भारत जैसे लोकतंत्र में राष्ट्र को सर्वाेपरि मानना बेहद आवश्यक है। इस विचार के अभाव में पूरा तंत्र इतनी विविध वरीयताओं की गुत्थी सुलझाता रह जाएगा कि राष्ट्र के सम्मुख अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो जाएगा।
यही कारण है कि दल, व्यक्ति, परिवार, संगठन, धर्म, जाति और सम्प्रदाय; जो भी स्वयं को बड़ा सिद्ध करने चला, उसके लिए स्वयं को राष्ट्रभक्त सिद्ध करना अपरिहार्य हो गया। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जिसने भी ‘सप्रयास’ स्वयं को बड़ा सिद्ध करने का प्रयास किया उसकी राष्ट्रभक्ति संदेहास्पद ही रही है।
जो राष्ट्रहित अर्पित रहा, उसे कभी कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ा। जिसने जनहितकारी कार्य किये उसे अपने आपके प्रति आभार के पोस्टर्स नहीं चिपकवाने पड़े। जिसने पोस्टर लगवाए, वह अंततः राष्ट्रभक्ति की आड़ में सत्ता के लिए संघर्ष करता ही पाया गया।
स्वाधीनता के बाद से सत्ता की यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई है। हम पचास प्रतिशत काम और पचास प्रतिशत प्रचार के अनुपात से शुरू हुए थे और शून्य अनुपात शत के पायदान से होते हुए ऋणात्मक स्थिति तक पहुँचने जा रहे हैं। यह राजनीति की आमूल-चूल स्थिति है। इसमें कोई भी दल, कोई भी व्यक्ति, कोई भी विचारधारा और कोई भी दौर अछूता नहीं है।
धर्मनिरपेक्षता की डोरी से लोकतंत्र की कठपुतली नचानेवालों ने स्वयं को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के चक्कर में देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को तहस-नहस कर डाला। निरपेक्ष होने का अभिनय करके वोट बटोरने की लोलुपता ने कब उन्हें पक्षपाती बना दिया, उन्हें अनुमान ही न हो सका। यदि उनकी धर्मनिरपेक्षता राष्ट्र के हित को सर्वाेपरि रखकर आगे बढ़ी होती, तो आज हम वास्तव में विश्व के सम्मुख एक उदाहरण बनकर खड़े होते। किन्तु उनकी दृष्टि राष्ट्रहित के बिंदु पर स्थिर न रहकर सत्ता के वर्चस्व का त्राटक करती रही।
जब कोई इमारत बन रही होती है तब उसका ढाँचा खड़ा होता हुआ सबको दिखता है। उसकी दीवारें सबको दिखती हैं। इसीलिए स्वाधीनता के उपरांत देश की बुनियाद भरकर इस पर एक-एक ईंट रखनेवाले लोगों के प्रति हमें कृतज्ञ अवश्य होना चाहिए किन्तु यह भी सत्य है कि उन परिस्थितियों में जो भी देश का निर्माण करता वह ठीक इसी दिशा में कार्य करता, जिसमें तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने किया। बाढ़ आने पर दो ही काम किये जा सकते हैं, या तो पानी को रोकने का उपाय किया जाए अन्यथा डूबतों को बचाने की मुहिम चलाई जाए। स्वाधीनता के समय की परिस्थितियों में जो भी सत्तारूढ़ होता वह यही करता, यह और बात है कि कुछ लोग पूरे गाँव को बचा ले जाते हैं और कुछ स्वयं भी गाँव के साथ डूब जाते हैं।
हिन्दू हित, मुस्लिम हित, दलित हित आदि डोरियों से सत्ता के मंच पर अपनी डुगडुगी बजानेवालों ने भी यदि वास्तव में हिंदुओं का, मुस्लिमों का या दलितों का हित सोचा होता तो भी हम आज विश्व में उदाहरण बन चुके होते। किन्तु दुर्भाग्य कि इन लोगों ने भी वोटों के ध्रुवीकरण से अधिक अपने-अपने हिंदुओं, अपने-अपने मुस्लिमों और अपने-अपने दलितों की कोई अहमियत न समझी।
