Wednesday, May 22, 2024

दशरथ

ना तो किसी रोग से टूटा 
ना ही समरांगण में हारा 
जिस राजा का शौर्य अमर था 
उसको कोपभवन ने मारा
उसकी देह धराशायी थी, जिसका नाम स्वयं दशरथ था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

वाणी से विषबाण चलाकर, जीवन का अमरित ले बैठी 
जिसने हर रण जीता उसको इक रानी की जिद ले बैठी 
होनहार बलवान थी वरना 
फूल छोड़, काँटे क्यों चुनती 
रानी कान भरे बैठी थी 
राजा की अनुनय क्या सुनती 
अपने घर के उपवन में ही पीड़ादायक कंटकपथ था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

सपनों ने सत्कार न चाहा, बेटे ने अधिकार न चाहा 
जो पत्नी सबसे प्यारी थी, उसने उस पल प्यार न चाहा 
पत्नी बात नहीं सुनती थी 
बेटा दर्द नहीं कहता था 
मन पर इतना भार उठाए 
राजा मन भर दुःख सहता था 
वो जिनको अन्याय मिला था, उसका मौन अधिक घातक था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

जिस पर तन-मन वार दिया था, उसने मन पर वार किया था 
वाणी से तलवार चलाकर, राजा का मन मार दिया था 
एक पुराना पाप फला था 
शीतल जल से कण्ठ जला था 
जिससे निश्छल प्रेम किया था 
उसने अवसर जान छला था 
मन टूटा, फिर साँसें उखड़ीं, यश-वैभव सब क्षत-विक्षत था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

✍️ चिराग़ जैन 

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