Saturday, March 28, 2020

दान का उपदेश

हम अजीब किस्म के नकारात्मक लोग हैं। हमें दूसरों पर उंगली उठाने की लत पड़ी हुई है। इस भयावह संकट के समय में भी आज सुबह से लोग अलग-अलग सेलिब्रिटीज़, अलग-अलग उद्योगपतियों और अलग-अलग राजनेताओं के नाम लिखकर लानत भेज रहे हैं कि संकट के समय वे अपनी पूंजी में से दान करके समाजसेवा क्यों नहीं करते?
हद्द है यार! ऐसी पोस्ट करनेवाले लोग एक ऐसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं, जिसमें ख़ुद के शरीर का कोढ़ इग्नोर करके दूसरे पर कीचड़ उछालने में मज़ा आने लगता है। हमने सुना है कि तवायफ़ भी किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है, लेकिन ये इतने घृणित और नकारात्मक लोग हैं, जो अरथी उठाते हुए भी सबसे अलग स्टाइल में ‘राम नाम सत्य है’ का घोष करते हैं ताकि इनकी ओर ध्यान आकृष्ट हो सके।
किसी को दान करना होगा तो वह ढिंढोरा पीटेगा क्या? क्या इन फेसबुकियों के प्रमाण पत्र से ही किसी की मानवता सिद्ध हो सकती है। किसी भी सफल आदमी को गाली देने में इनको मज़ा केवल इसलिए आता है कि ऐसी हरक़त से इन्हें अपने जैसे विफल और घटिया लोगों के लाइक्स मिल जाते हैं।
मुझे बहुत खेद है कि आज पहली बार मैं इस प्रकार की भाषा प्रयोग कर रहा हूँ, लेकिन इस संवेदनशील समय में भी चरित्र हत्या और निजी प्रहार करके हीरो बनने की मानसिकता वाले लोग यदि कुछ अच्छा न भी बोल सकते थे, तो कम से कम मौन ही रह लेते।
इन बकवादियों से मेरा सीधा प्रश्न है कि आपने इस संकट की घड़ी में कौन-सी समाजसेवा की है? यदि आप देश की इस विकट पीड़ा से दुःखी हैं तो आपको अन्य लोगों के दान का हिसाब रखने की फुरसत कैसे मिल गई? और अगर आप स्वयं इस पीड़ा से विगलित नहीं हैं तो आपको अन्य लोगों पर उंगली उठाने का अधिकार कहाँ से मिल गया?
शर्म आनी चाहिए। देश का एक-एक नागरिक घुटन और त्रास में जी रहा है। सामान्य बुजुर्ग अपने नियमित उपचार के लिए अस्पताल नहीं जा पा रहे। एक-एक दाने को तरसते दिहाड़ी मजदूर एक अंतहीन यात्रा पर चले जाने को विवश हैं।
महंगे स्टूडियो में बेस्ट क्वालिटी के वीडियो बनानेवाले कलाकार अपने घर पर रॉ वीडियो बनाकर जनता का मनोरंजन करके उनका टाइम पास करने का प्रयास कर रहे हैं। चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए राजनेता रात-दिन जागकर स्थितियों को नियंत्रित कर रहे हैं। आम आदमी बिना कोई शोर मचाए प्रधानमंत्री राहत कोष और अन्य सामाजिक संगठनों को अर्थ दान कर रहा है। डॉक्टर और नर्स अपनी फीस का लालच छोड़कर, दिन-रात फोन पर लोगों की समस्याओं का निदान बता रहे हैं। पत्रकार स्काइप और अन्य तकनीकों के माध्यम से पत्रकारिता करके जनता तक सूचनाएँ पहुँचा रहे हैं। पुलिसवाले लोगों को सख्ती से घर रहने के लिए भी कह रहे हैं और नम आँखों से भूखे-बेघरों को खाना भी बाँट रहे हैं। सरकारी कर्मचारियों ने अपनी एक-एक दिन की तन्ख्वाह दान कर दी है। गुरुद्वारे के कारसेवक पीठ पर टंकी बांधकर सड़कों को सेनिटाइज़ कर रहे हैं। साधु-संत टेलिविज़न के माध्यम से अपने अनुयायियों से संयत रहने की अपील कर रहे हैं। यहाँ तक कि जेल में बंद कैदी भी दिन-रात एक करके मास्क बना रहे हैं ताकि देश में मास्क की कमी न होने पाए।
लेकिन इन नकारात्मक मस्तिष्कों के मोबाइल में ऐसी एक भी पोस्ट नहीं आएगी, जिससे इन्हें लगे कि इस देश की जनता इस दुःख की घड़ी में बिना किसी निजी स्वार्थ के परस्पर सहयोग की भावना से पगी हुई है। इन्हें केवल दूसरों के चरित्र पर उंगली उठाकर लाइक और कमेंट बटोरने से मतलब है।
सही कहा था बाबा तुलसी ने- ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!’