यदि इन्होंने अपने समूह के भविष्य की चिंता की होती तो किसी दलित को छुड़ाने के लिए दलित नेताओं के फोन थानों में न जाते। ग़लती करने पर पुचकारने वाले अभिभावक अपनी पीढ़ियों का भविष्य नष्ट कर देते हैं। यदि किसी मुस्लिम नेता को यह पता चले कि उसके समाज के किसी लड़के ने संविधान के अनुसार कोई अपराध किया है, तो उस लड़के के खि़लाफ़ प्राथमिकी दर्ज कराने उस नेता को स्वयं जाना चाहिए। न कि उस पर हुई प्राथमिकी को रफ़ा-दफ़ा करवाने का उपक्रम किया जाए। यदि ऐसा हुआ होता तो हर समाज में यह संदेश प्रसारित होता कि तुम्हारा धार्मिक कुनबा या तुम्हारा जातीय कुनबा भी देश के क़ानून का अपमान करने में तुम्हारा साथ नहीं देगा।
इतना भर पर्याप्त था, एक सुसभ्य समाज की प्रतिष्ठापना के लिए। किंतु हुआ इसके ठीक विपरीत। हर जाति के छुटभैये गुंडों ने अपनी अपनी जाति के छुटभैये नेताओं से अभय प्राप्त कर लिया। ये छुटभैये नेता उस जाति के वोट की दलाली करते रहे और इसके लिए अपनी ही जाति में सड़कछाप गुंडे पैदा करते रहे।
प्रारम्भ में उस जाति के सामान्य जन पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता था, किंतु ज्यों-ज्यों छुटभैये नेताओं की रंगदारी देखी तो दूसरी जाति के गुंडों से संरक्षण पाने के लोभ ने सामान्य जन में भी अपनी जाति कर प्रति कर्तव्यबोध जगा दिया।
काश यह कर्तव्यबोध राष्ट्र के प्रति जागा होता। धर्म की राजनीति भी ठीक जाति की राजनीति की तरह ही काम करती है। अपने आराध्य को राजनीति में घसीट कर छुटभैये नेता अपने पाले हुए छुटभैये गुंडों से फूस बिछवाते हैं और फिर उन गुंडों को भी बताए बिना चुपचाप उस फूस में चिंगारी लगा देते हैं। और हमारे देश से ज़्यादा कौन जानता है कि इस चिंगारी को लपट बनने में कितनी देर लगती है।
एक बार नफ़रत की चिंगारी चमक भर जाए, फिर उन्माद की हवाएँ उससे ऐसी बड़वानल उत्पन्न करती हैं कि सौहार्द, समन्वय, मनुष्यता, करुणा, सद्भावना और क्षमा जैसे शब्द उसकी पहली लपट में ही भस्म हो जाते हैं। विवेक के मजबूत वृक्ष भी उन लपटों से कोयला बन जाते हैं। कुछ दिन तक नफ़रत की आग समाज में ताण्डव करती है। उसके बाद इस आग के बचे हुए ताप पर वोटों की रोटियाँ सेकी जाती हैं।
इस प्रक्रिया में भी लगभग सभी राजनैतिक दल विविधता में एकता का परिचय देते हैं। हम इतने भोले हैं कि हर तीसरी हिंदी फिल्म में इस सबका असली चेहरा देखने के बाद भी यह नहीं समझ पाते कि दंगों का सबसे ज़्यादा नुक़सान उन्हें होता है, जिन्हें दंगों से कोई मतलब ही नहीं है। और दंगों से सबसे ज़्यादा लाभ वो उठाते हैं, जिन्हें कोई नुक़सान नहीं होता।
आजकल सोशल मीडिया ने दंगों को डिजिटल करके राजनीति के इस प्रकल्प को सुदृढ़ कर दिया है। पहले के समय में दंगे करवाने के लिए राजनीति को कई-कई दिन नफ़रत की फसल बोनी पड़ती थी, फिर अफ़वाह फैलवाकर उसको अंकुरित किया जाता था तब कहीं जाकर लोकतंत्र के औजारों को हथियार बनाकर वोटों की फ़सल काटी जाती थी। अब यह काम झटपट हो जाता है। सोशल मीडिया पर सभी दलों की साइबर सैल्स हमेशा केरोसिन में भीगी लकड़ियाँ तैयार रखती हैं। बस किसी भी छोटी-मोटी घटना को ढंग से न्यूज़ बुलेटिन या पैनल डिस्कशन में हवा देकर दंगे की लपट भड़काई जा सकती है।
दल, धर्म, व्यक्ति, परिवार, जाति और भाषा की तरह सोशल मीडिया भी एक औजार है। इससे इस राष्ट्र की मशीनरी को दुरुस्त करने और दुरुस्त बनाए रखने का काम किया जा सकता है। इसीलिए कोई भी मेसेज पढ़ो तो उसका अर्थ ग्रहण करने से पूर्व यह अवश्य विचारिये कि इस मैसेज में हम सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं या फिर सोशल मीडिया के माध्यम से एक बार फिर कोई राजनैतिक दल हमारा उपयोग कर रहा है।
© चिराग़ जैन
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