई होती या वह सीधे अपने पिता के सम्मुख खड़ी हो जाती और इसके बाद कोई अनहोनी हो जाती तो हम इसी सोशल मीडिया पर उसे मूर्ख बताते हुए कहते- ‘पागल थी, जिस प्रदेश में पिता नेता है, उसी प्रदेश की पुलिस से सहायता मांग रही थी, जानती नहीं थी क्या कि पुलिस कितनी भ्रष्ट है। सीधे मीडिया में आ जाना था, फिर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती उसका बाल बांका करने की।’
काश हम लोग, अपने विवेक से घटना के सम्यक आकलन का प्रयास भर करना सीखें। काश हम यह समझें कि आँखों को केवल दो आयाम दिखते हैं।
© चिराग़ जैन
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