© चिराग़ जैन

Thursday, March 26, 2020

'वर्चस्व' के लिए 'अस्तित्व' से खिलवाड़

विपत्ति मनुष्य को उसकी लापरवाही पर ध्यान देने का अवसर देती है। संभवतः किसी भी समय में किसी भी पीढ़ी के पास यह अवसर नहीं रहा होगा कि कई-कई सप्ताह तक बिना कुछ काम किये रहा जाए और उससे कोई प्रत्यक्ष हानि न हो। हमेशा समय की कमी का रोना रोनेवाला मानव आज पूरी तरह फ़ुरसत में है। उसकी दुकान बंद है, लेकिन उसे कोई बेचैनी इसलिए नहीं है कि उसके ग्राहक का कहीं और जाने का भय नहीं है। उसकी फैक्ट्री बंद है, लेकिन वह इस बात से संतुष्ट है कि उसके प्रतिद्वंद्वी की भी फैक्ट्री बंद है। फैक्ट्री ही क्या पूरा बाज़ार बंद है। बाज़ार ही क्या पूरा शहर बन्द है। शहर ही क्या पूरा देश बंद है। देश ही क्या पूरी दुनिया बन्द है। इतनी फ़ुरसत कभी किसी पीढ़ी के मनुष्य को उपलब्ध नहीं हुई है।
जब इस फ़ुरसत में बोरियत से बचने के समस्त उपायों से बोर हो जाएंगे तब दुनिया पलटकर देखेगी कि जिन कार्यों में हम अब तक इतने व्यस्त थे, वे सब तो हमारे इस संकट में हमारी सहायता कर ही नहीं पा रहे हैं। हम युद्ध की तैयारियों के लिए भयावह अस्त्र-शस्त्र बना रहे थे, लेकिन फिलहाल उनकी कोई सुधि ही नहीं ले रहा है। हम अपने थोथे अहंकार की पुष्टि के लिए समाज को ऊँची-नीची जातियों की अनुसूची में बाँट रहे थे, लेकिन महामारी का यह रक्तबीज न तो अनुसूचित जातियों को बख़्श रहा है न ही अनुसूचित जनजातियों को। हम उनके धर्मस्थल से ज़्यादा भव्य अपना धर्मस्थल बना रहे थे लेकिन यह महामारी मंदिर के फ़र्श से लेकर, मस्जिद की हौज तक हर जगह मौजूद है। हम घोटाले और घपले कर-कर के पूंजी बना रहे थे लेकिन आज हमारे पास उस पूंजी को ख़र्च करने का उपाय नहीं है। जो एक बड़ा भूखंड विजय कर चक्रवर्ती बने फिरते थे, वे आज दो कमरों के फ्लैट में बंद हैं। जिनके पास हर काम के लिए नौकर-चाकर थे, वे आज अपने घर में ख़ुद झाड़ू-पोंछा कर रहे हैं। कितना आश्चर्य है कि सुख के समय में हम अमीर, ग़रीब, हिन्दू, मुस्लिम, सवर्ण, अछूत, शहरी, ग्रामीण, गोरे, काले, साक्षर, निरक्षर, स्त्री, पुरुष और न जाने क्या-क्या संज्ञाएँ तथा विशेषण ओढ़े फिरते हैं; लेकिन दुःख आते ही हम सब ख़ालिस मनुष्य हो जाते हैं।
दो-दो महायुद्ध झेलने के बाद यूरोप ने यह सबक लिया कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति किसी भी सरकार का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। सत्ता और वर्चस्व की होड़ में विनाश के भयावह दृश्य देख लेने के बाद यूरोप के देशों ने अपनी सीमाओं पर ख़र्च होनेवाले धन का अधिकतम अंश अपने नागरिकों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने पर लगाना शुरू किया।
कोरोना के विरुद्ध जारी इस महायुद्ध के समय में हम यह संकल्प तो ले ही सकते हैं कि हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के पास जीवन जीने के न्यूनतम संसाधन तो अवश्य ही हों। राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सभी दल जब ‘वर्चस्व’ की लड़ाई लड़ें तो उसका बोझ उस बजट पर न पड़े जो जनता के ‘अस्तित्व’ की रक्षा के लिए निर्धारित हो। युद्ध के लिए अस्त्र ख़रीदे भी जाएँ और बनाए भी जाएँ, लेकिन उन हथियारों को ख़रीदने के लिए किसी अस्पताल या किसी स्कूल का बजट एडजस्ट न किया जाए। हमारा राष्ट्रीय ध्वज मंगल पर भी फहराए और चांद पर भी फहराए; लेकिन पहले यह सुनिश्चित किया जाए कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज के नीचे सोनेवाला कोई परिवार फाके तो नहीं कर रहा।
