लक्ष्मण के जीवित होने पर, अतिरिक्त क्रोध से भरा हुआ
रण करने निकला मेघनाद, आश्चर्य-बोध से भरा हुआ
फिर से चतुरंग सजी सेना, लंका का डंका त्रस्त हुआ
लेकिन मन ही मन इंद्रजीत, इक आशंका से ग्रस्त हुआ
मर कर जीवित होने वाला, साधारण मनुज नहीं होगा
यह काल स्वयं तो नहीं खड़ा, तपसी का धारण कर चोगा
पौरुष का वेग विलुप्त हुआ, शंका का मेघ घुमड़ आया
आगत का चिन्तन गौण हुआ, बीते का क्षोभ उमड़ आया
मेरी जय वृथा हुई कैसे, यह कहीं काल का चक्र न हो
मेरे गोचर विपरीत न हों, ग्रह दृष्टि मुझी पर वक्र न हो
मन ही मन कोलाहल उफना, भीषण वैचारिक द्वंद्व मचा
संशय से विह्वल हुए भट ने, माँ निकुम्भला यज्ञ रचा
पर क्या हित करते तंत्र-मंत्र, जिनके अंतस में पाप पला
जिसने ईश्वर से द्रोह किया, उसका क्या करती निकुम्भला
वानर दल की इक टुकड़ी ने, पूरा यज्ञस्थल ध्वस्त किया
रण में आने से पहले ही, आमूल मनोबल पस्त किया
विचलित योद्धा बाहर आया, क्रोधी था किन्तु सशंकित था
पूजन में विघ्न घटा कैसे, वह मन ही मन आतंकित था
बस तभी विभीषण को लखकर, आपे से बाहर हुआ वीर
घर के भेदी को देखा तो हो गई रौद्र अनकही पीर
ओ कुलघाती, ओ कुलद्रोही, ले तेरा कर्ज उतारूँ मैं
लक्ष्मण से पीछे निपटूंगा, आ पहले तुझको मारूं मैं
जिसने लंका को फूंक दिया, वह अंजनिपुत्र पराया था
लेकिन तूने भी घी डाला, चाचा, तू तो माँ जाया था
लंका की आज नियति जग को, तेरी नीयत बतलाती है
ये राम-लखन तो चेहरे हैं, तू कुंभकर्ण का घाती है
फिर उबला रक्त शिराओं में, आँखों तक उफन-उफन आया
भिंच गई बत्तीसी योद्धा की, यम-अस्त्र धनुष पर तन आया
प्रत्यंचा खिंच कर छूट गई, आयुध बन कर छूटा मलाल
भयभीत विभीषण तक आया, शरगति से बढ़ता हुआ काल
लेकिन लक्ष्मण के पौरुष ने, निस्तेज किया यम का प्रहार
टूटा मन चकनाचूर हुआ, हो गया व्यर्थ इक और वार
हारे मन ने सब नियम तोड़, ब्रह्मांड अस्त्र संधान किया
प्रतिशोध भाव से दिव्य अस्त्र, लक्ष्मण से सम्मुख तान दिया
धरती डोली, पाताल हिला, मेघों ने किया प्रबल गर्जन
कम्पायमान त्रैलोक्य हुआ, रण बीच आ गए चतुरानन
बोले ब्रह्मा, हे इंद्रजीत, क्या नियमों को ठुकराएगा
मन को संयत कर ले वरना वरदान शाप बन जाएगा
लेकिन उस पल क्रोधानल का उस पर था ऐसा चढ़ा ताव
कर गया मूढ़ उन्मादी हो, अनसुना विधाता का सुझाव
संधान हुआ शर का लेकिन, फिर हुआ पराजित अभिमानी
ब्रह्मास्त्र सफल कैसे होता, ब्रह्मा की बात नहीं मानी
फिर चला दिया पाशुपत अस्त्र, लग सका नहीं मद पर विराम
शिव का यह अस्त्र विलीन हुआ, कर शेषस्वरूपी को प्रणाम
फिर वैष्णव अस्त्र प्रयोग किया, भीतर का क्षोभ जमा करके
लेकिन वह भी वापस आया, लक्ष्मण की परिक्रमा करके
असहाय हो गया इंद्रजीत, इस लक्ष्मण को कैसे मारे
जिस पर निष्फल होते देखे, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर सारे
रणक्षेत्र छोड़ लंका आया, दशकंधर से सब बात कही
ये मनुज नहीं हैं, ईश्वर हैं; यह बात तात सर्वदा सही
मैं पितृधर्म के पालन में, निज प्राण हवन कर जाता हूँ
फिर उसके बाद ठहर जाना, इतना ही कहना चाहता हूँ
ठिठका रावण का अंतर्मन, पर मद का वेग भयंकर था
निज कुल का नाश बचाने का, सम्भवतः अंतिम अवसर था
यह अवसर चूक गया रावण, ठुकराकर मन का सब विषाद
ईश्वर के हाथों तर जाने, रण में जा पहुँचा मेघनाद
ईश्वर से लड़ने आया था, ईश्वर जैसा ही युद्ध किया
माया से, छल से लड़-लड़ कर, लक्ष्मण के मन को क्रुद्ध किया
वह जान गया था यह उसका अंतिम रण है, अंतिम क्षण है
उसके हाथों हत होना है, वह जिसकी रचना का कण है
जाने कितने ही जन्मों का मैंने सौभाग्य जुटाया है
जिस तक सब जाने को तरसें, वह स्वयं द्वार तक आया है
यह युद्ध जीत कर भी जीवन इतना अभिराम नहीं होता
मुठभेड़ों का परिणाम सदा, रण का परिणाम नहीं होता
लक्ष्मण ने साधा तीक्ष्ण बाण, मन में धारण कर राम नाम
वह तीर देह से मुक्त करा, ले गया वीर को पुण्यधाम
धड़ से सिर विलग हुआ क्षण में, आ गिरा धरा पर इंद्रजीत
रघुपति के चरणों में सिर था, इक वर्तमान अब था अतीत
© चिराग़ जैन