Saturday, July 23, 2016

गाली-गलौज का स्वर्णकाल

देश में गाली-गलौज का स्वर्णकाल चल रहा है। उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल का आगाज़ उत्तर प्रदेश की विविध सांस्कृतिक गालियों के साथ हुआ। भारतीय जनता पार्टी, जिसने ख़ुद ही अपने सिर पर सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा का सेहरा लपेट रखा है, उसने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से लुप्त हो रही गालियों के संरक्षण के उद्देश्य से एक ‘पुरावैदिक कालीन गाली’ सुश्री मायावती को भेंट की। उससे प्रभावित होकर दलित समर्थकों ने ‘पौराणिक युग’ की याद दिलाई और शूर्पणखा की नाक काटने और द्रौपदी का चीरहरण करने की धमकी दे डाली। फिर वही हुआ, जो होना था। मास-सिम्पैथी का रुख सुग्रीव की ओर मुड़ गया और सुग्रीव किष्किन्धा का सिंहासन छोड़कर ऋष्यमूक पर्वत की कंदराओं में मूक होकर बैठ गया।
मायावती ने द्रौपदी को जंघा पर बैठाने की पेशकश को ‘सबक सिखाने के लिए किया गया कृत्य’ घोषित करते हुए अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर स्वयं को गांधारी सिद्ध कर दिया। इस बीच कुछ अर्जुनों ने गाली बकनेवाले जयद्रथ की ज़ुबान काटने की इनामी प्रतिज्ञा कर ली।
राजनीति की इस महाभारत में कांग्रेस के दो लीडरों ने मिलकर बड़ी मेहनत से केंद्र सरकार के लिए ‘कचरा’ जैसा शब्द प्रयोग किया और गालियों के इस सेतुनिर्माण में गिलहरी की भूमिका अदा कर दी। कांग्रेस के इस कृत्य से आभास हुआ कि यदि कांग्रेस ने राजीव जी द्वारा दिए गए कम्प्यूटर का प्रयोग किया होता तो आज उन्हें एक-47 के युग में खुखरी से काम न चलाना पड़ता। मीडिया ने शकुनि बनकर इस महासमर में शांति की संभावनाओं को प्राइम टाइम बुलेटिन की चौसर पर ध्वस्त कर दिया और कानून ने धृतराष्ट्र की भूमिका प्राप्त करने के लिए अपनी आँखें फोड़ लीं।
इस दौर का एक बड़ा लाभ यह हो रहा है कि जो नई पीढ़ी फिल्मों से सीखकर ‘शिट’; ‘फ़क’; ‘एस्सहोल’ और ‘बुलशिट’ जैसे पाश्चात्य शब्दों को भाषा का स्टेटस सिम्बल समझने लगी थी उसको कम से कम यह तो पता चल रहा है कि भाषाई अलंकरण में हमसे आगे दुनिया में कोई नहीं हो सकता।
हमने ऐसे-ऐसे शब्दों से अपनी भाषा को समृद्ध किया है, जिनका सौंदर्य देखते ही बनता है। हमने किसी को अपमानित करने के लिए कभी भी अपनी जिव्हा पर ‘शिट’ जैसी गन्दी चीज़ नहीं रखी। ‘कमीन’; ‘नीच’; ‘चाण्डाल’; ‘कुत्ता’ और ‘सूअर’ जैसे शब्दों को गाली के रूप में मान्यता देकर हमने कई पीढ़ियों तक प्रेम-प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है। ‘हराम’ जैसा शब्द तो हर आम आदमी के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
इस देश के प्राथमिक स्कूलों के विद्यार्थी आज भी आधी छुट्टी में इस विषय पर संगोष्ठी करते मिलते हैं कि ‘साला’ गाली है या नहीं। वे अबोध समझते हैं कि जिन शब्दों को मास्टरजी और पापा सामान्य व्यव्हार में प्रयोग करते हैं, वे गाली कैसे हो सकते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि इस शब्द में मौजूद अन्योक्ति अलंकार ने कितनी सरलता से हमारी सामाजिक मर्यादा के बावजूद दिल की बात ज़ुबान पर लाने का जरिया किया है।
माँ, बेटी और बहन से शुरू होनेवाले शब्द युग्मों ने अपनी लयात्मकता के सहारे आम बोलचाल की भाषा में ख़ुद को खपा लिया है। हाँ इधर कुछ लोग पुरुष देहयष्टि को स्त्री अंगों के साथ गड्ड-मड्ड कर कुछ अपभ्रंश शब्दयुग्मों का प्रयोग करने लगे हैं। इस प्रवृत्ति ने विश्व को ट्रांसजेंडर नाम के एक नए समुदाय की सौगात दी।
मानवता का विकास लिखने से पहले गालियों के विकास का गहन अध्ययन आवश्यक है। शिशुपाल ने कुल सौ गालियों से कृष्ण के जाम पड़े चक्र को गति दी थी। आज भी जब इस देश में चक्काजाम की स्थिति आती है तो जनता गालियों की ग्रीसिंग करके ही उसे गति देती है।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनैतिक माहौल ने हमारा ध्यान इस पुरातन परम्परा की ओर आकृष्ट किया है। मैं मन ही मन गाली बकते हुए उनका आभार व्यक्त करता हूँ।

© चिराग़ जैन

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