इन स्थितियों के लिए न तो मैं किसी सरकार पर दोषारोपण करना चाहता हूँ, न ही जनता पर। हमारी प्राथमिकताएँ क्या हों, यह हमें कोविडकाल चीख़-चीख़कर बता रहा है। पीछे पलटकर किसी से शिकायत करने जाने की संभावना शेष नहीं है। अशोक जब कलिंग के बाद संन्यास के पथ पर चले होंगे तब उन्होंने अपने वर्तमान को देखकर ही निर्णय लिया होगा; यदि वे अतीत से उलझते तो अतीत उन्हें कभी भविष्य सुधारने की मोहलत नहीं देता।
मैं वर्तमान को परिवर्तन का कलिंग युद्ध मानकर एक शांत और सुखद भविष्य की ओर क़दम बढ़ाने की संस्तुति करता हूँ। वर्तमान हमें बता रहा है कि लॉकडाउन की इस परिस्थिति में हमारे पास एक ऐसा पुख्ता तंत्र होना चाहिए था कि सरकार कम्प्यूटर पर सबकी यूनीक आईडी के माध्यम से चिन्हित कर पाती कि एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों में से कितने ऐसे हैं जिनके व्यवसाय के कॉलम में ‘दिहाड़ी मजदूर’ लिखा है। यूनिक आईडी के माध्यम से सरकार उन सबके परिवारों की पहचान आसानी से कर लेती और उनके खाते में आवश्यक राशि पहुँचाकर उन्हें मरने से बचा लेती।
वर्तमान चीख़-चीख़कर कह रहा है कि हमारे पास न्यूनतम शिक्षा के साथ-साथ सिविक सेंस विकसित करने की भी शिक्षा प्रणाली होनी चाहिए ताकि सरकार को जनता की भलाई के लिए उस पर लाठियाँ न भाँजनी पड़ें।
वर्तमान चीख़-चीख़कर कह रहा है कि हमारी स्वास्थ्य सेवाओं के पास इतनी व्यवस्था अवश्य हो कि यदि किसी संकट की घड़ी में पाँच प्रतिशत जनसंख्या किसी महामारी, प्रदूषण, रोग, युद्ध आदि से प्रभावित हो जाए तो उनके उपचार में बाधा न आए।
वर्तमान चीख़-चीख़कर कह रहा है कि सरकार के पास ऐसे अधिकार हों कि ऐसी आपदा के समय निजी विमानन कम्पनियों, निजी अस्पतालों, निजी फार्मा कंपनियों, निजी टेलीकॉम कंपनियों, निजी मीडिया चैनल्स, निजी रिटेल स्टोर्स आदि को सरकारी नियंत्रण में लेकर जनहित में प्रयोग किया जा सके।
जो लोग निजीकरण की वक़ालत करते फिरते हैं, उनसे वर्तमान स्पष्ट शब्दों में कह रहा है कि जब बस्ती में आग लगती है तब व्यापारी केवल अपनी दुकान बचाता है और जैसे ही उसकी दुकान सुरक्षित होती है तो वह पानी की बाल्टियाँ बेचकर बस्ती में धंधा करने लगता है। राजनैतिक दल उस समय आग बुझाने का दिखावा करते हैं ताकि चुनाव के समय बस्ती में वोट मांगने का अधिकार मिल सके। केवल सरकार ही है जो पूरी बस्ती की आग बुझाने के लिए प्रयास करती है।
यह भीषण समय बीतने के बाद यदि हम अपनी मानवता को बलिष्ठ करके घरों से बाहर निकले तो ‘दुनियाबन्दी’ की दुर्घटना मनुष्यता के एक नए युग का सूत्रपात करेगी; लेकिन इसके बीतते ही यदि हम फिर से ‘मनुष्य’ की बजाय कोई भी अन्य संज्ञा लपेट बैठे तो कोरोना के विरुद्ध इस लड़ाई में शहीद हुए लोगों के बलिदान और हफ़्तों तक घरों में बंद रहकर अवसाद झेल रहे देश की तपस्या व्यर्थ हो जाएगी।

© चिराग़ जैन

Published in Dainik Jagaran of 31 March 2020

हँसना बहुत ज़रूरी है

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में कोरोना, दहशत का सबब बन गया है। अमरीका, चीन और इटली जैसे देशों ने सख्ती के साथ जनता को घरों में बन्द कर दिया है। भारत में भी सरकार को कमोबेश सख्ती बरतनी पड़ रही है।
दरअस्ल अनवरत भागती-दौड़ती ज़िन्दगी को टिककर बैठने का अभ्यास ही नहीं रहा है। तेज़ दौड़ती गाड़ी के ड्राइवर को यमुना एक्सप्रेसवे से उतरकर जब आगरा की गलियों में गाड़ी चलानी पड़ती है तो उसे बड़ी कोफ़्त होती है। कुछ ऐसी ही कोफ़्त घर बैठे कामकाजी लोगों को भी हो रही है।
उधर टेलिविज़न के प्रत्येक न्यूज़ चैनल पर चौबीस घण्टे केवल कोरोना ही चल रहा है। कोरोना से संक्रमित लोगों का आँकड़ा, कोरोना से मरनेवालों का आँकड़ा, कोरोना से बचनेवालों का आँकड़ा, लॉकडाउन का सम्मान न करनेवालों की पिटाई, लॉकडाउन का सम्मान करने के लिए सेलिब्रिटीज़ की अपीलिंग वीडियो -इनके अतिरिक्त कुछ नहीं है इन चौबीस घण्टे के पत्रकारों के पास।
जीवन पत्रकारों का भी उतना ही महंगा है, जितना बाक़ी दुनिया का। मीडिया हाउसेज को चाहिए कि इस आपातकाल में अपने न्यूज़ बुलेटिन को चौबीस घण्टे से घटाकर सुबह, दोपहर और शाम को एक-एक घण्टे तक सीमित किया जाए। शेष समय अपने पुराने सुपरहिट शो चलाएँ। यदि कोई महत्वपूर्ण सूचना या जानकारी प्रसारित करनी हो तो रनिंग प्रोग्राम को रोककर, वह सूचना दे दी जाए।
ऐसा करने से अनेक लाभ होंगे, एक तो हमारी ज़िम्मेदार मीडिया को एक-एक नाकाबंदी पर जाकर पुलिसवालों से लोगों को पीटने, प्रताड़ित करने और समझाने की रिक्वेस्ट नहीं करनी पड़ेगी। ऐसे चमत्कार होने बन्द हो जाएंगे कि जब मीडियावाले कैमरा लेकर पहुँचें, ठीक उसी वक़्त विशेष किस्म के बदतमीज़ लोग पुलिसवालों के हत्थे चढ़ें। सारा दिन कोरोना का रोना सुनकर घर बैठी जनता का मानसिक तनाव नहीं बढ़ेगा और अन्य ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम देखकर उनका ध्यान विकेन्द्रित होगा।
दूसरे, सोशल मीडिया पर अफ़वाह फैलने से रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा जारी व्हाट्सएप हेल्पलाइन के अतिरिक्त कोरोना से सम्बद्ध किसी भी जानकारी का भरोसा न किया जाए। देश में सृजनात्मक लोगों की बहुतायत है। ये लोग टिकटॉक, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि के माध्यम से घर बैठे लोगों का मनोरंजन करें। ‘लॉकडाउन’ के समय अनेक हास्य प्रधान वीडियो आ रहे हैं। इनसे निश्चित रूप से लोगों का तनाव कम हो सकता है। गीत, हास्य, संगीत, सृजन, मोटिवेशन, शेरो-शायरी, फोटोग्राफी, ऐतिहासिक जानकारी, वैज्ञानिक जानकारी, पौराणिक तथ्य आदि के माध्यम से हम घर बैठी जनता की समय बिताने में सहायता कर सकते हैं।
हास्य प्रधान मनोरंजन सामग्री इस समय देश की जनता को एकांत से उत्पन्न होनेवाले तनाव से सुरक्षित रखेगी। गीत, जनता की संवेदनाओं को सजग और सक्रिय रखने में सहयोगी होंगे। संगीत जीवन के प्रति विरक्ति से बचाए रखेगा। तथ्यात्मक और रोचक जानकारियाँ, जिज्ञासाओं को बचाए रखने में मदद करेंगी। हमारे घरों में लोकगीत, लोक कहावतों, लोक संस्कृति के अनेक चिन्ह आज भी मौजूद हैं। इन प्रतीकों को पहचानकर लोगों से सोशल मीडिया पर साझा करें तो भारत की लोक संस्कृति को पुष्ट करने में ये 21 दिन कारगर साबित होंगे।
तनाव की चर्चा से तनाव और बढ़ता है। तनाव पर विजय प्राप्त करनी है तो स्वयं को संयत करना होगा और इसके लिए दहशत की त्यौरियों को पिघलाकर अधरों पर मुस्कान की प्रतिष्ठापना करनी ही होगी। कोरोना से लड़ने के लिए हम सब घरों तक सीमित हो गए हैं। सरकार, पुलिस, अस्पताल, सफाईकर्मी, मीडिया और जनता मिलकर कोरोना का विध्वंस करने का युद्ध लड़ रहे हैं लेकिन घर के भीतर उदासी और बोरियत उत्पन्न न हो इसके लिए ठहाकों का उत्सव जारी रखना हम सबका कर्तव्य है।
21 दिन बोर होकर काटने से बेहतर है कि 21 दिन हँसते-गाते बिता दिए जाएँ। इन 21 दिनों में हमें आपस में मिलने-जुलने से मना किया जा रहा है लेकिन दिलों के मिलने-जुलने पर कोई रोक नहीं है।

© चिराग़ जैन

Ref : Lockdown declared

Tuesday, March 24, 2020

लाॅकडाउन अपील

घर पर रहोगे, तो रहोगे

जिस घर के सपने देखे थे, आओ कुछ दिन उस घर में सपने देखें

यह एकांतवास नहीं, तपस्या है

कवि सम्मेलनों को कोरोना से नुक़सान हुआ है, कविता को नहीं


आपदा की इस घड़ी में "ख़ुद को भी छूने से बचें"

-चिराग़ जैन

कर्फ्यू खुलते ही

कर्फ्यू खुलते ही सबको आधार कार्ड का फोटो बदलवाने के लिए लाइन में लगना पड़ेगा क्योंकि 21 दिन में तो असली चेहरे निकल ही आएंगे!

© चिराग़ जैन

Monday, March 16, 2020

भ्रष्टाचार की परंपरा

कोरोना विश्व भर में महामारी की तरह फैल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ इस संकट से उबरने के उपाय खोज रहे हैं। ‘जान है तो जहान है’ के सिद्धांत पर चलते हुए जान बचाने के लिए काम-धंधे, आवागमन, मेलजोल आदि सब बन्द कर दिए गए हैं। दुनिया भर के शेयर बाज़ार औंधे मुँह गिर रहे हैं। लेकिन दुनिया, शेयरों के गिरने की परवाह छोड़कर कोरोना की चपेट में आए लोगों की संख्या का हिसाब रखने में व्यस्त है। अमरीका, इटली, चीन जैसे देशों में आपातकाल घोषित हो गया है। सरकारें अपने बजट का बड़ा हिस्सा इस आफत से निपटने में ख़र्च कर रही हैं। विद्यालयों में परीक्षाएँ महत्वपूर्ण नहीं रह गईं; स्टेडियम के लिए खेल महत्वहीन हो गए; बाज़ार के लिए व्यापार द्वितीयक हो गया; सीमाओं ने आग उगलना बन्द कर दिया; यहाँ तक कि कोई ख़ास आतंकी घटना भी सुखिऱ्यों में नहीं आ रही।
लेकिन इस स्थिति में भी भारतीय जनमानस के रक्त में प्रवाहित बेईमानी पर कोरोना का कोई असर नहीं दिखाई दिया। बात-बात में संस्कृत के श्लोक उध्दृत करनेवाले हम भारतीय इस आपातकाल में भी मास्क पर दस-दस गुना मुनाफ़ा बटोरने में लगे हैं। ‘तुम क्या लाए थे, और क्या ले जाओगे’ के उपदेश देने वाले हम भारतीय सेनिटाइजर में मिलावट करके लोगों के जीवन से खेल रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं कि ‘आत्मा न कभी पैदा होती है, न कभी मरती है।’
हरिश्चंद्र, राजा शिवि, भामाशाह, विक्रमादित्य और अशोक के वंशज हम भारतीय प्रयोग किये हुए मास्क को दोबारा ‘पॉलीथिन’ में पैक करके संक्रमण के प्रसार में सहयोग कर रहे हैं ताकि संविधान में उल्लिखित ‘समानता के अधिकार’ के तहत कोई नागरिक कोरोना के स्पर्श से वंचित न रह जाए। जब सौ-पचास लोग मर लेंगे तब गोदाम में भरे मास्क और सेनिटाइजर महंगे दामों पर बेचे जाएंगे क्योंकि हम जानते हैं कि यदि आज मास्क को तीन सौ रुपये में बेचने का लोभ छोड़ दिया जाए तो परमपिता परमात्मा इस त्याग से प्रसन्न होकर ऐसी परिस्थिति का वरदान देंगे कि वही मास्क हज़ार रुपये में बिक सकेगा।
कितने महान हैं हम। महामारी फैलती है तो हम दवाइयों की कालाबाज़ारी करने लगते हैं। प्यार फैलता है तो हम वेलेंटाइन डे पर गुलाब की कालाबाज़ारी करने लगते हैं। दरगाहों और तीर्थों पर मेले लगते हैं तो जेब काटने के टेंडर भरे जाते हैं। बाढ़ और भूकम्प आता है तो पीड़ितों की सहायता के लिए चंदा उगाकर खा जानेवाले समाजसेवी अवतरित हो जाते हैं।
बीमारी आती है तो हमें ज्ञात होता है कि केमिस्ट बेईमान हैं। दंगे होते हैं तो हमें पता चलता है कि पुलिस बेईमान है। नोटबन्दी होती है तो सरकार बताती है कि बैंकर बेईमान हैं। ऑडिट होता है तो पता चलता है कि पूरा दफ्तर बेईमान है। न्यायपीठ बैठती है तो पता चलता है कि जिन दफ्तरों को ईमानदारी की क्लीन चिट मिली है उनका ऑडिटर बेईमान है। नई सरकार बनती है तो पता चलता है कि पिछली सरकार बेईमान थी।
हम किताबों में पढ़ते आए हैं कि भारत विविधता में एकता वाला देश है। किंतु जब ज़िन्दगी पढ़ी तो देखा कि यहाँ विविधता ही विविधता है। एकता ढूंढने निकले तो ज्ञात हुआ कि कोई भारतीय चाहे कोई भी व्यवसाय करे, वह अवसर मिलने पर उसमें बेईमानी ज़रूर करेगा। एकता ढूंढने निकले तो ज्ञात हुआ कि हर व्यवसाय के पास अपने आपको सबसे ज़रूरी, सबसे जनहितकारी और सबसे आध्यात्मिक बताने के लिए जुमले मौजूद हैं। यह भारत का सौंदर्य है कि यहाँ हर नागरिक यह चाहता है कि गुनाहों के बहीखाते में किसी और का नाम लिखा जाए और मुनाफ़े की पंक्ति में पहला नम्बर हमारा हो।
जिला अस्पताल के शवगृह में शव-सुपुर्दगी की पर्ची काटनेवाला बाबू भी रोते-बिलखते परिजनों से सौ रुपैये ऐंठते हुए सरकार के भ्रष्टाचार को गाली देता है क्योंकि ऐसा करने से उसके अपराध की फोकस लाइट फैलकर पूरे परिवेश के धब्बे दिखाने लगती है।
संस्कार, अध्यात्म और परंपरा का फटा ढोल पीटनेवाला हमारा समाज इस योग्य भी नहीं बचा है कि किसी को बेईमान कह सके। यह पूरे समाज की बीमारी है। इसमें कोई एक जाति, कोई एक सम्प्रदाय, कोई एक धर्म, कोई एक विचारधारा, कोई एक वाद, कोई एक भाषा, कोई एक क्षेत्र, कोई एक वर्ण, कोई एक लिंग, कोई एक व्यवसाय या कोई एक पीढ़ी अलहदा नहीं है। बेईमानी ने पूरे देश को एकसूत्र में बांध रखा है।
कोरोना को भारत में प्रवेश किये दो सप्ताह से अधिक हो चुके हैं। एक बार इस वायरस की शिराओं में यहाँ की आबो-हवा घुल जाने की देर है, फिर यह वायरस भी कुछ ले-दे के लोगों को बीमार करना बंद कर देगा।

*नोट : इस लेख को गणपति भाव से पढ़ें और पूरा अर्थ ग्रहण करने के उपरांत ही प्रतिक्रिया दें। यदि द्रोणाचार्य की तरह आधा पढ़कर बुद्धि के कपाट बंद कर लिए तो युधिष्ठिर के सिर तो केवल अर्द्धसत्यभाषण का पाप आएगा किन्तु आधी बात से निर्णय पर पहुँचने वालों की हानि अधिक होगी।

© चिराग़ जैन

Sunday, March 15, 2020

ओ कोरोना

ओ कोरोना
हम पर पहले ही है काफ़ी रोना-धोना
तुम जीवन दुश्वार करो ना!

तुमको क्या लगता है, क्यों बे
हम खाँसी से डर जाएंगे
ऐसी खाँसी करने वाले तो भारत में
सीएम बने फिरा करते हैं

हाथ मिलाने से बढ़ते हो
ताप बढ़े तो मर जाते हो
भारत में टेम्प्रेचर
अड़तालीस डिग्री तक चढ़ जाता है
राख तलक भी नहीं मिलेगी

राजनीति के हाथ अगर तुम चढ़ जाओगे
नामो-निशां नहीं बचने का
ये वज्रोदर
पुल, चारा, शौचालय सब कुछ खा जाते हैं
इनकी महाक्षुधा के आगे
तुम बिन सैनेटाइज़र के ही मिट जाओगे
इन्हें नहीं आता कुछ भी जीवन भर ढोना
ओ कोरोना!

अगर किसी दिन
किसी मीडिया के चैनल में धरे गए तो
प्रश्नों का तूफ़ान उठेगा
उत्तर देने तक का अवसर नहीं मिलेगा
इनके लिए तुम्हारी कोई
चार बुलेटिन से ज़्यादा औक़ात नहीं है
अगली बड़ी ख़बर आने तक
तुम हो इनका खेल-खिलौना
ओ कोरोना!

उत्सव सारे मंद हो गए
खेल-तमाशे बंद हो गए
आना-जाना बंद हुआ है
हँसना-गाना बंद हुआ है
ओ सन्नाटै के उद्घोषक
शर्म नहीं आती क्या तुमको
काफ़ी आफ़त मचा चुके हो
अब तुम जाकर किसी कुँए में डूब मरो ना!
ओ कोरोना!

© चिराग़ जैन

Wednesday, March 11, 2020

जनता चुपचाप देखेगी

कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में शामिल हो गए और मीडिया की मौज हो गई। भाजपाई बता रहे हैं कि पार्टी को अपने ख़ून-पसीने से सींचनेवाले किसी नेता को साइड लाइन करना नैतिकता नहीं है। यह बयान सुनते ही शत्रुघ्न सिन्हा, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और के एन गोविंदाचार्य जैसे ढेर सारे नाम स्मृतियों में तैर गए। कांग्रेसी बता रहे हैं कि जो दल बदल रहा है वह तुम्हारा भी सगा नहीं होगा। यह बयान सुनते ही नवजोत सिंह सिद्धू, बी डी शर्मा, घनश्याम तिवारी और जनार्दन सिंह गहलोत जैसे नाम ठठाकर हँसने लगे।
भाजपाइयों को कांग्रेस का इतिहास याद आ गया और वे सीताराम केसरी, नरसिम्हा राव और डॉ प्रणब मुखर्जी के अपमान की गाथाएँ सुनाने लगे। ये गाथाएँ सुनकर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी की आँखें डबडबा आईं।
कांग्रेस में दो लीडरों के आगे सबकी प्रतिभा को दबाने की परंपरा रही। भाजपा में भी प्रतिभाशाली नेतृत्व को सलीक़े से साइड लाइन करने के अनगिन उदाहरण मिल जाएंगे।
प्रश्न कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, पीडीपी, जदयू, राजद, द्रमुक, अद्रमुक, झामुमो या अन्य किसी दल का है ही नहीं। यह शुद्ध रूप से सत्ता की लड़ाई है, जिसमें विचारधारा, नैतिकता, राष्ट्रहित, जनहित, धर्म, सम्प्रदाय, विदेशनीति, अर्थनीति जैसे तमाम शब्द खिलवाड़ की तरह प्रयोग किये जाते हैं।
राजनीति का एक ही सिद्धांत है, हमारे साथ रहो, नहीं तो हमसे गाली खाओ। यह सिद्धांत सभी का है। बेशर्मी और ढिठाई से प्रवक्ता बनकर चैनल्स पर बैठनेवाले रीढ़विहीन लोगों के घर में दर्पण की उपस्थिति निषेध होती है। राजनीति की चौखट पर क़दम रखते ही लाज के चीर स्वतः उतार फेंकने होते हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के दल बदल लेने से कुछ नहीं बदलेगा। चैनल जब कभी सिंधिया परिवार के इतिहास पर बहस करेंगे तो भाजपा और कांग्रेस के प्रवक्ता आपस में संवाद बदल लेंगे। ड्रामा वैसा ही चलेगा। अब कांग्रेस झाँसी की रानी के साथ हुए विश्वासघात पर सिंधिया परिवार को ग़द्दार बनाने पर तुल जाएगी और भाजपा सुभद्राकुमारी चौहान को कम्यूनिस्ट घोषित करके उस कविता और उस दौर के इतिहास को साज़िश करार दे देगी।
तमाशा चलता रहेगा। लीडर अवसर देखकर दल बदलते रहेंगे। आलाकमान समय की नज़ाक़त को देखते हुए सुखरामों को गले लगाते रहेंगे। कार्यकर्ता तो बेचारा जमूरा है। आज उसे कहा जाएगा कि हमने सिंधिया से कुट्टा कर ली है। और कार्यकर्ता फेसबुक पर उसके नाम की गारी गाने लगेगा। कल उसे कहा जाएगा कि अब हमने उससे अब्बा कर ली है और कार्यकर्ता उसके नाम की बधाई गाने लगेगा।
विधायकों को रिजॉर्ट में क़ैद करके ईद के बकरों की तरह ख़रीदने की परंपरा पुष्ट हो रही है और कार्यकर्ता चुनाव के दिन लाइन में लगकर वोट देने की अपील करते रहेंगे। आदर्श नागरिक लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए व्हील चेयर तक पर लदकर वोट डालने जाएगा और समझदार लीडर उसके वोट को हथियार बनाकर लोकतंत्र की टांगें काट डालेगा।
न्यायालय अपील होने तक प्रतीक्षा करेगा और राजनीति क़ानूनी ख़ामियों का लाभ उठाकर न्याय को फाँसी पर लटकाते रहेंगे। कार्यपालिका नपुंसक ख़सम की तरह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धांत पर जिस रात की जो दुल्हन होगी, उसी के तलवे चाटती रहेगी। और मीडिया इस पूरे दंगल में अपनी हाट बिछाकर टीआरपी बटोरती रहेगी।
जनता चुपचाप देखेगी। क्योंकि जनता ने कसम खाई है -
हम, भारत के लोग...!

© चिराग़ जैन

Monday, March 9, 2020

नेपाल यात्रा

6 मार्च। आज एवरेस्ट को क़रीब से देखा। बादलों के बीच घिरा श्वेत हिमालय, उस पर सोने सी पिघलती सूरज की रौशनी, नीले चोगे में लिपटे आकाश पर सफेद बादलों की बूंदी का प्रिंट। साथ में अपने भौगौलिक ज्ञान से परिपूर्ण महेंद्र अजनबी जी, जीवन के प्रति बेहद दार्शनिक सकारात्मक दृष्टिकोण से युक्त आशकरण अटल जी और प्रकृति के प्रत्येक बिम्ब में गीत की मूल पीड़ा तलाश लेने वाली डॉ सीता सागर। छोटे से देश नेपाल में जीवन की सबसे अनुभवसिक्त यात्रा भोग रहा हूँ। कवि-सम्मेलनों का धन्यवाद!

9 मार्च। नेपाल के तीन शहरों में हिंदी कविता का महोत्सव हुआ। एकल विद्यालय के संपर्क अभियान के उपलक्ष्य में आयोजित इन कवि-सम्मेलनों के आयोजन में जिन लोगों को कार्यकर्ता बनकर व्यवस्था करते देखा उनमें एस्सल समूह के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मीनारायण गोयल, जिंदल इंडस्ट्रीज़ के चेयरमेन श्री सुरेन्द्र कुमार जिंदल, श्री बिट्ठल माहेश्वरी, श्री महावीर घिराइया, श्री अशोक बैद, श्री गणेश खेतान, श्री अशोक सर्राफ, श्री विनोद पोद्दार, श्री शिव गोयल और श्री ओमप्रकाश लोहिया जैसे लक्ष्मीपुत्र सम्मिलित थे। जो लोग गलीचों से नीचे क़दम नहीं रखते उन्हें बीरगंज के जीतपुर गाँव की कीचड़ भरी गलियों में नंगे पाँव चलते देखा। जिनसे मिलने के लिए लोगों को अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है उन्हें गाँव की कच्ची मढ़ैया में बैठकर लोगों से बिनती करते देखा कि वे अपने बच्चों को पढ़ने दें। जिनके पास करोड़ों के बिज़निस प्रोपोज़ल लिए लोगों की लाइन लगी रहती है उनको भरे सभागार में हैंड्स माइक लेकर लोगों से डोनेशन मांगते देखा।
‘जो विद्यालय नहीं जा सकते, उनके पास विद्यालय को ले जाना होगा’ -इस पुनीत उद्देश्य से कार्यरत एकल विद्यालय के इन कार्यक्रमों में पहली बार देखा कि भामाशाह स्वयं महाराणा प्रताप की तलाश में दर-दर भटक रहा है।
क्रमशः काठमांडू, बिराटनगर और बीरगंज में हज़ारों लोग इन कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए। कविता के रस भी छलके, ठहाकों का महोत्सव भी हुआ और एकल विद्यालय के पुनीत कार्य के लिए हजारों लोगों को एकसूत्र में बंधते भी देखा।

© चिराग़ जैन

Tuesday, March 3, 2020

विविधता में एकता

भारत एक ऐसा उपवन है जहाँ अलग-अलग रंग के फूल खिलते हैं। हमें उन व्यापारियों की कोई ज़रूरत नहीं है, जो फूलों को डालियों से अलग करके बाज़ार में बेच दें। हमें तो वह माली चाहिए जो अलग-अलग रंग के फूलों को करीने से लगाकर बगीचे की सुंदरता बढ़ा सके।

हमें ऐसे बहुत सारे चैनल नहीं चाहियें जो समाज में परस्पर द्वेष की भावना भरकर आग भड़काएँ, हमारे लिए वह एक चैनल पर्याप्त है जो प्यार और भाईचारे का संदेश देकर देश को मिल-जुलकर रहना सिखाए

© चिराग़ जैन

Monday, March 2, 2020

सोशल मीडिया से दुःखी

पीएम ने कहा है कि वे सोशल मीडिया से दुःखी हो गए हैं। और यह बात भी उन्होंने सोशल मीडिया से ही बताई.

© चिराग़ जैन

इंसानियत के क़त्ल की अफ़वाह उड़ा दो

कुर्सी के लिए क़ौम की परवाह उड़ा दो
नारों की आंधियों में हर इक आह उड़ा दो
लफ़्ज़ों की आग से भी न गर मुल्क जले तो
इंसानियत के क़त्ल की अफ़वाह उड़ा दो


© चिराग़ जैन

Ref : Delhi Riots

Sunday, March 1, 2020

धर्म की राजनीति और राजनीति का धर्म

जो चांद करवा चौथ का अर्घ्य लेता है
वही ईद की इत्तिला भी देता है
क्योंकि चांद को वोट नहीं चाहियें

© चिराग़ जैन

Ref : Delhi Riots